सोमवार, 12 सितंबर 2016

वाराणसी की चिट्ठी देश की सभी जातियों के लिये समर्पित है

दिनांकः 2.09.2016
भर,जाट, बोस /भरत वंश एवं पाशी, खरवार, भतृहरि के संबंध में स्पष्ट व्याख्या पर आधारित
पुलिस निरीक्षक अर्जुन वंशी अवधेश कुमार राय राजभर , जक्खिनी, वाराणसी की चिट्ठी देश की सभी जातियों के लिये समर्पित है-
आचार्य जी द्वारा प्रेषित पुस्तक में अंकित ऐतिहासक तथ्य
’’ऐतिहासिक पृष्ठ भूमि-विन्ध्य क्ष्ेात्र के  प्राचीन नरेशों में भर राजाओं का नाम सर्व प्रथम आता है। यह राज्य उत्तरप्रदेश में भदोही से लेकर दक्षिण में निर्माण कराया था। भर राजाओं का मुख्य बड़हर तक फैला हुआ था। इस वंश के नरेशों ने इस विन्ध्य क्ष्ेात्र में अनेकों बाबलियां खुदवायी थीं एवं मन्दिरों का केन्द्र ओझला नदी से अष्ट भुजा तक फैला हुआ था। ऐसा माना जाता है कि भर विन्ध्याचल क्ष्ेात्र 150 ई.पू. में आए। इन शासकों द्वारा बनवाये हुए लगभग 150 मन्दिरों को औरंगजेब ने नष्ट करवा दिया था और अधिकांश मन्दिर गंगा रास्ता बदलने के कारण कटकर गंगा गर्भ में विलीन हो गए। मगध साम्राज्य के उदय से भर गणतंत्र का पतन हुआ।अन्त में कौटिल्य के समय यह मगध साम्राज्य का अंगबन गया। मौर्य काल एवं सम्राट अशोक के काल में विन्ध्याचल को कोई विशेष महत्व नहीं मिला था।गुप्त साम्राज्यके उदय और हिन्दू संस्कृति एवं परम्पराओं के पुनुरुद्धार से विन्ध्याचल मां को अपनी ख्याति महत्ता एवं सम्मान पुनः मिलगया। हर्षवर्धन काल में भरों एवं नरों ने विन्ध्याचल पर शासन किया। कालान्तर में उज्जैन के राजा विक्रमा दित्य के भाई भर्तृहरि ने राज्य सम्पत्ति का त्याग करके विन्ध्याचल में बहुत दिनों तक योग साधना की । विन्ध्याचल की तराई में चुनारगढ़ में उनका मन्दिर बना हुआ है। इसके पश्चात गंगा और विन्ध्य की इस रमणीक भूमि की शोभा पर मुग्ध होकर पृथ्वीराज ने अपना काफी समय व्यतीत  किया।    
      1090 ई. में वाराणसी में कन्नौज के गहरवारों के आ जाने से विन्ध्याचल गहरवारों के नियंत्रण में आ गया। अपनी धार्मिक रुचि के कारण गहरवारों ने विन्ध्याचल के विकास एवं पुनर्निर्माण में काफी रुचि ली और गंगा के किनारे कान्तित में एक वैभवशाली महल का निर्माण कराया। भारत के अन्य भागों की तरह विन्ध्याचल के हिन्दू मन्दिरों एवं धार्मिक स्थलों को भी मुस्लिम आक्रमणों का सामना करना पड़ा। मुस्लिम आक्रमणों से निरन्तर पीड़ित होकर गहरवार राजाओं ने अपनी राजधानी विजयपुुर स्थानान्तरित करली। गहरवारों के बाद विन्ध्याचल काशी नरेश के अधीन हो गई और ब्रिट्रिश काल में भी उनकी जमींदारी में रहा। कंकाल काली, गेरुआ तालाब, मोतिय तालाब, सप्त सागर कर्णवीर वावली, ब्रह्म कुण्ड, नाग कुुण्ड आदि महत्वपूर्ण पवित्र धार्मिक स्थल देखने योग्य हैं। सर्वनाश के कारणोंकी घोशणा करते हुए महामाया अष्ट भुजा देवी विन्ध्य पर्वत पर आकर आसीन हो गईं। इसके बाद गंधर्व, यक्ष, ऋशिमुनि सभी इस क्ष्ेात्र को तपोभूमि मान कर निवास करने लगे।’’
उक्त लेखों पर चिट्ठी लेखक की चिटठी-  
विन्ध्याचल में भरों को 150 ई0पू0 आना दर्शाया गया है। अर्जुन वंशी निचक्षु जो अर्जुन के लगभग 13 वी पीढ़ी पर थे। मेरठ जनपद के हस्तिनापुर महल के गंगा में विलय हो जाने के कारण कौशाम्बी चले आये थे । 600 ई0पूर्0 यहाॅं का राजा निचक्षु कुल का ही  भरत वंशी उदयन था । पूरा वत्स क्षेत्र इलाहाबाद, प्रतापगढ़ फतेहपुर आदि क्षेत्र इनके अधीन थे । इनका बेटा बोधि कुमार था, जिसे चुनारगढ़ भेजा गया । यहाॅं का प्राचीन किला जहाॅ स्थित है उसे भरपुर भी कहते हैं । राजस्व अभिलेखों में भरपुर अंकित है। बोधिकुमार भर्ग प्रदेश जिसमें इलाहाबाद से पूरब का क्षेत्र बनारस एवं मिर्जापुर था, के नायक/राजा बने थे । चुनार किले के पूर्वी फाटक पर पहले बोधि कुमार का नाम अंकित था, किन्तु अब हटा दिया गया है । मैने गेट पर अंकित बोधि कुमार का नाम वर्ष 1983 में देखा था । उस समय मेरा फुफेरा भाई उदय सिंह चुनार किले पर पीएसी के आरक्षी पद का ट्रेनिंग कर रहा था । उसके बुलाने पर मै चुनार आया था । किले का भ्रमण किया था, परन्तु आज तो मै स्वयं पुलिस निरीक्षक के पद पर होकर इसी पुलिस प्रशिक्षण केन्द्र में कार्यरत हूॅ, जिसके कारण यहाॅं की हर बात मेरे संज्ञान में है।
वत्स एवं भर्ग प्रदेश के बारे में बता दूॅ कि वत्स एवं भर्ग दिवोदास के पुत्र थे । दिवोदास की बंशावली यह है कि भरो के पूर्वज पुरू के पिता ययाति थे एवं ययाति के पिता नहुष के भाई वृद्धक्षत्र थे, जिनकी तीसरी पीढ़ी पर काशी नामक संतान की उत्पत्ति हुई थी । काशी के सातवी पीढ़ी पर दिवोदास हुये थे । यहीं काशी राजघाट स्थित किला से जिस क्षेत्र पर राज करते थे उसका नाम काशी पड़ा था । सैयद सलार गाजी/सैयद महमूद गजनवी द्वारा भर राजा बनार पर धोखे से वर्ष 1002 में आक्रमण करने के कारण भर राजा बनार की मृत्यु हो गयी थी।   काशी के बाद इस क्षेत्र का नाम भर राजा बनार के कारण बनारस पड़ा । उस समय भूमिहारों के पूर्वज कत्थू मिश्र बनार राजा के पुरोहित थे । इनका कुछ ऐसा रोल था कि डाॅ0 सम्पूर्णानन्द जी को अपनी पुस्तक काशीवासियों एवं राजा चेतसिंह की अंग्रेजो से युद्ध में इस प्रकार लिखना पड़ा कि राजा बनार अपने पुरोहित को कुछ दान देना चाहते थे । उनके न लेने पर राजा बनार उनकी पगड़ी में दान पत्र छिपा दिये थे। कत्थू मिश्र पगड़ी से दान पत्र पाने पर नाराज हो गये और श्राप दिये कि अब तुम्हारा राज्य क्षेत्र तुम्हारे वंश में न रहकर हमारे वंश में आ जायेगा । मुगलों के समय में कत्भूमिश्र के कुल के जौनपुर के मंशाराम दूबे को मुगलों के सूबेदार ग्यासुद्दीन ने जमीदार बना दिया था और मुगलों की सेना की सहायता दे दी थी । मंसाराम दूबे को बलवंत नामक लड़का पैदा हुआ था । मुगलों ने राजा बनाकर इन्हें बलवन्त सिंह की उपाधि दी थी । मंशाराम दूबे व बलवंत सिंह मुगलों की सेना लेकर बनारस, बलिया, गाजीपुर, जौनपुर के असली क्षत्रिय भर राजाओं को आपस में लड़का अथवा मुगलों की सेना की सहायता से नष्ट किये और उनकी संपत्ति पर अपना अधिकार जमा लिये । मंशाराम दूबे की मृत्यु 1734 ई0 में हुई । उसके बाद 1744 ई0 में बलवन्त सिंह ने मुगलों की सेना की सहायता एवं प्रतापगढ़ के जमीदार पृथ्वीराज की सहायता से भदोही के भर राजा दसवन्त सिंह राजभर को नष्ट कर वहा पर अपना अधिपत्य कर लिया । मुगलों को खुश करने के लिये कुछ भर राजा भी सिंह टाईटिल का धारण करते थे।  भदोही में मानसिंह वंश के मानस एवं कछवाहा ठाकुर भी है। उनका कहना है कि जब उनके पूर्वज मुगल आक्रमण के समय राजपूताना राजस्थान से भदोही आये थे तो भदोही के भर राजा उनकी सुन्दर औरतों को जबरदस्ती छीन लिये थे तथा मर्दो से हलवाई/मजदूरी कराने लगे थे। यह लोग समय से समझौता करके भर राजाओं की जी हजूरी करते रहे, लेकिन मानस ठाकुर मौका पाकर होली के दिन जिस दिन भरतवंश के राजा एवं प्रजा शराब की नशे में धुत थी, धोखे में हत्याकर भदोही को भर राजाओं से छीन लिये ।  मानस ठाकुर जो कह रहे हैं । इस बारे में बस यह जानिये कि अच्छो को बुरा साबित करना लोगों की पुरानी आदत है।
जिस तरह  भरत वंश क्षत्रिय से नष्ट होकर अपनी गिनती छोटी जाति में करा रहा है । उसी प्रकार वत्स एवं भर्ग वंश के क्षत्रिय नष्ट होकर नोनिया जाति के रूप में अपनी गिनती करा रहा है। जिस प्रकार भरत/भर वंश के राजाओं के मंत्री, लगान वसूलने वाले ठाकुर गुलाम बंश, खिलजीवंश, मुगल वंश के इशारे पर एक-एक करके अनायास धोखे में राजा को नष्ट करके जो भरत वंश की ही शाखाओं के थे, उनके क्षेत्र पर चंदेल, गहरवार, परिहार, भदौरिया, वत्स भारद्वाज, बुन्देला के रूप में 14 कोस 12 कोस 8 कोस के ठाकुर के रूप में असली क्षत्रिय कहकर रह रहे हैं उसी प्रकार वत्स एवं भर्ग वंश में असली क्षत्रिय को नष्ट कर उसे नोनिया के रूप में रखा गया और सेंगर, विसेन, चैहान, राजकुमार एवं रजवड़िया नोनिया के राज के समय मंत्री एवं ठाकुर पद पर रहने वाले लोग असली क्षत्रिय बताकर रह रहे है। अम्बे, अम्बा, अम्बाली जिसे स्वयंवर से भरत वंशी भीष्म पितामह उठाकर ले गये थे, उनके पूर्वज रामनगर के भूमिहार ब्राहमण नही बल्कि राजघाट के काशी के बंश के लोग पूर्वज थे जो क्षत्रिय थे और आज उनकी पहिचान नोनिया के रूप में है।
जौनपुर में एक दुर्गवंशी ठाकुर है । इनका कहना है कि दुर्गवंशी 14 कोस में है । यह लोग काले वीरू भर राज की हत्या करके उनकी संतान को भाला देकर पहरेदारी कराने लगे थे ।  इनका गोत्र कुशिक क्षत्रिय है।  भरत वंश की वंशावली में अजमीढ़ की तीन रानियों थी । तीसरी रानी से जो पुत्र हुये थे वे कुशिक क्षत्रिय कहे गये थे । सच्चाई यह है कि दुर्गादास कालेवीरू भर राजा के मंत्री थे । किसी बात पर कालू वीरू भर राजा पुरोहित पर आग बबुला हो गये थे । इसी आड़ में दुर्गादास मंत्री ने कालू वीरू की हत्या करके उनके राज्य पर अपना अधिकार स्थापित कर लिया था ।
ऐतिहासिक लेखों मेें अंकित है कि 1090 में कन्नौज के गहरवार वाराणसी आये । कान्तितपुरी में विशाल महल बनवाये एवं मुस्लिम आक्रमण के कारण विजयपुर चले गये । सच्चाई यह है कि विन्ध्य क्षेत्र भर राजाओं के अधीन ईसा के पूर्व में ही थी। जब मथुरा, ग्वालियार के यादव एवं कान्तिपुरी के भारशिव राजा वीरसेन एक नाग राज्य का निर्माण किये थे और उसके मुखिया भर या भारशिव राजा वीरसेन थे तो वीरसेन की राजधानी कान्तितपुरी थी । आज तो कान्तिपुरी में मुसलमानों का मजार बना है। खण्डहर दिखाई देता है । यह स्थान मिर्जापुर से माॅ विन्ध्य वासिनी मन्दिर जाते समय रास्ते में गंगा के किनारे पड़ता है। विन्ध्य घाट के बाद कान्तित घाट का भी नाम आता है ।
डाॅ0 स्मिथ ने भरो एवं चंदेलों को भरो की संतान का उल्लेख किया है । डाॅ0 फान्सिस बचनान ने परिहार को भरो की संतान कहा है। यह भी कहा है कि कभी भारत की एक-एक एकड़ जमीन पर भरो का बोल बाला व अधिपत्य था । डाॅ0 गोस्टव अपार्ट पीएचडी ने तो लेखनी की हद कर दी है । उन्होने लिखा है कि कुछ राजपूत अपनी अतड़ियों में भरो का खून छिपा रखे हैं ।
गहरवार की उत्पत्ति के बारे में स्पष्ट कर दूॅ कि जब 1002 में बनार राजा पर सैयद सलार ने आक्रमण करके उनकी हत्या कर दी थी तो इसी जगह से देव वर्मा नाम का व्यक्ति अध्योध्या होते हुये कन्नौज गया था और वहाॅ पर ग्रह वार शब्द से वंश स्थापित किया था । इसे समझने के लिये समझा जाये कि युद्ध का ग्रह हुआ । कन्नौज के वर्तमान वसिन्दा कहते हैं कि कन्नौज में भरो का राज था। 1206 में कुतुबुद्दीन ऐबक ने जयचन्द की आॅख में तीर मार दिया था । उसके बाद उनकी मृत्यु हो गयी थी । इसी जयचन्द का पुत्र हरिश्च्नद्र बनारस का राजा हुआ था । एक राजा हरिश्चन्द्र दानी राजा थे जो भगवान राम के पूर्वज थे और दूसरे हरिश्चन्द्र जय चन्द्र के पुत्र थे । भर गलत फहमी में दानी राजा हरिश्चन्द्र को अपने बंश का समझते है वस्तुत जयचन्द के पुत्र हरिश्चन्द्र ही भर राजा थे ।
वास्तव में भरो की बंशावली के प्रति राजभर जाति के लेखकों में काफी भ्रम है । इस भ्रम को हमारे देश के लोग कायम इसलिये रखना चाहते हैं कि यदि भरों का उनके आदि पूर्वजों का ज्ञान हो गया तो आज भी विभाजित भारत में भरतवंश के
60 प्रतिशत लोग विभिन्न जातियों के रूप में रह रहे हैं और यह एक होकर पुनः भारत की सत्ता प्राप्त कर कुशल शासन करने का परिचय देने लगेगे ।
राहुल सांकृतायन जी सप्तमी के बच्चे में सिन्धुघाटी पर जन जीवन लाने एवं महल बनाने तथा विदेशों से जल मार्ग द्वारा व्यापार करके देश को तरक्की देने का श्रेय भर जाति को देते हैं । क्या राजभर जाति के लेख कभी वहाॅ पर किस पुरूष ने ऐसा कृत्य किया उसे खोजने की कोशिश की । मै महसूस करता हूॅ कि अभी तक ऐसा नही किया गया है। मैने पाया कि राजा ययाति के पाॅच पुत्रों में सबसे छोटा पुत्र पुरू थे । शुक्राचार्य के श्राप से बृद्ध हो गये थे । राजा ययाति की याचना पर पुरू ने उन्हें अपनी जवानी देकर भारत का राजा बने थे । इसी पुरू के 19 वी पीढ़ी पर दुष्यन्त की उत्पत्ति हुयी थी । दुष्यंत के सम्पर्क से विश्वामित्र की छलिया रानी मेनका की पुत्री शकुन्तला से भरत जी की उत्पत्ति हुई थी ।
भरतजी की तीन रानियों से 9 पुत्र हुये थे । उनके जैसा वीर नही थे । उन्होने रानियों से बस इतना कहा कि तुम्हारे पुत्र तो मेरे जैसा नही है । इस पर रानिया डर गयी और सभी 9 पुत्रों को यमराज को दे दी । पुत्रविहीन होकर भरत जी मरूतोत्सम यज्ञ किये । तद्न्तर मरूतो ने वृहस्पति के नाजायज सम्पर्क से उनकी भाभी ममता से उत्पन्न भारद्वाज को भरत जी को दे दिये । जैसे ही भारद्वाज ही भरत के कुल में आये । उस समय भारद्वाज जी बालक थे । उनके आते ही भरत जी की पत्नी सुनन्दा से भूमन्यू नामक पुत्र उत्पन्न हुये । भारद्वाज के आगमन के कारण वंश चलने लगा । अतः इस कुल के लोगों को गोत्र भारद्वाज हुआ । भरो का गोत्र भी भारद्वाज है।  अतः लेखनी के समय वंशासली के लिये उस गोत्र का आधार बनाना बहुत जरूरी है अन्यथ लेख अधूरा एवं असत्य सिद्ध होगा ।
इसी भरत जी के सातवी पीढ़ी पर संवरण पैदा हुये थे । संवरण ही पंचालो द्वारा पराजित होकर सिन्ध प्रदेश गये थे और वहाॅं पर महल बनाना एवं शासन व्यवस्था का कार्य प्रारम्भ किये थे । इससे आप समझ ले कि राहुल साकृतायन जी काफी जानकार है और सहीं चीज अपने लेखनी से पुस्तक में अंकित किये हैं । केवल पूवर्ज का नाम नही दिये हैं । अब मैं नाम दे रहा हूॅ । उसे समझे और खुद को पहचाने तथा इस जाति को अब आगे ले चलने की कोशिश करें ।
भर, जाट, बोश, साहनी निषाद, बिन्द, पाशी, खरवार, बाल्मिकी आदि भरतवंशी की बंशावली
आदि काल में ब्रहमा के 12 आहवानित पुत्रों में से एक अत्रि ऋषि थे । अत्रि की पत्नी अनुसूईया थी । इनसे चन्द्र, दुर्वासा, दत्तात्रेय हुये । दुर्वासा दत्तात्रेय ऋषि हुये । चन्द्र से वंश आगे चला । चन्द्र से बुद्ध, बुद्ध पत्नी इला से पुरूरूवा, (पुरूरूवा समुद्र के 13द्वीपों का अधिपति था) पुरूरूवा पत्नी उर्वशी से आयुष आदि 6 पुत्र हुये । (इसी उर्वशी ने एक बार महाभारत के अर्जुन से अपने साथ संबंध स्थापित करने हेतु कहा था, किन्तु अर्जन जानते थे कि यह हमारी कुल माता है । अर्जुन ने साफ मना किया कि आप मेरी कुल की माता है मैं ऐसा नही कर सकता, जिस परउर्वशी ने उन्हें नपुंसक बनने का श्राप दिया था । दुर्वासा ऋषि की कृपा से नपुंसक वाला श्राप जब अर्जुन एक वर्ष के लिये अपने भाईयों के साथ अज्ञात वास में थे उसी समय इन पर हावी हुआ था और समाप्त हो गया था ) आयुष पत्नी स्वभानवी से नहुष आदि 6 पुत्र हुये । नहुष से ययाति आदि  6 पुत्र हुये । ययाति सम्राट बने थे । इनकी दो पत्नियाॅ क्रमशः देवयानी शुक्राचार्य की पुत्री एवं शर्मिष्ठा राजा वृषपर्वा की पुत्री थी । देवयानी से यदु एवं तुर्वस तथा शर्मिष्ठा से दुह्य, अनु एवं पुरू हुये थे । शुक्रचार्य के श्राप के कारण राजा ययाति जवानी में ही वृद्ध हो गये थे । राजा ययाति ने बारी-बारी अपने पुत्रों से जवानी की मांग की थी, किन्तु यदु, तुर्वस, दुह्य एवं अनु ने जवानी नही दी जिन्हें राजा ययाति ने तरह तरह के श्राप दिये । यदु को राज्य का अधिकारी न होने, तुर्वस को उसके संतान धर्म को निभाने वाले न होने एवं म्लेक्षों का राजा होने, दुह्य को जहाॅ अश्व, रथ, हाथी, पालकी गदहे, बकरे एवं बैल का आवागमन नही होगा वहाॅ निवासी होने तथा अनु को असमय में ही वृद्ध हो जाने संताने युवा हो होकर मर जाने स्रोत तथा स्मातं दोनो प्रकार की अग्नियों में हवन का अधिकारी न होने का श्राप दिया गया था । राजा पुरू द्वारा जवानी दिये जाने पर उन्हें राजा बनाया गया ।
पुरू की पत्नी कौशल्या से जन्मेजय पत्नी  माधव राजकुमारी अनन्ता से प्राचिन्वान पत्नी यादव कन्या अश्मकी से संयाति पत्नी बरांगी दृषदान की पुत्री से अहंयाति पत्नी भनुमति पुत्री कीर्तिवीर्य से सार्वभौम । सार्वभौम ने कैकय देश के राजा को जीतकर उसकी पुत्री सुंनिन्दा से शादी किया । इनसे जयत्सेन पत्नी सुश्रवा विदर्भदेश के राजा की पुत्री से अवाचीन पत्नी मर्यादा विदर्भ देश की पुत्री से अरिह पत्नी आंगी अंगेदश के राजा की पुत्री से महाभौम पत्नी सुयज्ञा पुत्री प्रसेनजित से अयुतानामी पत्नी कामा पृथुश्रवा की पुत्री से अक्रोधन पत्नी करम्भा कलिंगदेश की राजकुमारी से देवातिथि पत्नी मर्यादा विदेह(जनकपुरी) राजकुमारी से अरिह पत्नी सुदेवी अंगेदेश की राजकुमारी से ऋक्ष पत्नी ज्वाला पुत्री तक्षक से मतिनार । मतिनार सरस्वती नदी के तट पर सर्वगुण संपन्न यज्ञ का अनुष्ठान 12 वर्ष तक किये । मतिनार को सरस्वती ने स्वयं आकर वर चुन लिया । मतिनार व पत्नी सरस्वती से तंसु पत्नी कलिंग राजकुमारी से इलिन पत्नी रथयन्तरी से दुष्यंत आदि 5 पुत्र । दुष्यंत कुछ समय के लिये तुर्वस के देश चले गये थे । वहाॅ जाने से पहले उन्हें संघान, पाण्ड्य, केरल, चोल, कर्ण आदि 5 पुत्र हुये थे । इसमें चोल वंश ही कोल हुआ तथा केरल वंश ही भील हुआ । पाण्डय आज भी इस टाईटिल को धारल कर रहे हैं । दुष्यंत वापस आने पर कण्व ऋषि के आश्रम में विश्वामित्र की छलिया रानी मेनका से उत्पन्न शकुन्तला को देख लिये । शकुन्तला से उनका प्यार परवान चढ़ गया । उसी आश्रम में ही शकुन्तला ने भरत जी को जन्म दिया था। दुष्यंत भरत को अपना पुत्र स्वीकार नही कर रहे थे । भविष्यवाणी होने पर भरत को पुत्र स्वीकार किये । भरत जी पाॅच वर्ष के उम्र में ही जंगली शेर, बाघ, हाथी आदि से क्रीड़ा करते रहे ।
भरत जी की तीन रानियों से 9 पुत्र थे । उन जैसा न होने के कारण रानियों से कहे कि तुम्हारे पुत्र मेरे जैसा नही है। रानियाॅ डर गयी और पुत्रों को यमराज को दे दी । पुत्र विहीन होने पर भरत जी मरूतोत्सम यज्ञ किये । वृहस्पति ने अपने भाई उतथ्य की पत्नी ममता से नाजायज संबंध स्थापित किया था, जिनसे जो पुत्र पैदा हुआ उसका नाम भरद्वाज पड़ा । वृहस्पति एवं उतथ्य ने कहा कि यह पुत्र हम दोनों के कारण द्विज है तुम इसका पालन पोषण करोगी तो इसका भर होगी अतः इसका नाम भरद्वाज रहेगा। भारद्वाज जी नाजायज होने के कारण उपेक्षित थे । मरूतो ने इन्हें लाकर भरत जी को दे दिया । भारद्वाज के बाल्यावस्था में ही भरत के घर आने पर भरत जी की पत्नी सुनन्दा जो काशीराज सर्वसेन की पुत्री थी से भूमन्यु नामक पुत्र हुआ । भूमन्यु पत्नी विजया दशार्ह देश की राजकुमारी से सुहोत्र पत्नी सुवर्णा इच्छवाकु राज की कन्या से हस्ती हुये । इसी हस्ती ने मेरठ जनपद में हस्तिनापुर बसाया था । हस्ती का विवाह याोधरा त्रिगर्त देश की राजा की पुत्री से हुआ, जिनसे विकुण्ठन की उत्पत्ति हुई । विकुण्ठन पत्नी सुदेवा दशार्ह देश की राजकुमारी से अजमीढ़ हुये । अजमीढ़ की कैकयी, विशाला एवं ऋक्षा तीन रानिया थी, जिनसे 124 पुत्र हुये थे । सबसे बड़े संवरण थे । एक अन्य पुरण के अनुसार अजमीढ़ की तीन पत्नी थी । पत्नी धूमनी से ऋक्ष पैदा हुये, जिनसे संवरण पैदा हुये थे । दूसरी पत्नी नीली से दुश्यंत परमेष्ठी हुये । दुश्यंत परमेष्ठी की संताने पांचाल हुये । इसी पंचालो ने संवरण को पराजित कर सिन्ध देश भागने के लिये मजबूर किया था । सिन्धु नदी के विशाल निकुजों में छिपते हुये संवरण ने समय बिताया और सिन्धु नदी के तटवर्ती प्रदेशो में भरतवंशी क्षत्रियों ने अपने दुर्ग बनवायें । पुरणो के अनुसार व्यवस्थित होने में एक वर्ष लग गये थे । बाद में वशिष्ठ को अपना पुरोहित बनाकर पुनः भारत का राजा बने थे ।  तीसरी पत्नी केशरी से जहनू, व्रजन व रूपिण पैदा हुये थे । जहनू की संताने कुशिक क्षत्रिय कही गयी । यही लोग आज दुर्गवंशी के रूप में जौनपुर में है जो कहते है कि काले वीरू भर राजा को मारकर 14 कोस में बसे हैं ।
राजा संवरण ने सूर्य की पुत्री से शादी करके कुरू को पुत्र रूप में प्राप्त किया । कुरू पत्नी शुयांगी दशार्ह देश की राजकुमारी से विदूरथ पत्नी संप्रिया माधव की पुत्री से अनश्वा पत्नी अमृता मगध देश की राजकुमारी से परीक्षित पत्नी सुयशा बहुद की कन्या से भीमसेना पत्नी कुमारी कैकेय देश की राजकुमारी से प्रतिश्रवा से प्रतीप पत्नी सुनन्दा पुत्री शैव्य राजा से तीन पुत्र दवापि, शान्तनु एवं वाहलीक की उत्पत्ति हुई । देवापि वन चले गये थे । वाहलीक वर्तमान इराक ईरान क्षेत्र का पुराना नाम है जहाॅं के शासक हुये थे । शान्तनु अपने पूर्वजों की धरती के राजा हुये थे ।
राजा शान्तनु की पत्नी गंगा थी । (शान्तनु जिस वृद्ध को छू देते थे, युवा हो जाता था । शाम् का मतलब स्वस्थ्य, युवा एवं सुन्दर तनु का मतलब शरीर बना देने वाला होता है)गंगा भगीरथ की पुत्री थी । इस वंश में नारी प्रधान होता था, जिसके कारण वह अपने मायके में ही रहती थी । पत्नी गंगा ने आठवा पुत्र देवव्रत को राजा शान्तनु को दिया था । सत्यवती में राजा शान्तनु का मन लगने के कारण निषादराज के समक्ष देवव्रत ने न शासन करने एवं और न ही विवाह करने का कठोर संकल्प लिया, जिसके कारण उनका नाम भीष्म पड़ा । राजा शान्तनु एवं सत्यवती से चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य पैदा हुये । चित्रांगद गान्धर्वो द्वारा युद्ध में मारे गये । विचित्रवीर्य का विवाह काशीराज की पत्नी कौशल्या के गर्भ से उत्पन्न पुत्री अम्बाली व अम्बालिका से हुई, किन्तु विचित्रवीर्य भी निः संतान मर गये ।
सत्यवती ने शुरूआत में भीष्म से कहा कि अम्बाली अम्बालिका से वंश रक्षा हेतु पुत्र की उत्पत्ति करो । कठोर संकल्प के कारण भीष्म जी इन्कार कर दिये । चूॅकि पराशर ़ऋषि के सम्पर्क से सत्यवती के गभी से शादी पूर्व व्यास जी उत्पन्न हुये थे अतः सत्यवती ने व्यास को याद किया । व्यास की कृपा से अम्बाली से धृतराष्ट्र एवं अम्बालिका से पाण्डु पैदा हुये ।
धृतराष्ट्र को 99 पुत्र व एक दुःशाला पुत्री हुई थी । पुत्र क्रमशः 1. दुर्योधन सबसे बड़ा 2. युयुत्स सबसे छोटा (दासी पुत्र था)3. दुःशासन, 4. दुस्सह, 5.दुश्शल, 6.जरासंघ, 7.सम, 8.सह 9. बिन्द 10. अनुबिन्द, 11. दुर्द्धष 12. सुबाहु 13. दुष्प्रघर्षण  14. दुर्मषण 15. द्रमुख, 16. दुष्कर्ण 17. कर्ण 18. विविशति 19 विकर्ण 20. शल, 21.सत्व 22. सुलोचन 23 चित्र 24. उपचित्र 25. चित्रांक्ष 26. चारूचित्र 27. शरासन 28. दुर्मद 29. दुर्विगाह 30. विवित्सु 31. विकटानन 32. दर्णनाभ 33. सुनाभ 34. नन्द 35. उपनन्द 36. चित्रगण 37. चित्रवर्मा 38. सुवर्मा 39 दुर्विमोचन 40. आयोवाहू 41. महाबाहु 42. चित्रांक 43. चित्र.कुण्डल 44. भीमवेग 45. वलाकी 46. वलबर्द्धन 47. उग्रायुध 48. सुषेण 49. कुण्डधार 50. महोदर 51. चित्रायुध 52. निषंगी 53. पाशी 54. वृन्दारक 55. दृढ़वर्मा 56. सोमकीर्ति 57. अनूदर 58. दृढ्संघ 59 जरासंघ-2 60. सत्यसघ 61. सदःसुवाक 62. उग्रश्रवा 63. उग्रसेन 64. सेनानी 65. दुष्पराजय 66. अपराहिजत 67. कुण्डशायी 68. विशालाक्ष 69. दुराधर 70. दृढ़हस्त 71. सुहस्त 72. वातवेग 73. सुवर्णा 74. आदित्यकेतु 75. वहवाशी 76. नागदत्त 77. कवची 78. कथन 79. कंचन 80. कुण्डी 81. उग्र 82. भीमरथ 83. वीरवाहू 84. अलोलुप 85 अभय 86. रौद्रकमा 87. दृढ़रथ 88. अनाधृष्य 89. कुण्डभेदी 90. विरावी 91 प्रमथ 92. प्रमांथी 93. दीर्घरोमा 94. दीर्घवाहु 95. महाबाहु 96. व्यूढ़ोरस्म, 97. कनकध्वज 98. कुण्डासी 99, विरजा
कहा जाता है कि गान्धारी को मांस का टुकड़ा हुआ था, जिसे व्यास जी 100 घड़ों में रख दिये थे और समयान्तर पर इनसे पुत्र पैदा हुये। जबकि नेट से जानकारी मिली है कि धृतराष्ट्र को 7 पत्निया थी । गांधारी से अकेले 56 पुत्र हुये थे । शेष अन्य से हुये थे ।
पाण्डु की दो पत्नी थी पहली पत्नी कुन्ती थी जो वासुदेव की बहन थी तथा दूसरी पत्नी माद्री थी जो माद्र प्रदेश के राजा की पुत्री थी । कथनक है कि एक बार मृग रूपी ऋषि को मैथुन करने के समय पाण्डु जी मृग को बाण से मार दिये थे। मृग ऋषि रूप धारण करके श्राप दिया कि तू भी कामभोग में प्रवृत्त होने पर संतृप्त रहता हुआ मृत्यु को प्राप्त करेगा । इस श्राप के कारण पाण्डु के अनुरोध पर कुती ने धर्म से युधिष्ठर, मरूत से भीम एवं इन्द्र से अर्जुन को प्राप्त किया । माद्री ने भी अश्विनी कुमारों का आह्वान कर नकुल सहदेव दो जुड़वा पुत्र पैदा किया । एक दिन पाण्डु ने माद्री को सजा सवरा पाकर उसका जैसे ही आलिंगन किया, मृत्यु को प्राप्त कर गये । माद्री भी उन्हीं के साथ जल गयी । इस घटना के बाद कुन्ती अपने पाॅचों पुत्रों को लेकर हस्तिनापुर वापस आयी थी ।
कौरवों की नीति सदैव छल करने की थी । 12 साल बनवास एवं एक साल अदृष्य वास के बाद पाण्डवों के वापस आने के बाद भी जीवन यापन के लिये पाॅच गांव न मिलने पर 18 दिनों तक महाभारत का युद्ध चला । अन्त में पाण्डवों की विजय हुई। अभिमन्यु पुत्र परीक्षित को राज पाठ देकर सभी पाण्डवगण स्वर्ग सिधार गये ।
जाट, बोस, भर, वाल्मिकी आदि की बंशावली
युधिष्ठर एवं द्रौपदी से प्रतिविन्ध्य हुये थे, जिनको अश्वस्थामा, कृपाचार्य व कृतिवीर्य ने बाल्वायावस्था में मौत के घाट उतार दिया था । युधिष्ठर की दूसरी पत्नी देविका थी । देविका गोवासन शैव्य की कन्या थी । इनसे यौधेय पैदा हुये थे । अंधकार युगीन भारत में यौधेय राज्य का उल्लेख है। नकुल -द्रौपदी से शतानीक पैदा हुये थे । इन्हें भी अश्वस्थामा, कृपाचार्य व कृतिवीर्य ने बाल्वायावस्था में मौत के घाट उतार दिया था । नकुल की एक पत्नी करेणुमति थी । यह चेदीराज की राजकुमारी थी । इनसे निरमित्र पैदा हुये थे । सहदेव-द्रौपदी से श्रुतकर्मा पैदा हुये थे। अश्वस्थामा, कृपाचार्य व कृतिवीर्य ने बाल्वायावस्था में मौत के घाट उतार दिया था । सहदेव की एक पत्नी विजया मद्रदेश के राजा कान्तिमान की पुत्री थी । इनसे सुहोत्र पैदा हुये थे । सहदेव व नकुल के बंशज मद्र प्रदेश में बसे थे तथा युधिष्ठर पुत्र यौधेय इन्द्रप्रस्थ में थे । यह सभी बंश वर्तमान में जाट है। मध्यकालीन भारत में यह वंश मुस्लिम आक्रमणों से लोहा लिया था और देश बचाने में अपनी वीरता का साहसिक परिचय दिया था, किन्तु मुगलों के काल में धर्म परिवर्तन की चाल के कारण काफी जाट मुसलमान हो गये । आज जाट मुसलमान मुल्ला जाट उस क्षेत्र में है तथा मंत्री एवं लगान वसूलने वाले ठाकुर राजाओं के साथ धोखा किये, जिससे राज पाठ चला गया । धोखा देने वाले जट के रूप में हैं ।
भीम-द्रौपदी से सुतसोम पैदा हुये थे । अश्वस्थामा, कृपाचार्य व कृतिवीर्य ने बाल्वायावस्था में मौत के घाट उतार दिया था । भीम की पत्नी वलन्धरा काशीराज की पुत्र.ी थी जिनसे सर्वग पैदा हुये थे । यह प्राचीन कुन्तल प्रदेश दक्षिण में अपना राज शासन प्रारम्भ किये थे । सेन वंश के रूप में पश्चिम बंगाल तक आये जहाॅं बोस के रूप में वर्तमान में उपलब्ध है।
भीम की पत्नी राक्षसी हिडब्बा से घटोत्कक्ष उत्पन्न हुये थे । इसी घटोत्कक्ष बंश में आल्हा उदल आये थे । यह देानो भर (चंदेल) राजाओं के सेनापति के रूप में रहते थे । महोबा आदि क्षेत्रों में आल्हा उदल को कौन नही जानता । मध्य काल में अथवा अंग्रेजो के समय में इस बंश के जो लोग जेल गये वहाॅं इनसे मैला ढुलवाया गया और बाहर निकलने पर भी इनकी यह आदत बनी रही। हिन्दू वाल्मिकी जमादार इसी वंश में है।
अर्जुन-द्रौपदी से श्रुतिकीर्ति पैदा हुये थे । अश्वस्थामा, कृपाचार्य व कृतिवीर्य ने बाल्वायावस्था में मौत के घाट उतार दिया था । अर्जुन की पत्नी सुभद्रा कृष्ण की बहन से अभिमन्यु हुये । महाभारत युद्ध में मारे गये थे । अभिमन्यु का विवाह मत्स्य देश के राजा विराट की पुत्र उत्तरा से हुयी थी । उत्तरा के गर्भ से परीक्षित मरे हुये पैदा हुये थे । कृष्ण जी की कृपा से जीवित हुये थे । परीक्षित के पुत्र जन्मेजय थे । परीक्षित जी एक बार वन में शिकार करने गये थे । प्यास लगने पर एक ऋषि के आश्रम में प्सास बुझाने के लिये गये । ऋषि को पुकारने पर वह ध्यान में रत रहा अतः मरा हुआ साप ऋषि के गले में डाल दिये । कथानक है कि श्राप के कारण तक्षक सर्प के काटने में परीक्षित की मृत्यु हुई । तमाम पुस्तकों से यह पता चलता है कि तक्षक नागबंशी था, जिसकी पुत्री से प्यार प्रसंग के कारण युद्ध के दौरान परीक्षित जी घायल हुये थे । परीक्षित का पुत्र जन्मेजय सर्पमेध यज्ञ किये थे । ऋषियों के निवेदन पर तक्षक नाग को छोड़ दिये थे । उस दिन पंचमी का दिन था अतः इसी संयोग से नागपंचमी हर वर्ष मनाई जाती है ।
जन्मेजय को दो पुत्र थे शतानीक एवं शंकुकर्ण । शंकुकर्ण आगरा से जय पुर तक राजा बने थे । शतानीक हस्तिनापुर से राज कार्य देख रहे थे । शतानीक को अधिसीमकृष्ण हुये थे । अधिसीमकृष्ण को विचक्षु हुये थे । विक्षु को आठ पुत्र हुये थे। भूरि सबसे बड़े थे । भूरि को चित्ररथ को शुचिद्रव को वृष्णिमान को सुषेण को सुनीथ को नृचथु हुये थे । नृचक्षु ही हस्तिनापुर के गंगा में विलय होने पर कौशाम्बी आये थे । नृचक्षु को सुखीबल को परिष्णव को सुतपा को मेधावी को पुरंजय को उर्व को तग्मात्मा को बृहद्रथ को वसुदामा को शतानीक-2 को उदयन को वहीनर को दण्डपाणि को निरामित्र को क्षेमक हुये थंे । पुराण कहते हैं कि कलयुग में राजा क्षेमक को प्राप्त कर यह बंश समाप्त हो जायेगा । इसी बंश से आगे भरत बंश चला । इसी में भारशिव बंश चला । इसी में गुप्ताकाल चला । इसी में चंदेल, गहरवाल, भदौरिया, बुन्देला, वैश्यवारा में वैश्य भारद्वाज एवं झासी आदि क्षेत्रों में बुन्देला, चला । भदौरिया बंश भी इसी में चला । दक्षिण में विजयनगर के राजा कृष्णदेय राय भर/भदौरिया वंश के थे । मुस्लिम आक्रमण के समय नष्ट हुये । मंत्री व लगान वसूलने वाले बाहरी आक्रमणकारियों के लिये कार्य किये राजा नष्ट होकर आज भर के रूप में दुरदिन की जिन्दगी जी रहे हैं ।
अर्जुन की पत्नी नागबंशी उल्पी थी जिससे इडावन हुये थे । इडावन नागार्जुन प्रदेश का राजा बने थे । वर्तमान में यह प्रदेश आन्ध्रप्रदेश के नाम से है। यहाॅ किस जाति में है, शोध का विषय है ।
अर्जुन की तीसरी पत्नी मणिपुर के राजा की पुत्री चित्रागदा थी जिनसे बभू्रवाहन पैदा हुये थे । वभ्रूवाहन मणिपुर का राजा बने थे । यह वंश गोरखावंश में शामिल है।
बिन्द पाशी व खरवार क्या भर हैं -
उपरोक्त बंशावीली देखने से स्पष्ट है कि यह कुल धृतराष्ट्र कुल के हैं । बिन्द धृतराष्ट्र का सातवा पुत्र था, पाशी  52 पुत्र था । खरवार का विश्लेषण करने पर स्पष्ट है कि वार का खर अर्थात युद्ध का कारक । स्पष्ट है कि खरवार शब्द दुर्योधन को संबोधित करता है। महाभारत के बाद युधिष्ठर, भीम, नकुल , सहदेव एवं अर्जुनकुल के लोग ही सभी क्षेत्रों में वीरता का प्रदर्शन करके देश को विदेशी आक्रमण कारी से बचाते रहे । कर्म के आधार पर बिन्द, पाशी एवं खरवार एक नही हो सकते, किन्तु बंश के आधार समान है। पूर्व मंत्री आर0के0 चैधरी ने भर पाशी के रूप में भरों के पूर्वजों को पाशी बताकर भरो के इतिहास से एक प्रकार से भद्दा मजाक किया है। भरो में इतिहास के प्रति अज्ञानता के कारण वे इसका विरोध नही कर सके । राजनीति में भी सफल न होने के कारण एक्का दूक्का विधायक, मंत्री अज्ञानता के कारण विरोध की हिम्मत नही जुटा सके ।
क्या भर सूर्यबंश में उत्पन्न भरत कुल से संबंधित है-
आजकल भर राजभर समाज के कुछ लोग बड़े बेवाकी से कह रहे हैं कि हम लोग शकुन्तला पुत्र भरत के कुल के नही है बल्कि सूर्यवंश में आये भरत कुल के हैं । सूर्यवंश में आये भरत की बंशावली यह है कि सूर्य को मनु हुये थे। मनु को इच्छवाकु आदि हुये थे । इच्छवाकु  के पुत्र कुक्षि थे तथा दूसरा पुत्र निमि, मिथि व जनक थे । कुक्षि के विकुक्षि को वाण को पृथु को अनरण्य को धुन्धुमार  को भुवनाश्व को मान्धाता को ससन्धि को धु्रवसन्दि को भरत हुये थे । भरत के तीसरी पीढ़ी पर सगर , सगर के तीसरी पीढ़ी पर दिलीप, दिलीप को भगीरथ , भगीरथ के तीसरी पीढ़ी पर रघु हुये थे । भरो का गोत्र भारद्वाज है अतः भर राजभर सूर्यवंश के भरत के कुल के नही हैं । राजभर जो इस प्रकार के इतिहास में समय व्यतीत कर रहे हैं उन्हें बन्द कर देना चाहिए । राजभर शकुन्तला पुत्र भरत से ही आये हैं । सूर्यकुल के लोग शाक्य, कोईरी, कुशवाहा, मल्ल, सैथवार हो गये हैं इसी में रघवंशी सूर्यवंशाी ठाकुर है जो विदेशियों के सहयोगी रहे और पुराने राजाओं के थाती पर बैठकर कहते हैं कि हमी असली हैं ।
आर्य बाहरी थे अथवा इसी देश के थे
यह प्रश्न भी एक पहेली की तरह हमारे देश में चर्चित है। उत्तर प्रदेश वार्षिकी में स्पष्ट अंकित है कि यदु, तुर्वस, दुह्य, अनु एवं पुरू पंचजन आर्य थे । एक भरत वंश भी आर्य था । यह भरत वंश वही सूर्यवंश का है। इसी वंश के लोग वर्तमान में पिछड़ी व अनुसूचित जाति एवं सवर्ण में भी है । बाहर से आने वाले शक, कुशाण,हूण, किदार, पारसी, मुगल आदि है । यहीं लोग हिन्दु-मुसलमान का विभाजन कर हिन्दू मुसलमान में बैठ गये हैं और स्वयं को रंग के आधार पर आर्य बताने की कोशिश करके पूरे इतिहास को छिपाने का प्रयास कर रहे हैं । जवाहर लाल नेहरू ने कहा कि आर्य मध्यएशिया से आये यह भी गलत है।
भर जाति में कैसे कुछ मुसलमान उत्पन्न हुये-
भरत या भर वीरता के प्रतीक थे । इन्हें आसानी से कोई विदेशी नष्ट नही कर सकता । मुस्लिम आक्रमणकारियों ने चाल चली एवं कुछ शासकों को धर्म परिवर्तन कराकर अपनी सफलता में चार चांद लगाया।  मुस्लिमों के अंसारी भरत/भर जाति के ही परिवर्तित है। अंसारी का अर्थ है आरी का अंश । चन्द्रगुप्त विक्रमादित्य जो अर्जुनवंश के थे शकों पर विजय प्राप्त करने के कारण शकारी उपाधि प्राप्त किये थे । अर्थात शकों का आरी । भर या भरत आरी थे । इसी आरी का अंश अंसारी है। इसी प्रकार कुरैशी भी विदेशी आक्रमणकारियों की नीति से ही बने । 13 वी शदी में गोण्डा क्षेत्र में अचानक कुरैशी जाति का उदय होता है और भर राजाओं से युद्ध करना प्रारम्भ कर देते हैं । कुरू से ही कुरैशी का उदय है । जाटों में मुल्ला जाट व जाट मुसलमान भी इसी तरह से पैदा हुये। क्या भर राजभर नागवंशी हैं ?
यह प्रश्न भी यक्ष प्रश्न बना हुआ है । तमाम राजभर जाति के लोग भर को नागबंश समझ रहे हैं । यहाॅं तक मग्गू राजभर जी के पुस्तक में भरों के उत्पत्ति का स्रोत तो अंकित नही है लेकिन सूर्यवंश, चन्द्रवंश, नागवंश यहाॅं तक कि राजा भर्तृहरि को भी भर सिद्ध करने का प्रयास किये है। इससे समाज भ्रमित हो गया है । किसी भी जाति की वंशावली एक ही है उसमें कई वंशावली नही जोड़ा जा सकता । इससे लेखन की विश्वसनीयता समाप्त हो जाती है।
नागवंश की उत्पत्ति यह है कि कश्यप की पत्नी सुरसा व कद्रू से 1000 पुत्र उत्पन्न हुये थे, जिन्हें नाग कहा गया। यही नही पुराणों में कहा गया है कि इन्हें 1000 अंडे पैदा हुये थे । इसमें से नाग निकले थे । सोचने की बात है कि किसी महिला के गर्भ से नाग पैदा होगे । मानव मानव की ही उत्पत्ति करता है।  इन्ही दोनों महिलाओं में जो नामी थे उनका नाम शेषनाग, वासुकी, कर्कोटक, तक्षाक आदि पड़ा था । वासुकी नाग कुन्ती के परनाना थे । नाग कन्या उल्पी अर्जुन की पत्नी हुई थी । यह नाग लोग मगध पर 600 ईशा पूर्व शासन प्राप्त करने में सफल हुये थे । इनमें विम्बिसार, अजातशत्रु, शिशुनाग आदि राजा थे । अन्तिम राजा कालाशोक था जो कौयें के रंग का था । इसके 12 पुत्र थे । नन्दवंश के पदमानन्द ने रानी से संबंध स्थापित कर कालाशोक की हत्या करके उसके बच्चों को बैलगाड़ी पर बैठाकर जंगल में भेज दिया था तथा मगध का शासक बन गया था । यह घटना 344 ई0पूर्व की है। 325 ई0 पूर्व में चन्द्रगुप्त मौर्य ने पदमानन्द से सत्ता छीन लिया था । इसी नागवंश के कालाशोक के पुत्र असली नागवंशी है जो मुसहर जाति के रूप में हमारे देश व समाज में रहते हैं । कालाशोक का रंग कौवे की तरह था इनका भी रंग काला ही है ।

यह इतिहास का  एक इशारा है । राजभर या जाट आदि के बंश के लोग उपेक्षा से घबराने के बजाय अपने सही इतिहास को जानने की कोशिश करे । धर्म व सत्य का मार्ग न छोड़े जमीन जायदाद बेचकर जीवन यापन न करे ।बल्कि अध्ययन अध्यापन करके उच्च पद एवं उच्च हूनर युक्त होकर सफल जीवन जीने का प्रयास करे तथा अपने समाज से संबंधित अन्य लोगों को भी उठाने मे सहयोग करें ।
चिट्ठी लेखक इस देश के हर जाति की बंशावली के लेखन का कार्य कर रहा है। जल्द ही सभी जातियों की बंशावली व सही इतिहास से संबंधित पुस्तक ’’वतन की खोज’’ इस देश में प्रकाशित करके सत्य छिपाने वाले तथाकथित विद्वानों की सोच का खुलासा करेगा ।
धन्यवाद






9 टिप्‍पणियां:

  1. इस इतिहास को आप ने बहुत ही अच्छे से समझाया है आप ने जो इतिहास का मूल स्रोत है ,आगे भी येशी चीजों से आप हमें अवगत कराते रहे।

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  2. इसका मूल स्रोत क्या है कहा से लिया गया है

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  3. राजा बनार गहरवार राजपूत थे वे भर जाती के नहीं थे। सम्मत 1207 में उनकु पुत्री की शादी राजकुमारी इंदुमती की शादी अयोध्या के दनुवा रियासत के राजा विरमदेव के पुत्र नयन देव से होती है।जिन्हें कन्यादान में कटेहर परगना तथा जौनपुर का डोभी परगना कन्या दान में देते है जिन नयन देव के वंशज आज भी कटेहर तथा डोभी में वर्त्तमान है। राजा बनार यानी राजा बन्दार टी गहरवार 96 परगने के चकले दर थे वे चंद्र वंश के पुरुरबा के वंश से निकले हुआ है। जो सम्मत 1207 में थे आप ने उन्हें 1002में राजा बनार मारे जाते हो गलत लिख रहे हो।

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    1. राजा बनार भर जाति के सरदार थे। और गहरवार एक भर जाति की ही शाखा है। चंदेल गहरवार परिहार यह सब के सब भरों के ही कबीलों से निकले हैं।

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  4. राजा बनार गहरवार राजपूत थे वे भर जाती के नहीं थे। सम्मत 1207 में उनकु पुत्री की शादी राजकुमारी इंदुमती की शादी अयोध्या के दनुवा रियासत के राजा विरमदेव के पुत्र नयन देव से होती है।जिन्हें कन्यादान में कटेहर परगना तथा जौनपुर का डोभी परगना कन्या दान में देते है जिन नयन देव के वंशज आज भी कटेहर तथा डोभी में वर्त्तमान है। राजा बनार यानी राजा बन्दार टी गहरवार 96 परगने के चकले दर थे वे चंद्र वंश के पुरुरबा के वंश से निकले हुआ है। जो सम्मत 1207 में थे आप ने उन्हें 1002में राजा बनार मारे जाते हो गलत लिख रहे हो।

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  5. बहुत अच्छा काल्पनिक कहानी सुनाये हो 😂

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  6. राजभर की इतिहास में गढ़ा बदलापुर का नाम लगभग मिट गया है।

    ये भर राजा गोमती की धारा को मोड़ दिया था।

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