सोमवार, 12 सितंबर 2016

राजभर शोध लेख संग्रह (भाग-एक)

       राजभर शोध लेख संग्रह (भाग-एक)
(लेखक-ः आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’,सिहोरा, जबलपुर म.प्र. 483225)
राजभर इतिहास और राजभर समाज
राजभर जाति के इतिहास से अन्य जाति के लोग परिचित हैं। वे जब तब इस जाति की गौरव गाथा का उल्लेख अपनी लेखनी के माध्यम से करते रहते हैं। विजातीय विद्वानों को बहुत आश्चर्य होता है कि भारत का निर्माण करने वाली इस अति प्राचीन जाति, जिसने की भारत के कई क्षत्रिय वंशों को जन्म दिया है को अपने जातीय गौरव का आभास क्यों नहीं होता। इस सम्बंध में वह यह भी लिख देते हैं कि इस समाज में स्वाभिमान एवं एकता की नितान्त कमी है।
जब तक राजभर समाज पर सामाजिक मुखियाओं का नेतृत्व रहा तब तक राजभर समाज की गाड़ी ढर्रे पर चलती रही किन्तु ज्योंहि राजभर राजनेताओं का पदार्पण हुआ इस समाज और उसके संगठनों की गाड़ी पटरी से उतर गई-आपसी फूट अपनी जड़ जमाती गई। सन् 1982 में राजभर समाज के सभी मुखिया सिंहेश्वर मधेपुरा में एकत्र होकर जहां राजभर विकास के सोपान तय करने में लगे थे वहीं एक राजभर राज-नेता ने सबको धता बताते हुए उसी तिथि में लखनऊ में एक आयोजन कर एक नई संस्था बनाकर फूट का बीज बो दिया और राजभर समाज को अनुसूचित जाति में शामिल कराने का झुनझुना पकड़ा कर मुगालते में डाल दिया। जबकि सिंहेश्वर अधिवेशन में मेरे इस प्रस्ताव को सर्व-सम्मति से स्वीकार किया गया कि राजभर जाति को अनुसूचित जनजाति में सम्मिलित कराने की लड़ाई लड़ी जाए। झुनझुना अभी भी बज रहा है। समाज नाच रहा है-नेता नचा रहे हैं। आगे चलकर राजभर समाज को अनुसूचित जनजाति में डालने की जो पिटीशन्स म.प्र. उच्च न्यायालय एवं उच्चतम न्यायालय दिल्ली में दायर की गईं वे धराशायी हो गईं।
        जहां अन्य जातियों  के राजनेताओं ने राजभर समाज के इतिहास को चुरा कर अपने समाज के इतिहास की वृद्धि के लिए पुस्तकें लिखीं वहीं इन राजभर राजनेताओं ने अपनी जाति के इतिहास पर चार पन्ने भी लिखना तो दूर सभा-सम्मेलनों में इस दिशा में पहल किए जाने के लिए आह्वान भी नहीं किया। राजभर जाति के गौरवशाली इतिहास का अपहरण होता गया और इन राजभर राजनेताओं ने इस अपहरण का कभी विरोध नहीं किया अपितु वोट की खातिर राजभर जाति का इतिहास ,राजे-महाराजे, किले-खाई सबका अपहरण करवा दिया-ऐसा लगने लगा कि ये जैसे राजभर जाति के नहीं अपितु किसी अन्य जाति विशेष के इतिहास को समृद्ध करने को पैदा हुए हों। दबे मुंह यह भी कहा गया कि कहीं कोई जाति विशेष का व्यक्ति राजभर इतिहास को मिटाने के उद्देश्य से अपने को राजभर लिखकर यह सब एक सोची समझी साजिश के तहत तो नहीं कर रहा ? राजभर समाज को गुमराह करने में इन राजनेताओं ने कोई कोर कसर बाकी नहीं रखीं। फूट डालो राज करो का राजनैतिक फार्मूला को इनने अपना सिद्धांत बनाया । इन राजभर राजनेताओं ने राजभर समाज की सेवा के वजाय अपने राजनैतिक दल की सेवा को ही तरजीह दी। अपनी उन्नति की किन्तु राजभर समाज के स्वाभिमान को मटियामेट कर दिया-राजभर समाज भी उसी गर्त में समाने लगा।
        इतिहास लेखन और उसका संरक्षण अब दूर की कौड़ी हो गया है। आज हम ऐसी स्थिति में हैं कि अन्य जाति के विद्वानों द्वारा राजभर जाति पर लिखे गए लेखों का भी संग्रह नहीं कर पा रहे। यह पुस्तक उसी दिशा में एक प्रयास है। पुस्तक दो भागों में विभाजित है। पहले भाग में मेरे द्वारा लिखे गए शोध लेख संग्रहीत हैं जो कि पहले भी पत्र-पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुके हैं और दूसरे भाग में अन्य जातियों के विद्वानों द्वारा लिखे गए शोध लेख हैं जो कि विभिन्न पत्र-पत्रिकाओं में या पुस्तकों में प्रकाशित हो चुके हैं जिन्हें साभार इस पुस्तक में सम्मिलित किया गया है।
         यदि राजभर समाज ने अपने इतिहास संरक्षण की दिशा में कोई ठोस कदम नहीं उठाया तो
राजभर इतिहास को नष्ट होने से कोई नहीं बचा सकता।
 सिहोरा                                   आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
विजयादशमी सन् 2010 ईस्वी                                          
       


राजभर जाति-ऐतिहासिक- शोध परक- लेख
                    लेख सूची-
      1-ःभारशिवों-राजभरों का परम संक्षिप्त इतिहास
      2-विश्व इतिहास की पहली घटना- युद्ध क्षेत्र में गौ-सेना का प्रयोग    
      3-रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद ढांचा का सच-एक खुलासा
      4-भारत देश का नामकरण और हमारे पूर्वाग्रह              
      5-मध्यप्रदेश के मूल निवासी राजभरेंा की गोत्र प्रथा
      6-विश्व का दशहरी आम का पहला पेड़    
      7-सेना नायिका  वीरांगना महारानी कुन्तादेवी राजभर
      8-बाराबंकी जिले का किन्तूरनगर, कुन्तीश्वर-मन्दिर एवं कल्पवृक्ष
      9-बहराइच के सोमनाथ मन्दिर की रक्षा श्रावस्ती सम्राट
         राष्ट्रवीर सुहेलदेव राजभर ने की थी।
     10-क्या जाबालि ऋषि भारशिव थे ?
     11-पुराणेंा में छुपे रहस्य
     12-भर्राशाही एक चिन्तन
     13-देवताओं ने पुराण रचने वालेंा को धूर्त क्यों कहा है ?
     14-वेदों में भर शब्द- विहंगावलोकन
     15-राक्षस यज्ञ विध्वंश क्यों करते थे ?
     16-भार-भूतेश
     17-अजेय महा-योद्धा महाराज गणेश्वर वीरभद्र
     18-राष्ट्रवीर महाराजा सुहेलदेव के महत्व को कम करने की साजिश

(1)भार-शिवों (राजभरों) का परम संक्षिप्त इतिहास
    लेखक-आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’,आनन्द भवन, सिहोेरा, जिला-जबलपुर ,मध्यप्रदेश-483225
       (;यह लेख राजभर-मार्तण्ड मासिक पत्रिका के माच्र्र, अप्रेल 2006 अंक में छप चुका ह्रै।)
             वाकाटक नरेशों ने अपने ताम्रपत्रों, शिलालेखों में भारशिवों का जितना सुन्दर एवं परम संक्षिप्त इतिहास लिखा है -इतिहास गवाह है -इतना परम संक्षिप्त इतिहास आज तक किसी भी जाति का नहीं लिखा गया। वाकाटक नरेेशों ने अपने दान पत्र आदि में जिस प्रकार भारशिवों की जी खोल कर प्रशंसा की है, उससे भारशिवों के उत्तम शासन, सामाजिक, आर्थिक, राजनैतिक, धार्मिक, शैक्षिक आदि सभी बातों का खुलासा हो जाता है। आइये आज मैं आपको अठारह सौ वर्ष पहले की दुर्लभ लिपि के दर्शन कराता हूं जिसे संभवतः आप पहली बार देख रहे हैं-ः
             वाकाटकों का एक ताम्रपत्र जिला दुर्ग मध्यप्रदेश में भूतपूर्व पानाबारस जमीदारी के मुख्य ग्राम मोहल्ला में सन्् 1934 ईस्वी प्राप्त हुआ था। प्रसिद्ध इतिहासकार श्री वासुदेव विष्णु मिराशी ने उस ताम्रपत्र की छाप अपने ग्रन्थ में दी है। ताम्रपत्र पांच पंक्तियों में है। यद्यपि ताम्रपत्र अपूर्ण है किन्तु भारशिवों की प्रशंसा की पंक्तियां इस ताम्रपत्र में सुरक्षित हैं। ताम्रपत्र संस्कृत भाषा देवनागरी लिपि में है। ताम्रपत्र की मूल छाप एव वाचन इस प्रकार है-ः
 

   

 वचन प्रथमपंक्ति-पद्मपुरातअग्निष्टोमाप्तोर्यामोक्त्थ्यषोडष्यतिरात्रवाजपेयवृहस्पति सवसाद्यस्क्रचतुरस्व-
वाचन द्वितीयपंक्ति-मेधयाजिनविष्णुवृद्धसगोत्र सम्राजः वाकाटकानाम्ममहाराजश्रीप्रवरसेनस्य सूनोःसूनोः-
वाचन तृतीयपंक्ति-अत्यंत स्वामि महाभैरव भक्तस्य अंसभार सन्निवेशितशिवलिन्गोद्वहन शिव सुपरि-
वाचन चतुर्थपंक्ति-तुष्ट समुत्पादित राजवंशानां पराक्क्रमाधिगतभागीरत्थ्यमल जल मूद्र्धाभिषिक्तानाम्-      
वाचन पंचम पंक्ति-दशाश्वमेधावभृत स्नातानाम्भारशिवानाम्महाराज श्री भवनाग दौहित्रस्य-
                    यद्यपि दौहित्रस्य के आगे और भी लिखा जाना था अथवा लिखा गया होगा किन्तु ताम्रपत्र में इतना ही उपलब्ध है। किन्तु वर्धा जिले के हिंगणघाट के उत्तरार्द्ध में लगभग सात मील पर स्थित जांबगांव के चैधरी माधवराव अठोले के घर में सन् 1940 ईस्वी में, वर्धा जिले की आर्वी तहसील के बेलोरा नामक ग्राम में सन् 1938 ईस्वी में श्री जाने के घर में, अमरावती जिले की अचलपुर तहसील में अचलपुर के उत्तर में चार मील की दूरी पर स्थित चम्मक ग्राम में भूमि जोतते समय सन् 1868 ईस्वी में, सिवनी जिले के पिण्डरई नामक ग्राम में वहां के मालगुजार हजारी गोंड़ के यहां सन् 1836 ईस्वी में, इन्दौर के स्वर्गीय पं. वामन शास्त्री इसलामपुर के संग्रहालय में, छिंदवाड़ा जिले के दुदिया ग्राम में किसी गोंड़ के संग्रह में, बाला्रघाट जिले में कटंगी ग्राम के आग्नेय में आठ मील पर स्थित तिरोड़ी ग्राम में मेगनीज की खदानों के निकट, चांदा जिले की वरोड़ा तहसील कें बड़गांव नामक ग्राम में एक गृहस्थ भगवान शिवा गजार के पितामह के संग्रह में, बैतूल जिले के पट्टन ग्राम में एक किसान को खेेत जोतते समय सन् 1953 ईस्वी में, छिंदवाड़ा जिले में स्थित पाण्ढुर्णा गांव के उत्तर-पश्चिम में लगभग छः मील दूर टीगांव नामक ग्राम में कडू पटेल का पुराना घर गिरने पर सन् 1942 ईस्वी में,,नागपुर से 28 मील पर रामटेक के समीप मेगनीज खोदते समय मनसर ग्राम में, बालाघाट जिले में एक स्थान पर एक वृक्ष से बंधा हुआ मई मास के पूर्व सन् 1893 में जो ताम्रपत्र प्राप्त हुए हैं वे ताम्र पत्र प्रायः प्रायः पूर्ण हैं। ये ताम्रपत्र विभिन्न संग्रहालयों में हैं किन्तु पुस्तक में उनकी छाप नहीं दी गई। दुर्ग जिले से प्राप्त ताम्रपत्र में भारशिवों के परम संक्षिप्त इतिहास का मूल अंश एवं वाचन इस प्रकार है-ः

वाचन-अंसभारसन्निवेशित शिवलिन्गोद्वहन शिवसुपरि
तुष्टसमुत्पादितराजवंशानांपराक्क्रमाधिगतभगीरत्थ्मलजलमूद्र्धाभिषिक्तानाम्     ्                                                            दशश्वमेधावभृत स्नातानाम्भारशिवानाम्
             इसका हिन्दी अर्थ इस प्रकार है-ःउन राजवंशी भारशिवों का जिनके राजवंश का आरम्भ इस प्रकार हुआ था कि उन्होंने शिवलिंग को अपने कंधे पर वहन करके भलीभांति परितुष्ट किया था, वे भारशिव जिनका राज्याभिषेक उस भागीरथी के पवित्र जल से हुआ था, जिसे उन्होंने अपनेे पराक्रम से प्राप्त किया था। वे भारशिव जिन्होंने दश अश्वमेध यज्ञ करकें अवभृत स्नान किया था।
            वे लोग जो राजभर अथवा राजभार लिख रहे हैं उसका मूलाधार संभवतः वाकाटक नरेशों के ताम्रपत्र अथवा अभिलेख ही हैं जिनमें कि राजवंशानांभारशिवानाम् लिखा है अर्थात राजवंशों में के भार शिव अथवा राजभार-राजभर। भार लिखने के पीछे भी यही मूलाधार है।

(2) विश्व इतिहास की पहली धटना-युद्ध क्षेत्र में गौ  सेना का प्रयोग
   लेखक- आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’, आनन्द भवन, सिहोरा, जिला- जबलपुर मध्यप्रदेश-483225
     ;यह लेख जनज्ञान मासिक 2286,आर्य समाज मार्ग, करोल बाग, नई दिल्ली-110005 के अंक अगस्त 2009 एवं गोधन मासिक 3, सदर थाना रोड, दिल्ली-110006 के अंक जुलाई 2009 एवं अन्य कई पत्रिकाओं में छप चुका है।
            भारतीय संस्कृति का मूलाधार गौवंश सेवा है। हमारे धर्म ग्र्रन्थों में गाय को माता एवं बृषभ को धर्म कहा गया है। गाय में सभी देवता निवास करते हैं। ‘‘एकै साधे सब सधे सब साधे सब जाय’’ के अनुसार मात्र गाय की सेवा करने से सभी प्रकार के पुण्य फल प्राप्त होते हैं। शिव के दरबार में नन्दी (;बृषभ) को महत्वपूर्ण स्थान प्राप्त है। शिव के साथ नन्दी की भी पूजा की जाती है। कृषक जगत का अर्थ सम्पन्न होना गो-वंश पर निर्भर है। गो-वंश की सेवा के बिना भारतीयता की कल्पना संभव नहीं है।े        
            लेख का शीर्षक पढ़ कर आपको आश्चर्य होगा। आप कल्पना भी नहीं कर सकते कि युद्ध में विजय पाने के लिए कभी किसी ने युद्ध भूमि में गौवों का उपयोग गाय-सेना के रूप में करके भारतीय धर्म, सभ्यता-संस्कृति कोे आहत करने का अक्षम्य अपराध किया था। किन्तु यह सत्य है। विष्व इतिहास की यह इकलौती घटना है जब किसी ने युद्ध जीतने के लिए गौ सेना तैयार कर गौ-माता का दुरुपयोग किया। इस गौ-सेना कोे जानने के लिए आईये हम ग्यारहवीं सदी में चलते हैं।
            अवध प्रदेश में भारशिव क्षत्रिय वंशोत्पन्न राजा बिहारीमल भर राज्य करते थे। श्रावस्ती ;सावत्थी द्ध उनकी राजधानी थी। राजा बिहारीमल भर शिव एवं गौ-माता के अनन्य उपासक थे। बसंत पंचमी सन् 1009 ईस्वी ;18 फरवरी सन् 1009 ई.द्ध को उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई। राज पुराेिहत ने उसका नाम सुहेलदेव अथवा सुहृध्वज रखा। राज ज्योतिषी ने कहा कि यह जातक धर्म प्रेमी, धर्म रक्षक महाप्रतापी सम्राट होगा। राजा बिहारीमल के तीन पुत्र और एक पुत्री और हुए। सुहेलदेव बहुत तेजस्वी थे। अल्पवय में उन्होंने सभी प्रकार की विद्याएं आत्मसात् कर लीं। उनकी योग्यता एवं लोकप्रियता देख कर भर क्षत्रिय राजा बिहारीमल मात्र अठारह वर्ष की आयु में सन् 1027 ईस्वी में सुहेलदेव कोे राजपाठ सौंप दिया और रानी जयलक्ष्मी सहित अपने कोे ईश्वर आराधना में लगा दिया।
            ग्यारहवीं सदी का प्रारम्भ उथल-पुथल से भरा था। विदेशी आक्रमणकारी भारत की धार्मिक, सांस्कृतिक एवं आर्थिक सम्पदा को तहस-नहस करने में लगे थे। विदेशी दुर्दान्त लुटेरे जब भी उनका मन करता भारत का रुख कर लेते थे। भारत में कुछ ऐसे राजा महाराजा भी थे जो अपने विरोधियों कोे नेस्तनाबूंद करने के लिए विदेशी विधर्मी लुटेरों का सहारा लेते थे। भारतीय नरेशों की आपसी रंजिश ने भारत माता कोे असहाय कर रखा था।
            विदेशी आक्रमणकारी महमूद गजनवी ने भी यहां की फूट का फायदा उठाया। उसने जी भर कर भारत की अपार सम्पदा लूटी। यहां की धार्मिक, सांस्कृतिक, आर्थिक निधि कोे तहस-नहस करने में कोई कोर कसर नहीं रखी। गजनी लौटते समय रास्ते में ही उसकी मृत्यु हो गई। मृत्यु के पूर्व उसने अपनी बहिन के पुत्र ;भान्जेद्ध सैयद सालार मसूद गाजी को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया। सैयद सालार मसूद गाजी ने एक बड़ी सेना लेकर भारत पर आक्रमण कर दिया। महमूद गजनवी का उद्देश्य भारत को लूटना था किन्तु सैयद सालार मसूद ने लूट, दहशतगर्दी के साथ जेहाद कोे भी अपना ध्येय बनाया। सिन्ध, मुल्तान, कन्नौज, दिल्ली, मेरठ आदि कोे रौंदता हुआ आगे बढ़ा। बनारस के भर राजा बन्दारस कोे नेस्तनाबूंद किया। अयेाध्या राम जन्म भूमि मन्दिर को जमींदोज किया। आतंक के पर्याय सैयद सालार मसूद ने भूरायचा दुर्ग पर आक्रमण कर सुहेलदेव के लधु भ्राता भूरायदेव भर कोे परास्त किया तथा भ्राता से मिलने आई बहिन अम्बे का अपहरण कर लिया। महाराजा सुहेलदेव को जब यह सब ज्ञात हुआ तो वह क्रोधित हो गए। बन्दारस राजा की पराजय, राम जन्म भूमि का ढहाया जाना, दूसरे सोमनाथ मन्दिर का मिट्टी में मिलाया जाना, लघु भ्राता भूरायदेव की पराजय, भूरायचा दुर्ग पर सैयद सालार मसूद का अधिकार और प्रिय बहिन अम्बे का अपहरण ये कुछ ऐसी दुर्घटनाएं थीं जिन्होंने महाराजा सुहेलदेव के सब्र का बांध तोड़ दिया।
            भारतीय नरेशों की आपसी फूट से वे भली भांति परिचित थे। वह यह भी जानते थे कि अकेले युद्ध करने पर अनहोनी हो सकती है। अपने आधीन इकत्तीस छोटे राजाओं को अपनी-अपनी सेना तैयार कर एक जुट होकर लड़ने का आदेश महाराजा सुहेलदेव ने दिया। सबने मिलकर युद्ध नीति तय की । रायसाहब, रायरायब, अर्जुन, भीखन, नगरू, हरगुन, शंकर, बीरबल, जयपाल, श्रीपाल, हरपाल, रामकरन, हरखू, नरहर, भल्लर, जूधारी, देवनारायन, दल्लू, नरसिंह, कल्याण, जगमणि, कर्णदेव, बलभद्रदेव, मल्हराय, इचैल, भूरायदेव आदि राजाओं के साथ अशोकपुर, जरौली, भरौली, रजदेरवा एवं दुगांव के शासकों ने युद्ध नीति तय कर महाराजा सुहेलदेव कोे समेकित सेना का सेनापतित्व सौंप दिया।    
              हर युग में देशद्रोही रहे हैं। उस समय भी पण्डित कुबेर एवं नन्द महर जैसे कुछ देशद्रोही सैयद सालार मसूद गाजी से जा मिले । महाराजा सुहेलदेव राय भर को कैसे पराजित किया जा सकता है इसका उपाय इन देशद्रोहियों ने सैयद सालार मसूद गाजी को बताया। महाराजा सुहेलदेव की मजबूरियों से मसूद कोे परिचित करा दिया। पण्डित कुबेर एवं नन्द महर ने गाजी को बताया कि महाराजा सुहेलदेव कट्टर राष्ट्रवादी हैं। वह विभिन्न भारतीय धर्मों एवं संस्कृति का संरक्षक है। वह शिव का अनन्य भक्त एवं गो-वंश प्रेमी हैं। यदि आप मुस्लिम सेना के आगे गौ-सेना करके युद्ध करेंगे तो वह और उसकी सेना मुस्लिम सेना पर हथियार नहंीं चला सकेंगे। उन्हें यह भय रहेगा कि अस्त्र-शस्त्र चलाने पर कहीं गौ-हत्या न हो जाए और उसे परास्त करने के लिए आप और आपकी सेना इस स्थिति का भरपूर लाभ उठा पायेंगे। पण्डित कुबेर एवं नन्द महर की इस योजना को कार्यान्वित करने का आदेश सैयद सालार मसूद ने तुरन्त दे दिया।
             गौ सेना तैयार की जाने लगी। नन्द महर ने इस कार्य के लिए अपनी सम्पूर्ण गौवें सैयद सालार मसूद गाजी के सुपुर्द कर दीं एवं और भी व्यवस्था कर एक बृहद् गाय-सेना तैयार कर दी। पण्डित कुबेर एवं नन्द महर की योजनानुसार सैयद सालार मसूद ने अपनी सेना के चारों ओर गौ-सेना का घेरा डाल दिया। महाराजा सुहेलदेव जब युद्ध भूमि में आए, तब पूरा दृश्य देख कर धर्म संकट में पड़ गए। उन्होंने देखा कि सैयद सालार मसूद की सेना चारों ओर से गौ-सेना से घिरी हुई है और गाजी मियां इन्ही के बीच में सुरक्षित है। दुर्दान्त गाजी मियां का वध आवश्यक था अतएव उन्होंने तुरन्त अपनी रण नीति बदल दी। राष्ट्रवीर महाराजा सुहेलदेव ने अपने सहयोगी राजाओं को आदेश दिया कि हम सबकी प्राथमिकता गौ-माताओं की सुरक्षा होगी अतएव, किसी भी स्थिति में तीरों का प्रयोग न किया जाए ताकि गौवों कोे किसी प्रकार का नुकसान न पहुंचे। तीरों के स्थान पर सरकण्डों का प्रयोग गौ-दल को बिदकाने ;तितर-बितर करनेद्ध को किया जाए। साथ ही उन्होंने यह भी आदेश दिया कि सुअर झुण्डों का उपयोग गायों को बिदकाने के लिए किया जाए अतएव अधिक से अधिक सूअर एकत्र किए जाएं। यदि ऐसा न हो पाए तो हमारे सैनिक काले कपड़े ओढ़ कर गाय-सेना में घुस पड़ें और उन्हें मुस्लिम सेना के आगे से हटाएं।
              रणनीति के अनुसार गाय-सेना को मुस्लिम सेना के आगे से हटा दिया गया। इस प्रकार गौ-सेवक, गौ-भक्त महाराजा सुहेलदेव ने गौ-रक्षा का अद्वितीय उदाहरण प्रस्तुत किया। यह सब देख कर सैयद सालार मसूद गाजी घबरा गया। घोर युद्ध हुआ। दोनांे पक्ष के लाखों सैनिक मारे गए किन्तु महाराजा सुहेलदेव का पलड़ा भारी पड़ा। सैयद सालार की पूरी सेना मारी गई। सैयद सालार के तीन सेवक ही जीवित बच पाए। अन्त में अपने प्राण बचाने के लिए सैयद सालार मसूद गाजी युद्ध क्ष्ेात्र से भागा और एक झुरमुट में छुप गया किन्तु वह महाराजा सुहेलदेव भर की कोप दृष्टि से नहीं बच पाया। भारत माता के सपूत महाराजा सुहेलदेव ने एक ऐसा तीर मारा जो सीधे सैयद सालार मसूद की गर्दन में जा घुसा। उसकी गर्दन कट कर एक तरफ लटक गई। इस प्रकार 10 जून सन् 1034 ईस्वी को आततायी मसूद गाजी का अन्त हुआ। सैयद सालार मसौद गाजी के एक खादिम सिकन्दर दीवान ने अपने मालिक मसौद गाजी का शव एक महुए के पेड़ के नीचे लिटा दिया और उसका सिर काबा की ओर मोड़ दिया। सैयद सालार मसौद गाजी की मृत्यु के विषय में आयत् हयवत् मसौदी में लिखा है-ः‘‘निज्द दरियाब कुटिलाजेर दरख्तांगुल चिकां नावकहम चुंमिजान शहीद शुदंद।’’      
            10 जून की तिथि हिन्दुत्व विजय दिवस है। महाराजा सुहेलदेव ने गौवों की रक्षा की। राम जन्म भूमि ढहाए जाने एवं दूसरे सोमनाथ मन्दिर कोे नेस्तनाबूंद करने का प्रतिशोध लिया। मसूद गाजी का बध कर अम्बे देवी को उसके चंगुल से छुड़ाया। अतएव 10 जून की तिथि नारी मुक्ति दिवस का भी प्रतीक है। गौ-रक्षक, देश, धर्म, सभ्यता एवं संस्कृति रक्षक महाराजा सुहेलदेव कोे सुहेलदेव शौर्य सागर में लिखीं निम्नांकित पंक्तियों के साथ हम नमन करते हैं-ः
  देश औ धर्म, समाज औ सभ्यता, संस्कृति गौरव आंच न आई।
  स्वाभिमानी महा,रिपुसूदन वीर, लड़ाई के बीच भी गाय बचाई।।
  नारी के मान में, सीना को तान,जीत के जंग रखी हिन्दुआई।
  ‘‘राजगुरू’’ अस राष्ट्र को  नायक वीर सुहेल की  कीजे बड़ाई।।
(3) राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढांचा का सच-एक खुलासा
    लेखक-आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’, आनन्द भवन, सिहोरा, जिला-जबलपुर, मध्यप्रदेश-483225
         ;यह लेख तुमुल तूफानी साप्ताहिक, बड़ा बाजार, चन्दौसी, जिला मुरादाबाद के 24 दिसम्बर 2009 बृहस्पतिवार के अंक एवं अन्य कई पत्रिकाओं में प्रकाशित हो चुका है।द्ध
              6 दिसम्बर का दिन ;प्रति वर्षद्ध झगड़े-फसाद की आशंकाओं के साथ व्यतीत होता है। राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढांचा समस्या का समाधान होने के बाद ही लाग 6 दिसम्बर को सामान्य तिथि के रूप में अपना सकेंगे। सच तो यह है कि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढांचे के विषय में अधिकांश लोगों को सही जानकारी नहीं है। जो लोग राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढांचे के नाम पर लड़ रहे हैं उनके पूर्वजों का उससे कोई सम्बंध नहीं रहा है। यह लड़ाई ऐतिहासिक नहीं राजनैतिक है। धर्म की आड़ में राजनैतिक वर्चस्व की लड़ाई लड़ी जा रही है।    
              अगर अयेाध्या के प्राचीन इतिहास का अध्ययन करें तो पता चलता है कि अयोध्या और उसके आसपास के क्षेत्रों में भर-राजभर जाति का अधिक समय तक अधिकार रहा है। आज भी उत्तरप्रदेश के पूर्वान्चल में डग-डग पर भर-राजभर जाति के लोग विद्यमान हैं। रायबहादुर श्री अवधवासी लाला सीताराम बी,ए, ने अपने ग्रन्थ अयेाध्या का इतिहास ; पांचवां अध्याय-अयोध्या के निवासी द्ध में इसका स्पष्ट उल्लेख किया है। राम मन्दिर का निर्माण भी भर शासकों द्वारा किया गया था। ये बातें निम्नलिखित ऐतिहासिक तथ्यों से स्वयं सत्य सिद्ध हो जाती हैं-
             1-मि.सी.ए. इलियट क्रोनिकल आफ उन्नाव पृष्ठ 27 पर लिखते हैं कि-जब आर्य गंगा घाटी पर आक्रमण किए और सूर्यवंशी अयोध्या में बस गए तब आदिम जातियां पहाड़ी पर शरणाथी बन गईं। पुनः हम अयोध्या को विध्वंशावस्था में पाते हैं। सूर्यवंशी पूरी तरह से समाप्त हो गए। और, देश के विस्तृत भू-भाग पर आदिम जातियों जिनमें सुदूर पूर्व में चेरुओं, मध्य में भरों तथा पश्चिम में पासियों का साम्राज्य स्थापित हो गया। वे मूल निवासी थे जिनको आर्य पहाड़ियों पर खदेड़ वुके थे और वे झुण्ड में पहाड़ियों पर से हमारे युग की शुरूआत के बाद उतरे। स्वयं अयोध्या की आर्य सभ्यता भी उनसे व्याकुल हो उठी और सूर्यवंशी कनकसेन के नेतृत्व में अपना देश छोड़ कर गुजरात तक पहुंचे।  
             2-मि.श्ेारिंग हिन्दू टृाईब्स एण्ड कास्ट वाल्यूम-प्रथम पृष्ठ 357 पर लिखते हैं कि-आजमगढ़ के भरों का राज्य भी रामचन्द्र के समय अयोध्या से मिला हुआ था।
             3-गोरखपुर के गजेटियर के पृष्ठ 173, 175 पर लिखा हुआ है कि- जब अयोध्या का नाश हो गया तब वहां के राजाओं ने रुद्रपुर में अपनी राजधानी स्थापित की और श्रीरामचन्द्र के बाद जो लोग गद्दी पर बैठे, वे लोग भर तथा उनके समकालीन अन्य जातियों द्वारा परास्त हुए।
             4-मि. एम.ए.शेरिंग लिखते हैं कि अवध प्रदेश का एक बड़ा भाग और बाहर का भाग तथा विवादित सभी क्षेत्र भरों तथा अन्य अनार्य आतियों के अधिकार में था।
             5-मि, गुस्तव ओपर्ट लिखते हैं कि- प्रारम्भिक आर्यों के नायक राम तथा उनके पुत्रों से उदाहरण स्वरूप पौराणिक संयुक्तता भरों के साथ मिलती है पर भर लोग परिदृश्य से ओझल हो जाते हैं और अब तक जैसे कि इतिहास का सम्बंध है, ठीक मुसलमानों के प्रारम्भिक आक्रमण के समय पुनः प्रकट हो जाते हैं। उस समय वे एक बड़े भू-भाग को अपने अधिकार में समाए रहते हैं और वे वास्तव में भूमि के स्वामी बने रहते हैं।
             6- मि, टुथोइट के अनुसार -बनारस और अवध में थोड़े ही समय पहले वे जिलों के भू-स्वामी थे और आजमगढ़ में अभी भी धारणा है कि राजभर लोग, राम के समय देश के बड़े भू-भाग के शासक थे। जो संरचना वे अपने पीछे छोड़ गए हैं उससे सिद्ध होता है कि शान्ति और युद्ध केा वे समान रूप से अंगीकार करते थे। बनारस जिले में उनके भग्नावशेषों से सम्बंध बहुत अधिक मात्रा में विद्यमान हैं।    
             7-बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय के प्रोफेसर ठाकुर प्रसाद बर्मा ने बताया है कि 6 दिसम्बर 1992 ईस्वी को जब विवादित ढांचा कार सेवकों द्वारा गिराया गया तो पश्चिमी दीवाल खोखली थी। इसमें से एक अभिलेख प्राप्त हुआ है। अभिलेख में 20 पंक्तियों की एक कविता दर्ज है जिसकी भाषा नागर लिपि संस्कृत है। अभिलेख की कविता की रचना अल्हण के पुत्र तथा नये चन्द्र के छोटे भाई आयुषचन्द्र ने की है। अल्हण के पिता का नाम सल्लक्षणदेव था जिसका प्रचलित नाम सुहेलदेव था। अभिलेख से पता चलता है कि सन् 1033 ईस्वी में सैयद सालार मसूद अयोध्या पर आक्रमण करके राम मन्दिर को ढहा कर बहराइच की तरफ भाग गया जिसका पीछा कर के श्रावस्ती सम्राट सुहेलदेव ने बहराइच के एक युद्ध में 10 जून रविवार सन् 1033 ईस्वी मंे मसूद को मार गिराया। अभिलेख के अनुसार ध्वस्त होने के 80 वर्ष के भीतर राम मन्दिर का दूसरी बार निर्माण करा दिया गया। प्राप्त उक्त अभिलेख संग्रहालय में मौजूद है। राम मन्दिर को दोबारा 1528 ईस्वी में बादशाह बाबर के समय ढहा कर मस्जिद का रूप दे दिया गया जिसे कार सेवकों ने तीसरी बार 6 दिसम्बर सन् 1992 ईस्वी में गिरा दिया।े  
             अल्हण के पिता सुहेलदेव भर जाति के थे। गजेटियर आफ दी प्राविन्सस आफ अवध ;1877द्ध, आर्कियोलाजिकल सर्वे आफ इण्डिया ;1880द्ध, दी सेन्सस आफ इण्डिया ;1891द्ध, गदर के फूल-अमृतलाल नागर, इतिहास मंथन गीता-श्री बलदेवसिंह गोरखा, इतिहास लौटा- श्री जगदीशनारायण सिंह ऋषिवंशी, गोहना-गुडाकेश, बहराइच जनपद का खोजपूर्ण इतिहास-प्रो.श्री कन्हैयालाल श्रीवास्तव, जीवनी सैयद सालार मसूद गाजी-मनसर अली खादिम, अलमसऊद-ख्वाजा खलील अहमदशाह, अलमयनी-ख्वाजा खलील अहमदशाह, क्षत्रिय वंश का संक्षिप्त इतिहास-श्री सीताराम सिंह, वैसवाड़े का वैभव-श्री शैलेन्द्रप्रताप सिंह, नागभारशिव का इतिहास-श्री एम. बी. राजभर, भर-राजभर साम्राज्य- श्री एम. बी. राजभर आदि अनेक पुस्तकों के लेखकों ने राजा सुहेलदेव को भर-राजभर जाति का बताया है।
             श्रावस्ती के जैन मन्दिर के मुख्य द्वार पर ऊपर अभी भी सुहेलदेव भर की अश्वारोही प्रतिमा लगी है। उत्तरप्रदेश लखनऊ नगरीय प्रशासन ;नगर निगमद्ध द्वारा भी सन् 1999 ईस्वी में लखनऊ के लाल बाग, नूर मंजिल तिराहे पर राष्ट्रवीर महाराजा सुहेलदेव राय राजभर की भव्य प्रतिमा लगाई गई है।
              जिस राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढांचे को लेकर तनाव बढ़ता है वह भर-राजभर जाति का है। भर-राजभर जाति की ऐतिहासिक धरोहर पर दूसरों द्वारा बलात् कब्जा ;अतिक्रमणद्ध किया गया है। लेखक ने 5-6 दिसम्बर 2008 ईस्वी को अयोध्या भ्रमण किया, और राजभरों के दो मन्दिरों का अवलोकन किया। एक मन्दिर जिसके पहुंच मार्ग पर भर पंचायती मन्दिर का बोर्ड लगा था, उस बोर्ड कोे हटा दिया गया है। मन्दिर के मुख्य द्वार पर ऊपर भर-पंचायती मन्दिर शिलालेख लगा है। इस मन्दिर के भर-राजभर ट्रस्टियों को हटा कर पुजारी कोे मार पीट कर भगा दिया गया है और उस क्षेत्र के राष्ट्रीय स्तर के प्रसिद्ध राजनेता की शह पर दबंग लोगों द्वारा बलात् कब्जा कर लिया गया है। दूसरा मन्दिर जिसके मुख्य द्वार के उूपर राजभर-क्षत्रिय श्री रामजानकी पंचायती मन्दिर शिलापट्ट लगा है, पर भी अतिक्रमण किया जा रहा है। प्रकरण की छाया प्रतियां लेखक ने महन्त श्री जयराम दास जी से प्राप्त की थी। यह बलात कब्जा ठीक उसी प्रकार किए जा रहे हैं जैसे कभी पूर्व में राम जन्म भूमि का स्वामित्व भरों -राजभरों से छीन लिया गया था।  
              इतिहास साक्षी है भारतीय धर्म एवं धार्मिक स्थलों की रक्षा करने वाले एक लाख बीस हजार भर-राजभर योद्धाओं कोे नासिरुद्दीन द्वारा सन् 1226 ईस्वी में मौत के घाट उतार दिया गया था। सुहेलदेव भर कौम के थे और उन्होंने राम जन्म भूमि ढहाने वाले सैयद सालार मसूद गाजी का बध किया था अतएव मुस्लिम शासकों की दृष्टि में पूरी की पूरी भर कौम अपराधी घोषित कर दी गई थी और इस कौम के कत्ले आम के फतवे जारी किए गए थे। ऐसी भर-राजभर कौम को भुला दिया गया है जबकि राम जन्म भूमि-बाबरी मस्जिद ढांचा विवाद सुलझाने के लिए इसे भी एक पक्ष बनाया जाना चाहिए।
              ऐतिहासिक तथ्य बताते हैं कि 1033 ई. में राम जन्म भूमि ढहाई गई थी और उसके 80 वर्ष के भीतर भर शासकों द्वारा पुनः निर्माण करा दिया गया था। बाद में सन् 1528 ई0 में बादशाह बाबर के समय राम जन्म भूमि को ढहा कर मस्जिद का रूप दे दिया गया था। मुसलमान भाइयों को इस सत्य को स्वीकार करते हए,अपना दावा छोड़ देना चाहिए। दोनों वर्ग विवादित स्थल से अपना दावा छोड़ें और उस स्थल के वास्तविक स्वामी भर-राजभरों द्वारा भव्य राम जन्म भूमि मन्दिर बनाने के लिए हिन्दू-मुस्लिम भरपूर सहयोग करें।  
(4)    भारत देश का नामकरण और हमारे पूर्वाग्रह
     लेखक-आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’,आनन्द भवन, सिहोरा, जिला- जबलपुर, मध्यप्रदेश-483225
      ;(यह लेख बहुजन विकास पाक्षिक ,बी-105,पंजाबी बस्ती, बलजीत नगर,नई दिल्ली- 100008 के 1-15 सितम्बर 2009 अंक में पृष्ठ 2 पर एवं अन्य कई पत्रिकाओं में छप वुका है।)
              हमारे पूर्वाग्रहों के कारण इतिहास की बहुत सी बातें परदे के पीछे छिपी रह जाती हैं। जब आपसे कोई लखनऊ के नामकरण के बारे में पूछेगा तब आप तत्काल कहेंगे कि दशरथ पुत्र लखन के नाम पर लखनपुरी बसाई गई, उसी का बिगड़ा रूप लखनऊ है। बहरायच के नामकरण की चर्चा होगी तब आप कहेंगे कि ब्रहमा जी ने वहां पर तपस्या की थी, ब्रह्माइच का बिगड़ा रूप बहराइच है। जबकि, सत्य यह है कि लखना भर के नाम पर लखनपुरी बसाई गई और उसका बिगड़ा रूप लखनउू है। वीर लड़ाकू भर जाति के नाम पर भराइच, भर-राइच नगर बसा और उसी का बिगड़ा रूप बहराइच है। लेकिन क्या करें हमारी पौराणिक सोच खींचतान कर पौराणिक पात्रों के नाम साम्यता स्थापित कर ही देती है। यही स्थिति भारत देश के नाम करण की है।  
             बहुजन विकास के 01 जून 2009 के अंक में आदरणीय श्री राजन चैधरी का लेख ‘‘हमारे देश के नामों पर उठे सवाल’’ पढ़ा। लेख की पंक्तियां- ‘‘देश का नाम भारत हो जाने के पीछे दो कथाएं जुड़ी हैं। एक है राजा दुष्यन्त के मेधावी पुत्र भरत की और दूसरी है जैन ऋषभदेव के पुत्र भरत की जिनके सम्राट बनने पर प्रजा के आग्रह पर देश का नाम भारतवर्ष रखा गया।’’ हम सबकी भी यही धारणाएं है। इन्हीं दो कथाओं का उल्लेख कर हम प्रश्नकर्ताओं की जिज्ञासा शान्त करते आए हैं। भारत देश का नाम भारत कैसे पड़ा कभी भी हमने गंभीर होकर शोध कार्य नहीं किया। इन दो पौराणिक पात्रों ने हमें इतना बांध दिया कि हम पौराणिक पूर्वाग्रहों के शिकार हो गए। देशों, प्रदेशों के नामकरण के सिद्धान्तों, नियमों पर हमने ध्यान ही नहीं दिया।      
             व्यक्तियों के नाम पर गांव, नगर, विशिष्ठ स्थान आदि के नाम होते हैं, देश का नहीं। मुम्बादेवी के नाम पर मुम्बई, इला के नाम पर इलाहाबाद, जाबालि ऋषि के नाम पर जाबालिपुरम् ;जबलपुर, ,राजा मानिक के नाम पर मानिकपुर, राजा बन्दारस के नाम पर बनारस आदि। जाति समूहों के नाम पर भी मुहल्लों, गावों, नगरों के नाम हो सकते हैं। जैसे शिवहरे जाति के नाम पर सिहोरा, नाग जाति के नाम पर नागपूुर इत्यादि। देश अथवा प्रदेश के नामकरण जाति ;जाति समूह, भाषा, भौगोलिक संरचना आदि के आधार पर होते हैं। अर्थात देश का नाम व्यक्ति वाचक नहीं अपितु समूह वाचक होता है। आप हमारे देश एवं प्रदेशों के नामकरण के सम्बंध में इन्हीं सिद्धान्तों को आधार  बना कर सोचिए। विश्व के देशों केे नामकरण के विषय में भी सोचिए कि उनका नामकरण व्यक्ति विशेष के नाम पर हुआ है अथवा जाति, भाषा, भौगोलिक संरचना आदि सिद्धान्तों के आधार पर।
              आइये अब हम विचार करें कि हमारे देश का नाम भारत क्यों ? यदि पुराणकारों ने दुष्यन्त पुत्र भरत और जैन ऋषभदेव के पुत्र भरत के नामों से भारत देश का नामकरण होने का उल्लेख कर भी दिया हो तो इसका अर्थ यह नहीं कि उन्होंने सही लिखा है। सही तो यह है कि भरतों  ;भरत तृत्सु गण के नाम पर भारत देश का नाम भारत पड़ा  है। भरत जाति ;भरत जाति समूह का उल्लेख ऋग्वेद में है। इस भरत जाति समूह के मुखिया राजा सुदास थे। ऋग्वेद में वर्णित दास राज्ञ युद्ध से विद्वान परिचित हैं। भरत जाति बहुत प्रतापी थी और उस जाति के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा।    
              विश्व विख्यात, महाविद्वान, महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है कि महाप्रतापी भरत जाति के नाम पर हमारे देश का नाम भारत पड़ा। उनकी पुस्तक ‘‘सतमी के बच्चे’’ में अकाल की बलि के अन्तर्गत ‘‘डीह बाबा’’ शीर्षक से लिख्ेा गए लेख की पंक्तियां ज्यों कि त्यों यहां उद्धृत कर रहा हूॅं-ः‘‘जीता राजभर जाति के थे। कौन सी भर जाति ? ईसा से प्रायः दो हजार वर्ष पूर्व ,जब आर्य भारत में आए, तबसे हजारों वर्ष पूर्व जो जाति सभ्यता के उच्चशिखर पर पहुंच चुकी थी, जिसने ंसुख और स्वच्छतायुक्त हजारों भव्य प्रासादों वाले सुदृढ़ नगर बसाए थे, जिसके जहाज समुद्र में दूर-दूर तक यात्रा करते थे,वही जाति। व्यसन निमग्न पाकर आर्यों ने उनके सैकड़ों नगरों को ध्वस्त किया। तो भी उसके नाम की छाप आज भारत देश के नाम में है- वही भरत जाति या राजभर जाति। पराजित होने पर भी भर जाति आर्यों को सभ्यता सिखलाने में गुरु बनी।........सिन्धु उपत्यका की इस सभ्य जाति ;जिसके प्राचीन नगरों के भव्य ध्वंशावशेष मोहनजोदड़ेा और हडप्पा के रूप में आज भी जगत को चकित कर रहे हैं ) की एक प्रधान शाखा पूर्वीय युक्त प्रान्त और बिहार में बस कर के भर नाम से प्रसिद्ध हुई। ’’  
मैं आशा करता हूं कि पूर्वाग्रहों को त्याग कर भारतवर्ष नामकरण के वास्तविक तथ्यों से अवगत कराने विद्वत्जन अपनी लेखनी अवश्य उठायेंगे।
 (5) मध्यप्रदेश के मूल निवासी राजभरों की गोत्र प्रथा
       लेेखक-आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’, आनन्द भवन सिहोरा, जबलपुर,मध्यप्रदेष-483225  
             (यह लेख राजभर मार्तण्ड मासिक के अग. सित. अक्टू. 2005 अंक में छप चुका है।)
               मध्यप्रदेश के मूल निवासी राजभरों के अलावा राजभर समाज के लोग कहते हैं कि उनका गोत्र भारद्वाज है। देखादेखी मध्यप्रदेश के मूल निवासी भी इसका अनुकरण करने लगे हैं जबकि गोत्र विभिन्नता उनके यहां पहले से विद्यमान है। सीधी-सादी बात है कि यदि सम्पूर्ण राजभर समाज का गोत्र भारद्वाज है, चाहे वह ऋषि भारद्वाज के नाम पर प्रचलित हो या अवध नरेश महाराज भारद्वाज के नाम से प्रचलित हो तो सभी का सगोत्र विवाह क्यों ?  
               शास्त्रों की बात छोड़ भी दी जाए तो भी वैज्ञानिक दृष्टि से स-गोत्र विवाह जायज नहीं है, चाहे वह किसी भी पीढ़ी में हो। यथार्थ तो यह है कि उच्च होने की लालसा ने हमें भारद्वाज होने का ढिंढोरा ता पिटवा दिया किन्तु कभी इस ओर ध्यान नहीं दिया कि राजभरों में स-गोत्री विवाह के कारण इस गोत्र का रत्ती भर महत्व नहीं है। चर्चा करने पर प्रायः लोग कहते हैं कि हम एक दूसरे से दो-चार पीढ़ी की जानकारी ले लेने के बाद ही विवाह करते हैं। यह तर्क आप दूसरों को तसल्ली देने के लिए देते हैं। यह तर्क एकदम बकवास है। आप अपने समय के सम्बंध में अधिकृत जानकारी नहीं रख पाते फिर दो-चार पीढ़ियों की जानकारी रखने का ढोंग करते हैं, वह इसलिए कि इस तक्र्र के सामने रखने के अलावा आपके पास कोई चारा नहीं है। मान लिया आपका गोत्र भारद्वाज है तो भी आपका पारिवारिक सम्बोधन अथवा उपगोत्र कुछ न कुछ तो होना चाहिए। जिसका पीढ़ी दर पीढ़ी आप उपयोग करते आ रहे हें।वह भी आपके पास नहीं है। इस सबके न होने पर कम से कम तीसरी पीढ़ी में एक ही परिवार के लोगों में विवाह सम्बंध के हो जाने से बच पाना मुष्किल ही है। यथार्थ तो यह है कि इस दिषा में राजभर समाज ने सोचने समझने का कभी प्रयास ही नहीं किया, जिसका दूरगामी परिणाम राजभर समाज इस रूप में भोग रहा है कि इस जाति की प्रवृत्ति एवं प्रकृति जातीय स्वाभिमान से रहित सी हो गई हैं और अपने ही समाज को विघटित करने में अधिक रुचि लेती है।आपको यह जान कर आश्चर्य होगा कि भारशिव नाग अथवा भर-राजभर जाति से टूट कर बनी तामियां जिला छिंदवाड़ा मध्यप्रदेश की पाताल कोट की भारिया जन जाति में 51 गोत्र पाए जाते है।, और ये भारिया आदिवासी सम-गोत्री विवाह नहीं करते। प्रायः प्रायः हर जाति में गोत्रेां का चलन हैं।राजभर समाज का समाज शास्त्रीय अध्ययन किए जाने की नितान्त आवश्यकता है।  
        मध्यप्रदेष में मूल निवासी राजभरों में-मुख्य रूप से जबलपुर, कटनी जिलों के हवेली, पचेल, कनौजा क्ष्ेात्र के मूल निवासी राजभरों में पारिवारिक नाम हैं जिनका कि गोत्र के समान उपयोग होता है। यहां भारद्वाज, कश्यप, चन्द्रायण, कृष्णात्रेय, आदि गोत्र तो हैं किन्तु उनकी आवश्यकता नहीं है क्याोंकि विवाह सम्बंध में रक्त शुद्धता बनाए रखने के उद्देश्य से पारिवारिक सम्बोधनों का उपयोग ही पर्याप्त है। ये पारिवारिक सम्बोधन पीढ़ी दर पीढ़ी चले आ रहे हैं। हवेली, पचेल एवं कनौजा के राजभरों में चैहान-छैलमुकरा-शैलमुक्ता, कलार, बढ़ेला, खरवरिया, चन्देल, नेकवार-रैकवार, बिलियागढ़, पुण्डा-पाण्डो, जंगरिया, दुर्जेला, सिठिया, कुलभनियां-कुषभवनिया महतेला-महत, पलहा-पलिवार, राजपटेल,ं मुण्डवरिया, सरवरिया, सरवैया, रहतिया, सुरहतिया, गुलेटा, खिलैया, गरवाल, बम्हनियां आदि भेद पाए जाते हैं।इन्हें बैंक कहते हैं। खरवरिया-खरवार-खैरवार राजभर इसी बैंक के राजभर में शादी नहीं कर सकता। पलहा राजभर, पलहा राजभर में शादी नहीं कर सकता। कहने का तात्पय्र्र यह है कि एक ही सम्बोधन बैंक वाले राजभर आपस में विवाह सम्बंध नहंी कर सकते। आपको दो-चार पीढ़ी की दास्तान याद रखने की आवष्यकता नहंी है। केवल आपको आपका बैंक मालूम होना चाहिए। उक्त बैंक कुछ अपभ्रन्श रूप मे हैं। खरवरिया वास्तव में महाराजा मदन 1158-1190ई. मिर्जापुर से सम्बंधित हैं। महाराजा मदन भरों की उप-जाति खरवार या खैरवार से सम्बंधित थे। चन्देल जैजाकभुक्ति के चन्देलों से। इसी प्रकार अन्य बैंकों या उपगोत्रों का सम्बंध खेाजा जा सकता है।
         राजभर समाज का प्रबुद्ध वर्ग चाहता है कि भर या राजभर जाति की उपजातियां जो कि वर्तमान में स्वतंत्र जातियों के रूप में हैं वे एक हो जाएं और आपसी सम्बंध बनाना प्रारम्भ करदें।जिनका इतिहास एक है और जोे भरत,भर,भारशिव, या राजभर के मूल इतिहास के खण्ड हैं ,उन्हें एक होना ही चाहिए। यह जो हम अभी सोच रहे हैं। मध्यप्रदेश के हवेली, पचेल, कनौजा क्षेत्र मे सदियों पहले कार्यान्वित किया जा चुका है। खैरवार, चन्देल, पाण्डो, महत, पालिहा, पटेलिया, सरवैया आदि अपनी मूल जाति राजभर के नाम से हैं। राजभर जाति की उपजातियां पालिहा, पटेलिया, खैरवार, खिरवार, खरिया, मण्डिया, पाण्डो आदि मध्यप्रदेश में जनजाति की सूची में है। और राज्जहर अनुसूचित जाति की सूची में। मुझे लगता है कि सदियों पहले राजभरों से बिछुड़े स्वजनों ने कोई महाअधिवेषन कर राजभर जाति का महा संघ बनाया होगा। आज हम काफी प्रगतिशील हैं। अभी भी खैरवार, रजवार, चन्देल, रज्झर जो हमारे अपने हैं इन्हें अपने साथ चलने के लिए आमंत्रित करना चाहिए। हमें केवल इसी उद्देश्य के लिए एक महाधिवेशन करने की नितान्त आवश्यकता है। गोत्रों पर भी विचार आवश्यक हे ।
       मध्यप्रदेश में राजभरों के प्रचलित पारिवारिक पहचान या गोत्रों के विषय में मैंने अड़तालीस वर्ष पूर्व पूज्य श्री राजेद्रपसाद जी वाराणसी से पत्राचार किया था। वे इसका समाधान नहंी कर पाए थे। हाॅं, इतना अवश्य लिखा था कि बढ़ेला शायद विन्ध्येला का रूप हो।इसी प्रकार कुछ अन्य उपनामों के बारे में बताया था। गोत्रों का उद्भव कई प्रकार से होता है। गोत्र किसी ऋषि के नाम पर होता है।प्रवर ऋषियों के नाम पर भी गोत्र चलता है। मुख्य रूप से गोत्रों के निम्नांकित प्रकार होते हैं-ःमूल वंश का गोत्र, वीर्यजन्य गोत्र, शब्दजन्य गोत्र, उपाधि जन्य गोत्र, स्थानजन्य गोत्र, षिष्य परम्परागत गोत्र आदि। गोत्रोें के विषय में विस्तृत चर्चा हेतु आपके सुझाव आमंत्रित हैं।
 (6)  विश्व का दशहरी आम का पहला पेड़
     लेखक-आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
   (यह लेख बहुजन विकास दिल्ली आदि विभिन्न पत्र पत्रिकाओं में छप चुका है।)
               आम का मौसम रहे या न रहे, किन्तु जब भी आपको सफेदा, हापुस, नीलम, चैसा, दषहरी आदि आम की प्रजातियों का स्मरण आता है तब आपकी रसना बे-मौसम  भी आम के रसास्वाद से सराबोर होने लगती है। आम आदमी हो या आमदार या उससे भी खास आदमी, आम सबमें एक सी ललक पैदा करता है, इसीलिए तो आम को फलों का राजा कहा जाता है।
                आम की प्रजातियों में दषहरी आम बे-जोड़ है। क्या आप जानते हैं कि दषहरी आम की उत्पत्ति कैसे हुई ? आइए आज हम आपको दषहरी आम के प्रादुर्भाव की कहानी सुनाते हैं।  
                 लखनऊ से पष्चिम, हरदोई मार्ग पर, नगर से तेरह कि मी. दूर ककोरी षहीद स्मारक से उत्तररेल्वे की हावड़ा-अमृतसर लाइन से उस पार, डेढ़ कि.मी. की दूरी पर दषहरी गाँव है। इस गाँव में ही दो सदियों पुराना आम का पेड़ है जो संसार में दषहरी आम का पहला पेड़ ़है का गौरव रखता है।                              
                 लखनऊ में दषहरी गाँव के ताल्लुकेदारों की दषहरी कोठी है, जो झाऊलाल पुल और कचहरी रोड के बीच में है और दषहरी हाउस के नाम से प्रसिद्ध है। दषहरी हाउस के वर्तमान नवाब सैयद मुहम्मद असर जैदी के अनुसार दषहरी गाँव सहित उसके आसपास का इलाका भरों-राजभरों की सम्पत्ति था। उन्हीं भरों -राजभरों से नवाब के पूर्वजों ने इस पूरे इलाके को खरीद लिया। इसमें वह दषहरी गांव भी षामिल था जिसका नामकरण दषहरी आम के जनक दषरथ या दषरथी के नाम पर हुआ था।    
                  दषरथ नाम का राजभर -भर जाति का किसान था। उसके आम के अपने बाग थे। एक बार वह पके आमों को तोड़ कर बेचने के लिए तीन आदमियों के साथ जा रहा था। चारों व्यक्ति पके आमों से भरी टोकनियां सिर पर रख्ेा जा रहे थे। अचानक आंधी तूफान के साथ तेज वर्षा होने लगी। सिर छुपाने के लिए कहीं सुरक्षित स्थान भी नहीं था। षीघ्र ही उन चारों ने आमों से भरी टोकनियां एक साथ एक ही जगह पर उड़ेल कर ऊपर से टोकनी औंधा रख दिया। किसी तरह प्राण बचाकर घर पहंुंचे लगातार तेरह दिनों तक वर्षा होती रही। सम्पूर्ण आम सड़ गए। इन सड़े आमों के ढेर से एक एक कर के सभी अंकुरण जमने पर एक साथ निकले। अंकुरण का प्रांकुरण तथा मूलांकुर संयुक्त रूप् से निकला। हवा पानी और प्रकाष तीनों के आधार से एक ही एक ही विषाल वृक्ष तैयार हुआ।कई किस्मों के आमों के सत्व का मिश्रण एक ही वृक्ष के रूप में हो गया।
                  जहाँ पर यह वृक्ष तैयार हुआ,संयोग वष वह भूमि भी दषरथ राजभर के अधिकार में थी। दषरथ राजभर ने स्वयं उस वृक्ष की देखभाल की। समयानुसार आम के उस वृक्ष पर फल आए। आम की मिठास औ फलों के आकार की चर्चा सर्वत्र फैलने लगी। अब यह आम भोजों-दावतों में उपहार-तोहफों के रूप में दिया जाने लगा। उस क्षेत्र के ताल्लुकेदार को भी आम तोहफे के रूप में भेजा गया। कौन लाया यह आम ? राजमहल में भी चर्चा होने लगी। अरे! भई! दषरथी राजभर-भर लाया यह आम। इस प्रकार यह आम दषरथी के नाम से जाना जाने लगा और फिर दषरथी से आगे निकलता हुआ यह आम दषहरी कहलाया जाने लगा।
                आजकल इस आम को विभिन्न स्थानों पर देखा जा सकता है। यद्यपि इस आम के मिठास और आकार में अब अन्तर होने लगा है किन्तु आज भी इसकी प्रसिद्धि वैसी ही बनी हुई है जैसी की दषरथी राजभर के समय थी। (आधार-श्री एम.बी.राजभर की पुस्तक)
 (7)सेनानायिका वीरांगना महारानी कुन्तादेवी राजभर
     लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’,
   (यह लेख रक्त सूर्य साप्ताहिक भोपाल के 16 अगस्त 1999  अंक में छप चुका है।द्ध
       भारतीय समाज में नारियों का सदैव सम्मानपूर्ण स्थान रहा है। भारतीय नारी ने रसोई घर एवं रनिवास से लेकर रणभूमि तक का दायित्व बखूबी निभाया है। यद्यपि भारतीय मनीषियों ने नारी को पुरुष का अद्र्धांग कहा है किन्तु सच तो यह है कि पुरुष की सर्वांग संरचना ही नारी के गर्भ में होती है। पुरुष अधर है और नारी धरा।
       आज जब भी हम रामगढ़ की रानी अवन्ती बाई लोधी, झांसी की रानी लक्ष्मीबाई एवं गढ़ा मण्डला की रानी दुर्गावती आदि का स्मरण करते हैं तब इन वीरांगनाओं के प्रति हमारा सिर श्रृद्धा से झुक जाता है। लेकिन इन वीरांगनाओं को प्रेरणा कहां से मिली-यह जानने के लिए हमने दीमक लगे इतिहास क पृष्ठों को पलटने का कभी भी प्रयास ही नहंी किया। ऐसा ही कुछ वीरांगनाओं की प्रेरणा स्रोत सेना नायिका भर महारानी कुन्तादेवी राजभर के साथ हुआ, जिसकी षौर्य गाथा इतिहास में तो अंकित है किन्तु हमने उन पृष्ठों को पढ़ने का कभी प्रयास नहीं किया।        
        एक ओर जहां रानी अवन्तीबाई, रानी लक्ष्मीबाई एवं रानी दुर्गावती ने असमान्य परिस्थितियों में अर्थात अपने पति की मृत्यु के बाद सेना का नेतृत्व कर रण चण्डी बनकर रण भूमि में उतरीं, वहीं दूसरी ओर भर महारानी कुन्तादेवी राजभर ने सामान्य परिस्थितियों अर्थात अपने पति के जीवित रहते हुए ही सेना का नेतृत्व किया। भारतीय इतिहास में ऐसे उदाहरण मिलना अत्यंत कठिन हैं।
        महारानी कुन्तादेवी राजभर, बाराबंकी के महाराजा बारा की पत्नि थीं। महारानी कुन्तादेवी महल के अन्दर रहने वाली महारानियों में से नहीं थीं। वह महाराजा बारा के साथ आखेट खेलने भी जाया करती थीं। निर्भीक, निडर, बे-खौफ महारानी कुन्तादेवी ने महाराजा बारा के साथ अनेक युद्धों में भाग लिया। महाराजा बारा का साम्राज्य उत्तर में लखीमपुरखीरी से लेकर दक्षिण में इलाहाबाद तक फैला हुआ था। अरब यात्री अलमसौदी के यात्रा विवरण के अनुसार महाराजा बारा कन्नौज के भी षासक थे। महाराजा बारा ने सन् 872 ई. से 912 ई. तक षासन किया। महारानी कुन्तादेवी ने महाराजा बारा के समक्ष प्रस्ताव रखा कि साम्राज्य की सुरक्षा के लिए नारियों का भी योगदान होना चाहिए। महाराजा बारा ने महारानी कुन्ता का प्रस्ताव स्वीकार कर लिया और महारानी कुन्ता को नारी सेना गठन की स्वीकृति तथा नारी सेना की सेना नायिका का पद सम्हालने की अनुमति दे दी। महारानी कुन्ता राजभर ने कुन्ता नारी सेना का गठन किया। कुन्ता नारी सेना उत्तम घोड़ों से लैस थी। नारियों को सर्वप्रथम घुड़ सवारी की षिक्षा दी जाती थी। कुन्ता नारी सेना को महाराजा बारा की सेना का प्रमुख अंग कहा जाता है। रामनगर, रुदौली, सिद्धौर, समौली और बहूराजमऊ सेना के प्रमुख केन्द्र थे। कुन्तौरनगर जिसे महाराजा बारा ने महारानी कुन्ता के नाम पर बसाया था-में लगभग तीन हजार घोड़ों की एक घुड़साल थी।
        सन् 912 ई. मे वल्लभी के राष्ट्रकूट षासक कृष्ण द्वितीय ने कन्नौज पर चढा़ई की। महाराजा बारा राजभर युद्ध भूमि में वीर गति को प्राप्त हुए। किन्तु बाराबंकी और कुन्तौर का साम्राज्य महारानी कुन्तादेवी ने तीन वर्ष-सन् 912 ई. से 915 ई. तक सम्हाले रखा। सन् 915 ई. में प्रतिहार वंष के महेन्द्रपाल ने कुन्ता के साम्राज्य पर चढ़ाई कर दी। कुन्तौर में भयंकर युद्ध हुआ। इस युद्ध में महारानी कुन्तादेवी की हार हुई और उनका कत्ल कर दिया गया। यद्यपि महारानी कुन्तादेवी के कत्ल के साथ ही नारी सेना सृजन की परिपाटी समाप्त हो गई किन्तु वे भारतीय वीरांगनाओं की प्रेरणा स्रोत बनी रहीं। महारानी कुन्तादेवी से प्रेरणा ग्रहण कर अनेक राजा-महाराजाओं ने अपनी रानियों-महारानियों एवं राजकुमारियों को युद्ध कौषल में दक्ष कराया।
       साक्ष्य के लिए इन ग्रन्थों का अवलोकन किया जा सकता है-ःआन दी ओरिजिनल इनहेविटेन्स आफ भारतवर्ष आर इण्डिया-गुस्तव ओपट्र, अलमसौदी का यात्रा विवरण, हिस्ट्री आफ इण्डिया-इलियट, दी भरस् आफ अवध एण्ड बनारस-पेटिृक सरनेगी, गजेटियर आफ दी प्रोविन्सस आफ अवध, दी हिमालयन डिस्ट्रिक्ट आफ दी एन.डब्लू.पी. आफ इण्डिया-एडकिन्सन एडविन, भर-राजभर साम्राज्य-एम.बी. राजभर इत्यादि।          ं
(8) बाराबंकी जिले का किन्तूरनगर, कुन्तीष्वर मन्दिर एवं कल्प वृक्ष
     लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
 (यह लेख रक्त सूर्य साप्ताहिक भोपाल के 5.7.1999 अंक पेज 7 पर छप चुका है।)
       हमारे पूर्वाग्रहों के कारण इतिहास की बहुत सी बातें परदे के पीछे छिपी रह जाती हैं। जब आपसे कोई लखनऊ के नाम करण के बारे में जानना चाहेगा, तब आप कहेंगे कि दषरथ पुत्र लखन के नाम पर लखनपुरी बसाई गई, और उसी का बिगड़ा हुआ रूप लखनऊ है। बहराइच के नामकरण की बात चलेगी तब आप कहेंगे कि ब्रह्मा जी ने वहां पर तप किया था, ब्रह्माइच का बिगड़ा हुआ रूप बहराइच है। जबकि सत्य यह है कि लखन भर के नाम पर लखनपुरी बसाई गई, और उसका बिगड़ा रूप लखनऊ है।वीर लड़ाकू भर जाति के नाम पर भर-राइच,भराइच,बहराइच नगर बसा है।लेकिन क्या करें हमारी पौराणिक सोच खींचतान कर पौराणिक पात्रों से साम्यता स्थापित कर ही देती है।
       ऐसा ही कुछ बाराबंकी जिला मुख्यालय से चालीस किलोमीटर दूर स्थित किन्तूरनगर ;किन्तौर,कुन्तौरद्ध, कुन्तीष्वर मन्दिर,एवं पारिजात वृक्ष के विषय में पूर्वाग्रहों का सहारा लिया गया है। किन्तूर बाराबंकी जिले की सिसौली गौसपुर तहसील में स्थित है। कुछ समाचार पत्रों में किन्तूर मन्दिर का रहस्य बताते हुए छापा गया है कि षिवलिंग को सबसे पहले कुन्ती ही पूजती है। समाचारपत्रों में कहा गया है कि पाण्डव जननी कुन्ती अज्ञातवास के समय यहां ठहरी थी। भगवान षंकर को प्रसन्न करने के लिए उन्होंने इस मन्दिर की स्थापना कराई थी।,इसी लिए इस मन्दिर का नाम कुन्तीष्वर मन्दिर पड़ा, तथा नगर का नाम किन्तूर पड़ा। एक-दो किलोमीटर दूर स्थित कल्पवृक्ष के विषय में भी यही कल्पना की गई है कि इस पारिजात का रोपण अर्जुन ने अपनी माता कुन्ती के नाम पर किया था।
      उपरोक्त बातें बिलकुल निराधार हैं। सत्य तो यह है कि किन्तूर-किन्तौर,-कुन्तौरनगर भर षासक महाराजा बारा ने अपनी महारानी कुन्ता जिनका नाम कहीं कहीं किन्तमा या कुन्तमा भी लिखा है के नाम पर बसाया था। बाराबंकी का नामकरण भी भर षासक महाराजा बारा के नाम पर किया गया है। भर- राजभर षासक महाराजा बारा ने 872 ई. से 912 ई. तक बाराबंकी साम्राज्य पर षासन किया। सन् 912 ई. में राष्टृकूट वंष के राजा कृष्ण द्वितीय ने भर-राजभर षासक महाराजा बारा को पराजित किया।
      भर षासक महाराजा बारा की महारानी राजभर कुल गौरव कुन्ता ;किन्तमा,कुन्तमाद्ध ने 912 ई. से 915 ई. तीन वर्ष तक बाराबंकी साम्राज्य को सम्हाले रखा। भर महारानी कुन्ता ने ही षिव को प्रसन्न करने के लिए षिव मन्दिर बनवाया था। आज भी भर महारानी कुन्ता सर्व प्रथम भगवान षिव की पूजा करने आती हैं। जब वे पूजा करती हैं तब उपस्थित अन्य प्राणी तन्द्रा निद्रा ग्रस्त हो जाते हैं। सन् 915 ई. में प्रतिहार वंष के महेन्द्रपाल ने कुन्ता साम्राज्य पर आक्रमण कर दिया। कुन्तौर में भयंकर युद्ध हुआ । राजभर महारानी कुन्ता पराजित हो गईं और उनका कत्ल कर दिया गया।  
     जहाँ पर भर महारानी कुन्ता की टकसाल थी वहां उन्होंने पारिजात या कल्प वृक्ष का रोपण किया था। इस अद्भुत बृक्ष की गोलाई पचास फीट तथा ऊंचाई पैंतालीस फीट है। वनस्पति षास्त्रियों ने इस वृक्ष की आयु एक हजार वर्ष आंकी है। विज्ञ पुरुष ही बताएं कि वह वृक्ष जिसकी आयु एक हजार वर्ष आंकी गई है, कुन्ती पुत्र अर्जुन द्वारा रोपित कैसे हो सकता है ? भारतीय डाकतार विभाग ने 4 मार्च सन् 1997 ई. को इस पारिजात वृक्ष पर पांच एवं छः रुपए के दो डाक टिकिट जारी किए थे, जिन्हें उत्तरप्रदेष के महामहिम राज्यपाल श्री रोमेष भण्डारी ने जारी किए थे। यह खबर भी छापी गई थी कि इस वृक्ष को माता कुन्ती के नाम पर अर्जुन ने लगाया था।यह धारणा पूर्णतः निराधार है।
    बाराबंकी नरेष बारा, बाराबंकी, महारानी कुन्ता, और कुन्तौरनगर आदि के विषय में साक्ष्य के लिए गजेटियर आफ दी प्रोविन्सेस आफ अवध वाल्यूम 2 ;1878द्ध पृष्ठ 112, आन दी ओरिजिनल इन हेविटेन्स आफ भारतवर्ष आर इण्डिया पृष्ठ 39-40-गुस्तव ओपर्ट, अवध गजेटियर पृष्ठ 255 आदि का अध्ययन किया जा सकता है।
(9) बहराइच के सोमनाथ मन्दिर की रक्षा श्रावस्ती सम्राट राष्ट्रवीर              सुहेलदेव राजभर ने की थी
लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर‘‘राजगुरु’’सिहोरा,जबलपुर म.प्र.
 ;यह लेख दर्ददीद साप्ताहिक शाहगंज, जौनपुर के 4 अक्टूबर 1999ई. अंक में छप चुका है।द्ध
        मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव शिव के परम भक्त थे। वे स्वयं शिव स्वरूप थे, इसीलिए उनकी गणना एकादश रुद्रों में की गई एवं महापुराणेंा में उन्हें वीरभद्र के नाम से जाना गया। महाराज वीरसेन भारशिव शिव लिंग धारण करते थे। वे परमेश्वर शिव का अपमान नहीं सह सकते थे। जहां भी यज्ञादि शुभ कार्यों में महेश्वर शिव की अवहेलना की गई, वहां महाराज वीरसेन भारशिव ने अथवा उनके सेवकों ने उस यज्ञ का विध्वंश किया। प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्वंश किया जाना इसका प्रमाण है। उनकी इस प्रवृत्ति के कारण वैष्णव भारशिवों से गहरी शत्रुता रखने लगे, और भारशिवों के विनाश की योजना बनाने लगे। वैष्णवों को जब भी अवसर मिला छल कपट के बल पर भारशिवों को नेस्तनाबूंद करने का प्रयास करते रहे। इतना ही नहीं अपितु धरती का भार हटाने अर्थात धरती से भारशिवों का विनाश करने के लिए विष्णु का आवाहन करते रहे।
         शिवस्वरूप भगवान वीरसेन भारशिव चाहते थे कि सम्पूर्ण भारतीय समाज महेश्वर शिव को आत्मसात करे, क्योंकि शिव ही एकमात्र ऐसे आराध्य हैं जो सभी प्रकार के भेद भावों से परे हैं। उनके दरबार में अमीर-गरीब, ऊंच-नीच, मित्र-षत्रु, विज्ञ-अल्पज्ञ, राजा-प्रजा, सुर-असुर आदि का भेदभाव नहीं किया जाता। सब समान रूप से उनके दरबार में प्रवेश पाते हैं। महेश्वर शिव परम सन्यासी हैं। दूसरे देवों के समान विलासी नहीं हैं। आशुतोष हैं, सहज-आराध्य, सहज-सुलभ हैं। भगवान वीरसेन भारशिव ने समानता के प्रतीक महादेव शिव को भारत भूमि के हर क्ष्ेात्र प्रतिष्ठापित करने का प्रयास किया। हमारे देश के हर गांव में हर हर महादेव के दर्शन हो जायेंगे। शायद ही कोई ऐसा गांव मिले जहां शिवालय न हो। यह भगवान वीरसेन भारशिव की ही अनुकम्पा है।
         भगवान वीरसेन भारशिव ने नागौद-नचना में शिवालय की स्थापना की एवं भारशिव कुलदेव के प्रतीक स्वरूप शिव मुखलिंग की स्थापना की। जबलपुर जिले के भेड़ाघाट-पंचवटी में भी चतुर्मुख शिव लिंग की प्राण प्रतिष्ठा कराई। भेड़ाघाट का चतुर्मुख शिवलिंग विश्व में अपने प्रकार का अकेला मुखलिंग है। यह अद्वितीय हैं इसी प्रकार भगवान वीरसेन भारषिव ने भारतवर्ष में बहुत से शिवालयों का निर्माण कराया जिन्हें बाद में वैष्णवों ने अपना बना लिया या यों कहें कि बलात कब्जा कर भारषिवों के नामपट्ट हटाकर अपने नाम पट्ट लगवा लिए तथा अपने उदर पोषण का जरिया बना लिया।
          बहराइच के सोमनाथ मन्दिर का निर्माण भी संभवतः भगवान वीरसेन भारशिव ने ही कराया था। श्री मनीष मलहोत्रा का लेख बहराइच में सोमनाथ का दूसरा मन्दिर जो कि दैनिक जागरण-लखनऊ संस्करण 13 जून 1998 में छपा था एवं राजभर मार्तण्ड के जुलाई, अगस्त, सितम्बर 1999 ई. अंक में साभार प्रकाशित किया गया था-में जो बहराइच जिला मुख्यालय से 28 किलोमीटर दूर शिवदत्त मार्ग पर लगभग साढ़े तीन किलोमीटर दूर स्थित आत्मदाहपुर -वर्तमान अहमदापुर ग्राम के ठीक सामने सड़क की दूसरी छोर पर एक शिव लिंग भगवान शंकर की मान्यताओं से सम्बंधित प्राप्त मूर्तियों का जो काल निर्धारण किया है वह काल मथुरा नरेश महाराज वीरसेन भारशिव के शासन काल से पूरी तरह मेल खाता है। अतएव, यह मन्दिर महाराज वीरसेन भारशिव का ही निर्माण कराया हुआ था, इसमें शंका की गुंजाइश नहीं है।
         श्री मनीष मलहोत्रा ने दिल्ली के एक संग्रहालय में काफी समय पूर्व औरंगजेब द्वारा लिख्ज्ञै गए आदेश पत्र के देखने की चचा्र्र की है जिसमें औरंगजेब ने निर्देश दिए थे कि दक्षिण के कुछ मन्दिरों के साथ दूसरा सोम नाथ का मन्दिर भी तोड़ दिया जाए, क्योंकि महमूद गजनवी और उसके भान्जे सैयद सालार जैसे पूर्वजों की इच्छाएं अधूरी रह गई थीं। श्री मनीष मलहोत्रा ने लिखा है कि सैयद सालार दूसरे सोमनाथ के मन्दिर को लूटने या तोड़ने को यहां पहुंचता उसके पहले ही भर-राजभर राणा सुहेलदेव ने उसे घाघरा के मैदान में अपनी सेना के साथ बढ़ने से रोक दियज्ञं भयंकर युद्ध हुआ और राजभर राणा सुहेलदेव ने सैयद सालार को घाघरा के मैदान में मार गिराया। श्री मनीष मलहोत्रा ने यह भी लिखा है कि उससे पहले ही दूसरे सोमनाथ का मन्दिर आराघकों द्वारा स्वयं नष्ट किया जा चुका था।
         मैं यहां स्पष्ट करना चाहता हूं कि यदि दूसरे सोमनाथ का मन्दिर आराधकों द्वारा सन् 1033 ई. में स्वयं नष्ट किया जा चुका था तब औरंगजेब जो कि सैयद सालार से कई सदियों बाद पैदा हुआ, उसे दूसरे सोमनाथ के मन्दिर को तोड़ने का आदेश क्यों देना पड़ा ? सत्य तो यह है कि जब सैयद सालार दूसरे सोमनाथ के मन्दिर को लूटने अथवा तोड़ने को अपनी सेना के साथ बढ़ा और राजभर राजा राणा सुहेलदेव को इसकी भनक लगी तब उन्होंने सैयद सालार से युद्ध किया और उसका बध कर दिया। इसके पूर्व दूसरे सोमनाथ मंदिर के आराधकों ने यहां की मूर्तियां एवं अकूत धन जहां का तहां छिपा दिया। राजभर राजा राणा सुहेलदेव की बहिन का अपहरण भी सैयद सालार ने कर लिया था अतएव राजभर नरेश ने सैयद सालार मसूद गाजी का बध किया और दूसरे सोमनाथ की रक्षा की तथा बहिन अम्बे को मुुक्त कराया उस काल खण्ड में जहां एक ओर अनेक भारतीय शासकों ने विदेशी लुटेरों की मदद की वहीं दूसरी ओर भारतीय सभ्यता एवं संस्कृति का ऐसा रखवाला भी मौजूद था जिसने सैयद सालार सहित उसकी सत्तर हजार फौज को मौत के घाट उतार दिया। उसी श्रावस्ती सम्राट भारशिव दिवाकर राष्ट्रवीर सुहेलदेव राजभर के द्वारा एक विदेशी लुटेरे से लुटने एवं टूटने से बचाया गया बहराइच का दूसरा सोमनाथ मन्दिर अैारंगजेब के आदेष पर ढहा दिया गया और औरंगजेब के समय के भारतीय सभ्यता और संस्कृति के रक्षक कई महान येाद्धा जिनका गुण गान करते इतिहास अघाता नहीं चुपचाप देखते रहे।              
  (10)    क्या जाबालि ऋषि भारषिव थे ?
      लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
  (यह लेख राजभर मार्तण्ड मासिक के मई,जून,जुलाई 2005 के अंक में छप चुका है।)
     विभिन्न ग्रन्थों का अध्ययन करते समय मुझे यह तथ्य ज्ञात हुआ कि  सिहोरा से पूर्व दक्षिण दिशा-आग्नेय की ओर राजा हिरनाकुश का राज्य था। कुण्डम राजा हिरनाकुश की राजधानी थी। हिरनाकुश बध के उपरान्त कोधित नरसिंह ने सिहोरा के पूर्व-वर्तमान नरसिंह मन्दिर में विश्राम किया था। यहां से मैहर प्रस्थान किया था,जहां शारदा देवी ने उनके क्रोध को शान्त किया था। यह भी कहा है कि कुण्डम से प्रवाहित नदी हिरन का नाम भी हिरनाकुश के नाम पर पड़ा है। सिहोरा से पश्चिम हिरनाकुश के भाई हिरणाक्ष का राज्य था जिसे विष्णु बाराह ने मारा था। मझौली स्थित विष्णु बाराह का मन्दिर इसी तथ्य की पुष्टि करता है।
     भेड़ाघाट विकास प्राधिकरण के अध्यक्ष श्री राजकुमार गुप्ता ने अपने एक लेख में यह उल्लेख किया है कि भेड़ाघाट स्थित चतुर्मुख शिव लिंग सम्राट वीरसेन भारशिव द्वारा प्राण प्रतिष्ठित कराया गया था। इससे यह स्पष्ट है कि जबलपुर भू-भाग पर भी भारशिवों का राज्य था। मुझे लगता है कि प्रसिद्ध भेड़ाघाट भी भार-घाट या भारषिव-घाट का अपभ्रन्श है। बामन पुराण का अध्ययन करते समय जाबालि मोचन प्रसंग में मुझे हिरण्यवती नदी का उल्लेख मिला-ः दम्यन्त्यपि वेगेन हिरण्यवत्या अऽपवाहिता नीता देशं महापुण्य कोसलं साधुभिर्यत। हिरन नदी सिहोरा जबलपुर मार्ग पर प्रवाहित है। यह पौराणिक नदी है। इस नदी में जाबालि ऋषि स्नान करते थे-
   इत्येवमुक्तः पिताऽह बालः पन्चाव्द्देष्यकः।
   विचरामि मही पृष्ठं स्नातुं हिरण्यवतीम्।।  
     मैं बालक जो कि पांच वर्ष का हूं हिरण्यवती में स्नान करने को गमन करता हुआ मही पृष्ठ पर विचरण करता हूं। हम आप जानते हैं कि जबलपुर का नाम महर्षि जाबालि के नाम पर पड़ा है। जबलपुर जाबालिपुरम का अपभ्रन्श है। बामन पुराण में लिखा है कि -
 शाखायाः कृत्तया चा सौ भारवाही तपोधनः।
 शरसोपानमार्गेण अवतीर्णोऽथपादपात्।
तस्मिंस्तथा स्वेतनये ऋतध्वजततो नरेन्द्रस्य सुतेन धन्विता।
   जाबालिनाभारवहेन संयुतः समाजगामाथनदींसूर्यजाम।
        उक्त श्लोको में भारवाही तपोधनः एवं जाबालिनाभारवहेन भारवह का उल्लेख यद्यपि भारवाहक के अर्थ में हुआ है किन्तु ऐसा आभास होता है कि ये शब्द शिवलिंगोद्वहन भारशिवनाग से अवश्य सम्बंध रखते हैं। जाबालि ऋषि के नाम पर जबलपुर नगर का नाम, जाबालि के साथ जाबालिना भारवह का उल्लेख से लगता है कि पुराणकार ने जाबालि ऋषि के वंश भारशिव का अप्रत्यक्ष रूप से उल्लेख कर दिया है। भारघाट का अपभ्रन्श भेड़ा घाट है, यहां भारशिव नरेश वीरसेन नाग जिनका पौराणिक नाम वीरभद्र है के द्वारा चतुर्मुख शिवलिंग की स्थापना जबलपुर जिले में राजभरों की बहुसंख्या, इस जाति के नाम पर स्थित अनेक ग्राम आदि हमारे वण्र्य विषय की पुष्टि करते हैं।    
 (11)        पुराणों में छिपे रहस्य
    लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’ आनन्द भवन, सिहोरा,जबलपुर,म,प्र,-483225
 (यह लेख राजभर मार्तण्ड मासिक के मई-जून-जुलाई 2005 ई. के अंक में छप चुका है।)
               शिव स्वरूप महाराज वीरसेन भारशिव द्वारा दक्ष यज्ञ विध्वंश के बाद भारशिवों के नष्ट करने या शैवों के विनाश की योजना कथित देव वर्ग द्वारा प्रारम्भ की गई। जैसा कि मैंने पहले भी अपने किसी लेख में लिखा है कि देव-दानव अथवा सुर-असुर के युद्ध सत्य एवं असत्य के बीच होने वाले युद्ध नहीं हैं, अपितु सामन्तवादी/समाजवादी, वैष्णवपंथी शैवपंथी, वर्ण व्यवस्थावादी-समता मूलक समाजवादी विचारधाराओं के मध्य टकराहट के परिणाम हैं। वैष्णवों ने दानवों-असुरों की जो वेश-भूषा एवं उनकी प्रकृति तथा प्रवृत्ति का जो चित्रण ग्रन्थों में किया है वह कपोल कल्पित है एवं उचित नहीं है। यह सब वर्ग विश्ेाष का पक्ष लेकर लिखा गया है। समुद्र मन्थन के समय शिव को हलाहल पिलाकर समाप्त करने की योजना और दक्ष द्वारा शिव  को यज्ञ में न बुलाना देवांे की ओछी मानसिकता को प्रकट करता है। सुरों की कायरता एवं असुरों की वीरता के बखान से ग्रन्थ भरे पड़े हैं। वीरभद्र द्वारा दक्ष यज्ञ का विध्वंश देवों को नागवार गुजरा। वीर भद्र को शिव ने प्रकट किया था। वे शिव स्वरूप ही थे। वे भारशिव थे अर्थात शिव का स्वरूप अथवा भार ग्रहण करने वाले। भारशिवों की शक्ति अपार थी। चूंकि वे गणतंत्रीय व्यवस्था एवं समतामूलक समाज के पोषक एवं पक्षधर थे अतएव वैष्णव व्यवस्था के अनुयायियों ने उनके कत्ले आम की गुप्त योजना रची। भारत में मुसलमान शासकों ने तो खुले आम भरों के कत्ले आम के फतवे जारी किए थे किन्तु वैष्णववादी सामन्तों में इतना साहस नहीं था कि वे खुले आम भारशिवों को नेस्तनाबूंद करने की घोषणा कर सकें। इसके लिए इन्होंने ऐसे शब्द-अर्थ अलंकारों का उपयोग किया जिससे उनकी विचारधारा वाले लोग यह समझ सकें कि भारशिवों अथवा भर-भार जाति का विनाश करना है। समतामूलक समाज की स्थापना के लिए भारशिवों को बहुत अधिक कीमत चुकानी पड़ी है। यदि धरती के गर्भ में इनके ष्षासन काल के ताम्रपत्र अथवा यत्र तत्र कुछ शिलालेख न मिलते तो यह कोई न जान पाता कि इस धरा में भारशिव नामक कोई महान वैभवशाली एवं वीर जाति भी थी। प्राचीन ग्रन्थों/पुराणों के लेखकों ने इस जाति का उल्लेख करने से परहेज किया। उल्लेख किया भी तो शब्दालंकारों, अर्थालंकारों का सहारा लेकर। ऐसी स्थिति में जब पुराणकारों ने कुछ स्पष्ट न लिखा हो, गोपनीयता बरती हो, उस गोपनीयता की चीरफाड़-आपरेशन आवश्यक है।          
  पद्म पुराणकार लिखते हैं-ःभूभारस्य विनाशाय प्रादुर्भूतो रमापतिः
अर्थात धरा के भार को विनाश करने के लिए रमापति (विष्णु) प्रादुर्भूत हुए। धरा भार धारण किए हैं शेष, शेष पर शासन करते हैं विष्णु,, शेष को धारण करते हैं शिव, उसी शेष के वंश का विनाश करने के लिए रमापति का अवतार होता है। वासुकी के नाम पर पृथ्वी का नाम वसुन्धरा पड़ा-उसी वासुकी के वंशजों का नाश करने को रमापति अवतार लेते हैं। धरणीधर का अर्थ है धरणी को धारण करने वाला-धरणी वासियों का भार उठाने वाला अथवा पालने वाला,वही श्ेाष या नाग इतनी कटुता के शिकार ? श्ेाष का विष्णु की श्ैोया के रूप में उल्लेख करना स्पष्ट है कि वैष्णव कभी भी नागों का उन्नयन नहीं चाहते थे। शिव द्वारा नाग को गले का हार बनाने से स्पष्ट है कि शिव नाग जाति से अत्यंत प्यार करे थे।
                   ब््राह्मवैवर्त पुराण में भारावतरणं केन प्राार्थितो गोश्चकार सः भाराक्रान्ता वसुन्धरा, पीड़ितायेन भारेण, भारहरणं कुरु, कैसांमभारमशक्ता, येसांभारैःपीडिताहं, अशक्ता भार वाहने, कालेन भारहरणं करिष्यति मदीश्वरः, भारहारं करिष्यामि वसुधायाश्च निश्चितम् आदि लेखों के मर्म को समझना जरूरी हो गया है। आखिर पृथ्वी का भार दूर करने की ही बात क्यांे ?भारशब्द के स्थान पर कष्ट या दुख आदि शब्दों का पुराणकारों द्वारा उल्लेख क्यांे नहीं ? केवल पद्म पुराण या ब्रह्मवैवर्त पुराण की ही बात नहीं है अन्य पुराणों में भी भार हटाने का उल्लेख है। पुराणेंा में वर्णित भार हरणं, भारहारं, आदि का गोपनीय अर्थ पृथ्वी से भार जाति का समूल विनाश करना ही है। भार अथवा भर जाति के साथ आदि काल से यही होता रहा है किन्तु इस जाति का अस्तित्व अभी भी बरकरार है।
                  भारशिव नाग जाति का अस्तित्व आज भी बरकरार तो है किन्तु प्राचीन काल का वह स्वाभिमान इसमें देखने को नहीं मिल रहा। आज भी ये वैष्णवों द्वारा रौंदे जा रहे हैं किन्तु प्रतिकार की क्षमता इनमें न के बराबर है। इनकी मानसिकता इतनी सड़ गल चुकी है कि ये उन्हीं आततायियों की सेवा करते हैं, जिनने पहले इनको नेस्तनाबूंद किया था और आज भी कर रहे हैं। नागों की उस फुफकार का प्रयोग जिससे सुर भयभीत होते हैं ये अपने स्वजनों के विनाश के लिए ही कर रहे हैं।      
 (12)         भर्राषाही एक चिन्तन
     लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
  (यह लेख राजभर-मार्तण्ड मासिक के मई-जून-जुलाई 2005 के  अंक में छप चुका है।)
               भर्राषाही षब्द आज जिस अर्थ में प्रयोग होता है उसे सभी जानते हैं। अगर कहीं किसी भी समाज-समूह अथवा कार्य में अव्यवस्था हो, सब अपने अपने मन की करते हों, व्यवस्था का अनुपालन न करते हों, सब अपने अपने मन के राजा हों, ऐसी स्थिति को प्रायः भर्राषाही कहते हैं। भारतीय संस्कृति में पहले राम राज्य अच्छे अर्थ में प्रयोग होता था किन्तु आजकल रामराज्य का प्रयोग भी भर्राषाही के समानार्थक होने लगाा है। समय के साथ साथ अच्छे अथों वाले नामों-षब्दों का अर्थ भी एकदम बदल गया है। जब हम किसी को चुगलखोर कहना चाहते हैं तो उसे नारद मुनि का अवतार कहते हैं। बैल को धर्म का रूप या अवतार माना जाता है किन्तु जब हम किसी को मूर्ख कहना चाहते हैं तो कहते हैं कि पूरा बैल है -इत्यादि। भर्राषाही एवं रामराज्य के साथ भी यही हुआ है।
               भर्राषाही षब्द भर-षाही, भार-षाही अथवा भारषिव-षाही का अपभ्रन्ष है। भर-राजषाही ,भार राज-षाही, अथवा भारषिव राजषाही का अर्थ है-सुव्यवस्थित अथवा ंसु-व्यवस्था से पूर्ण राज्य षासन।भारषिवों अथवा भरों का राज्य षासन प्रसिद्ध है।गणतंत्र पणाली भारषिवों की ही देन है्र।इनके षासन में समतामूलक समाज के लिए कार्य किए गए। अच्छे षासन के लिए भारतीय इतिहास में मात्र दो षब्दों का प्रचलन हुआ। एक रामराज्य एवं दूसरा भारषिव राजषाही अथवा भर राजषाही। लेकिन कालान्तर में इन दोनों व्यवस्थाओं का अर्थ विलोम हो गया।
               भरों को सदैव हेय दृष्टि से देखा गया जिसके कारण भर्राषाही षब्द का कुव्यवस्था के लिए सहज प्रचलन हुआ। वीरसेन भारषिव एवं सुहेलदेव राय भर के षासन काल निर्विवाद रूप से उल्लेखनीय रहे हैं किन्तु इन्हें अनदेखा किया गया और पूरे समाज को गाली के तौर पर भर्राषाही षब्द का प्रयोग हुआ। कु-व्यवस्था के लिए हम लोग स्वयं भर्राषाही षब्द का प्रयोग करते हैं किन्तु कभी भी इस षब्द के मर्म को समझने की चेष्टा नहीं करते। भारषिव अथवा भर षासक प्रायःषैव रहे हैं। इतिहास साक्षी है कि कोई भी षैव सम्राट चाहे वे कितने भी प्रतापी रहे हों वैष्णवों ने उनके षासन को कभी अच्छा नहीं माना। भर्राषाही षब्द वैष्णवों की संकुचित मानसिकता की उपज हैं।                
(13) देवताओं ने पुराण रचने वालों को धूर्त क्यो कहा है?
       लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर, ‘‘राजगुरु’’
   (यह लेख राजभर मार्तण्ड मासिक के नव.2005 अंक में छप चुका है।)
             भारतीय धार्मिक वाग्ड.मय बहुत उलझा हुआ है। इसकी हालत भानुमती के पिटारे जैसी है। रचनाकारों के विचारों में असमानता अथवा मत वैभिन्य पाया जाता हैं जिसने भी अपने आराध्य के नाम पर ग्रन्थ लिखा अन्य के आराध्यों को तुच्छ समझा। भारतीय जनता आजीवन इसी ऊहापोह में अपना जीवन गुजार देती है कि वह इनमें से किसे चुने। इतना धार्मिक वांग्ड.मय है कि जीवन भर पढ़ते रहिए जीवन समाप्त हो जायेगा किन्तु धार्मिक वांग्ड.मय नहीं।जब आप सम्पूर्ण धार्मिक वांग्ड.मय पढ़ ही नहीं पायेंगे तब अध्ययन मनन करने के लिए आपके पास समय ही नहीं बचेगा। रचनाकारों ने अठारह महापुराण, अठारह पुराण, अठारह उप पुराण आदि न जाने कितने पुराण रच डाले हैं। पुराणों में एक ही कथा के वर्णन में भी एक रुपता नहीं है। यदि पण्डितों से पूछा जाता है तो साधारण सा घिसा पिटा उत्तर मिलता है कि अलग अलग मन्वंतरों की कथाएं हैं।भारतीय जनमानस को धूर्त विधा का षिकार बनाया गया। कथित उच्चवर्ग ने पिछड़ों दलितों को सदैव अपनी धूर्त विधा के मकड़जाल में फंसाए रखा।उच्चवर्ग निम्न वर्ग पर इस प्रकार हावी हुआ कि अपने पैर छूने के भी पैसे वसूलने लगा। उनकी कौम की संख्या प्रभावित न हो इसके लिए ब्रह्म हत्या पाप है जैसी बातों को भी ऐसे प्रचारित किया ताकि घोर पाप करने के बाद भी ब्राह्मण के प्राण सुरक्षित रहें। इतिहास साक्षी है सवणों ने कुलधर्म, जाति धर्म को जितना महत्व दिया उतना ग्राम धर्म,देष धर्म आदि को नहीं। चाणक्य ने तो यहां तक लिखा है कि अपने पा्रणों की रक्षा के लिए देष का भी त्याग कर देना चाहिए।
              निर्गुण निराकार ईष्वर षायद इनकी ंसुखमय जिन्दगी के लिए बाधक था अथवा पग बिनु चले सुने बिनु काना, कर बिनु करम करे बिधि नाना, वाले निर्गुण ईष की उपासना की इनमें क्षमता नहीं थी। अतएव कई सगुण साकार भगवान कल्पित कर अपनी रोजी रोटी पक्की बनाई। पुराणकारों ने पूरे हिन्दू समाज के मस्तिष्क में पाखण्ड के बूते ब्राह्मणवाद का पिछलग्गू बने रहने के स्थायी मन्त्र फंूके। उनके पाखण्ड की पोल न खुले इसलिए उन्होंने सर्वसाधारण को संस्कृत भाशा के ज्ञान से दूर रखा। इतना ही नहीं अपितु वेद के स्वर यदि षूद्र के कानों में पड़ जाएं तो गर्म षीषा (षूद्रों के) कान में डालने का प्रावधान रखा। वेदों कोे ईष्वरीय कहा गयाहै। फिर उस ज्ञान को सुन लेने पर षूद्रों के साथ ऐसा अत्याचार क्यो ? कोई विद्रोह न करे इसके लिए -हरि हर निन्दा सुनहिं जे काना, पाप लगे गो घात समाना, कह कर डराया गया। श्रृद्धा विष्वास की घूंटी पिलाई गई।    
          भारतीय समाज को इतने अवतारों से लाद दिया गया कि वह अवतारों के भंवर जाल में फंसकर सत्य की खोज के लिए समय भी न निकाल पाए।षायद इसी से खिन्न होकर इन्द्र आदि देवताओं ने मां भगवती की स्तुति करते हुए कहा है-प्राप्ते कलांवहह दुष्टतरे च काले, न त्वां भजति मनुजा ननु वंचितास्ते। धूर्तैः पुराण चतुरै हरिषंकराणां, सेवा पराष्च विहितास्तव निर्मितानाम्।। (देवी भागवत पुराण-देवताओं द्वारा जगदम्बा की स्तुति ष्लोक 12) (हे! माता! इस दुष्टतर कलि कला में भी जीव आपका भजन नहीं करते। इसका कारण यही प्रतीत होता है कि पुराण रचने वाले धूर्तों ने ही ब्रह्मा, विष्णु, षिव की पूजा में लगाकर उन्हें भ्रम में डाल दिया है।)  
             उक्त ष्लोक में स्पष्ट है कि विभिन्न भगवानों के प्रति जनमानस को श्रृद्धा विष्वास की घूटी पिलाकर फंसाने का कार्य धूर्त-ठग पुराण रचने वालों ने ही किया है। आज आवष्यकता है भारतीय धार्मिक वांग्ड.मय को समझकर पाखण्डवाद से बचने की एवं धर्म के जो मूल तत्व सद्गुण, सद्विचार, सदाचार, सत्कर्म को अपना कर सच्चे मन से परिपालन की। आप जिसे धर्म कहते हैं एवं पालन करते हैं उसे जाचें, परखें कि क्या उसमें धर्म के वे सब तत्व मौजूद हैं जो सब प्राणियों को जीने का हक देते हों, और मानव को पूर्णता प्रदान करने की क्षमता रखते हों।
(14)      वेदों में भर-षब्द-विहंगावलोकन
     लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर  ‘‘राजगुरु ”
 (यह लेख राजभर मार्तण्ड के दिसम्बर 2005 अंक में छप चुका   है।)  
           सामवेद की ऋचाएं पढ़ते समय मेरा ध्यान-अभिष्तस्तदा भरेन्द्र ज्यायः कनीयसः। पुरुवसुर्हि मघवन वभूविथ भरे भरे च हव्यःं। 7।(3-8) ऋचा की ओर गया, जिसमें कहा गया है-हे! महान इन्द्र!उस याचित धन को सब ओर से लाकर दो। तुम बहुतों द्वारा याचना करने योग्य तथा संग्रामों में बुलाए जाने योग्य हो। इस ऋचा में भरेन्द्र षब्द ध्यान देने योग्य है जिसमें भर का अर्थ महान अथवा पूर्ण है। चूंकि ऋगवेद में भरत (भर) जाति का उल्लेख पाया जाता है और वेदों में बार बार भर, भरत षब्द का प्रयोग किया गया है इससे लगता है कि भर षब्द की बहुत अहमियत थी और उस भर जाति का जिसका उल्लेख करना पुराणकारों ने उचित नहीं समझा वैदिक काल में आदर योग्य थ्ी।षब्दों की रचना एवं उनके अर्थ का संधारण यों ही नहीं हो जाता। यदि भर जाति इतनी गई गुजरी होती तो वेदों में इस षब्द का महान अथवा पूर्ण के अर्थ में प्रयोग न होता।
              ऋग्वेद हो या यजुर्वेद अथवा सामवेद भर षब्द का बार बार प्रयोग हुआ है। सामवेद में-अग्ने विवस्वदा भरास्मभ्यमंतये महे (10-1-1),नमो भरन्ति एमसि (4-1-2), आनो अग्ने रयिं भर सत्रासाहं वरेण्यम (2-14-4), आदि अनेक ऋचाएं एवं यजुर्वेद में-रास्वेयत्सोमाभूयेा भर देवो नः वसोर्दातावस्वदात ्(4-16),पिपृतांनोभरीनभिः (8-3),अग्निभरन्तमस्मयुम ्(11-13), अदब्धव्रतप्रमतिर्वषिठः सहस्त्रम्भरःषुचि-जिह्वोैऽअग्निः(11-36), आदि अनेक ऋचाएं हैं जिनमें भर षब्द का प्रयोग पूर्ण, महान, सफल, उपस्थित, प्रेरणा, प्रदाता, दया, दाता, पालक आदि के बारे में हुआ है। भर षब्द का प्रयोग वेदों में वेदों में अच्छे अर्थों में हुआ है।        
                व्ेादों की ऋचाओं को गंभीरता से लिया जाए तो निष्चित रूप से यह कहा जा सकता है कि भर षब्द का वैदिक ऋचाओं में जिन अथों में प्रयोग हुआ है भर जाति उन्हीं अर्थों के अनुरूप पूर्णता को प्राप्त कर चुकी थी। भर जाति महान थी, सफल थी, दाता थी, पालक थी, दूसरों के लिए प्रेरणा का स्रोत थी, दयालु थी। चूंकि भर जाति नाग वंष से सम्बंधित है इसीलिए सभी महान गुणेंा को धारण करने ंएवं पृथ्वीवासियों का यथार्थ पालक होने के कारण इस धारणा ने जन्म लिया कि ष्ेाषनाग (महाराजा षेष) धरती को (भूमण्डल को) अपने सिर पर धारण किए हुए हैं अथवा उठाए हुए हैं। जिस प्रकार ब्रह्म को यथार्थ रूप में जान लेने वाले को ब्राह्मण कहा गया है उसी प्रकार प्रजा पालन अथवा मानवीय सम्पूर्ण सद्गुणों से पूर्ण जाति को भर कहा गया है।सर्वगुण सम्पन्न पूर्णता का प्रतीक भर षब्द जो कि गुणवाचक है जाति वाचक हुआ है। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भर जाति के सम्पूर्ण सद्गुणों के कारण ही इसकी भूरि भूरि प्रषंसा की थी। वैदिक काल की महान भर जाति पुराण रचनाकाल तक आते आते ब्राह्मणवाद का षिकार हो गई। वैदिक ऋषियों ने जिस भर षब्द को सर्वगुण सम्पन्न अर्थ में ग्रहण किया वहीं पुराणकारों ने इसे बर्बर षब्द के समानार्थी प्रयोग का प्रयास किया एवं अत्यंत सभ्य एवं सुसंस्कृत जाति की सभ्यता एवं संस्कृति का विनाष कर उसेे वनवासी एवं अछूत बना दिया।
  भरों  ने भरण किया संसार का,
  भर प्रतीक थे लोक व्यवहार का।
  सम समाज की संरचना के पोषक,
  हो गए  षिकार  अत्याचार का ।।
  जिन्हंे षरण दिया उनने पाकर मौका।
  भरों  की पीठ पर ही  खंजर  भोंका।।
 (15)   राक्षस यज्ञ विध्वंष क्यों करते थे ?
   लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु ’’
    (यह लेख राजभर मार्तण्ड मासिक के दिसम्बर 2005 के अंक में छप चुका है।)    
               भारतीय संस्कृति को उदार एवं सर्व हित की सोच वाली संस्कृति कहा जाता है।इसके लिए वेद की ऋचाओं के उदाहरण दिए जाते हैं। माना कि वेद सबकी समझ से परे हैं एवं वेदों को समझने के लिए गहन अध्ययन की आवष्यकता है किन्तु वेदों में धर्म के तत्वों का पालन तो होना ही चाहिए।अहिन्सा, क्षमा, सहनषीलता, अस्तेय, अकार्पण्य आदि का पालन न हो तो फिर धर्म का मर्म ही गड़बड़ा जायेगा।
               राक्षसों को भारतीय वांग्ड़मय में हेय दृष्टि से देखा गया है।राक्षस जाति के साथ देवों द्वारा किया गया व्यवहार उस जाति को सदैव सत्ताच्युत रखना ही था।देव एवं दैत्य दोनों एक ही पिता की सन्तान थे। मां दो थीं । देवों की मां थीं अदिति और दैत्यों की मां थीं दिति। दोनों सगी बहिनें थीं। अतएव ये अलग जातियां नहीं बल्कि सगे भाई थे। देव अकेले ही सत्ता सुख का भेाग करना चाहते थे। अपनी विमाता से जन्मे सगे भाई दैत्यों-राक्षसों को किसी भी स्थिति में इसमें भागीदार नहीं बनाना चाहते थे। मूल लड़ाई थी अधिकार प्राप्त करने की। लेकिन भारतीय जन मानस में यह बात कूट कूट कर भर दी गई कि राक्षस जाति उपद्रवी थी।लिखा गया कि जहां भी यज्ञ होते थे-यह जाति वहां उपद्रव कर यज्ञ विध्वंष कर देती थी। कभी जन मानस को यह बताने की जरूरत नहीं समझी गई कि आखिर राक्षस यज्ञ विध्वंष क्यांे करते थे ? बात साधारण सी है-यदि किसी व्यक्ति या व्यक्ति समूह-जाति विष्ेाष के विनाष के लिए पूजा पाठ किया जायेगा तो क्या वह व्यक्ति, व्यक्ति समूह या जाति अपने ही विनाष के लिए किए जाने वाले उस कार्य में सहयोग देगी ?कदापि नहीं।      
                लाली मेरे लाल की जित देखो तित लाल, लाली।देखन मैं गई, मैं भी हो गई लाल।। कबीरदास ने लाल की लाली देखी और उस लाली से सराबोर हो गए। उनका सम्पूर्ण आचरण लाली मय हो गया। वेदज्ञ ऋषि महर्षियों के साथ ऐसा नहीं हुआ।ऋषि महर्षियों ने लाल की लाली तो देखी किन्तु उस लाली से सराबोर होने से अछूते रहे। भले ही हम उनके लालमय होने क कुछ उदाहरण खींचतान कर ढूंढ़ लें किन्तु सच तो यही है कि -सर्वे भवन्तु सुखिनः, सर्वे सन्तु निरामयः। सर्वे भद्राणि पष्यन्तु मा कष्चन दुखःभाग्भवेत।।-की उद्घोषणा करने वाले महर्षियों ने जब भी यज्ञ किया कभी भी यज्ञ में इस प्रकार की ऋचा का प्रयोग नहीं किया कि हे!ईष्वर, हमारे षत्रुओं को सद्बुद्धि दे अथवा हमारे षत्रुओं का भी कल्याण करें?महात्मा कबीर ने तो-निन्दक नियरे राखिए, आंगन कुटी छवाय। बिन पानी साबुन बिना निर्मल करे सुभाय।।-डंके की चोट पर कहा किन्तु वेदज्ञ ऋषियों में ऐसा साहस नहीं था। वे ता ेषत्रु अथवा अलोचक के समूल विनाष के पक्षधर रहे। महात्मा बुद्ध ने कहा है कि -न हि वेरेन वेरानि सम्मन्तीध कुदाचनं। अवेरेन च सम्मन्ति एस धम्मो सनन्तनो।। अर्थात इस संसार में बैर से कभी बैर षान्त नहीं होता है। अबैर से ही बैर षान्त होता है। यही सनातन धर्म है। महात्मा बुद्ध ने बदले की भावना के त्याग करने की बात कही है किन्तु देवताओं, महर्षियों ने बदले की भावना को बढ़ावा दिया है।                                                                                                                    
                   राक्षस यज्ञ विध्वंष करते थे इससे कथित धर्म पे्रमियों को बहुत पीड़ा होती है, किन्तु वेद की ऋचाएं क्या कहती हैं यदि उस मर्म को समझा जाए तो कौन ऐसा राक्षस होगा जो उसकी जाति के विनाष की कामना करने वाले यज्ञों का विध्वंष नहीं करेगा?-सबसे दुखद जाति अपमाना, कौन व्यक्ति है जो अपनी जाति का अपमान सहेगा ? वेदों में ऐसी ऋचाएं भरी पड़ी है जिनमें राक्षस जाति या राक्षस के विनाष के लिए आहुति दी गई हैं।यहां मैं यजुर्वेद एवं सामवेद की कुछ ऋचाएं उदाहरणार्थ प्रस्तुत कर रहा हूं-द्यौस्ते पृष्ठं पृथ्वी सघस्थमान्मान्तरिक्षन्समुद्रो योनिः। विख्याय चक्षुषा त्वममि तिष्ठ पृतन्यतः।(यजुर्वेद पू.।अ.।।ऋ.20) (हे!अष्व,स्वर्ग तुम्हारी पीठ है।पृथ्वी तुम्हारे पांव हैं। अंतरिक्ष तुम्हारी आत्मा है।समुद्र तुम्हारी योनि है। तुम अपने नेत्रों द्वारा मृत्तिका को देखकर रणेच्छुक षत्रु और राक्षसों को मृत्तिका में स्थिर जानकर अपने पैरों से रौंद डालो।) तवभ्रमासऽआषुयापत यन्त्यनु स्पृष घृषताषोषुचानः। त पू न्ंश्यग्नेजुह्न्वा पतंगानसन्दितो विसृज विष्व गुल्काः।। (यजुर्वेदपू.।अ.13ऋ.10) (हे!अग्ने तुम्हारी द्रुतगामी ज्वालाओं द्वारा प्रकाषयुक्त होते हुए तुम संतप्त करने वाले राक्षसों और पिषाचों को भस्म कर डालेा और सुक द्वारा हूयमान तुम अहिंसित रहते हुए अपनी विषम ज्वालाओं को राक्षसों का संहार करने के लिए प्रेरित करो।तब वे राक्षस तुम में प्रविष्ठ होते हुए नाष को प्राप्त हों।) सनादग्ने मृणसि यातुधानान् न त्वां रक्षांसि पृतनासु जिग्युः।अनु दह सहमूरान कयादो मा ते हेत्या मुक्षत दैव्यायाः।। (सामवेद पू. प्र.।खं.8.ऋ.8)(हे! अग्ने तुम सदा से राक्षसों के बाधक रहे हो और राक्षस तुम्हें युद्धों में पराभूत नहीं कर सके। तुम ऐसे मायावी राक्षसेंा को अपने तेज से भस्म करो। यह तुम्हारी ज्वालाओं से बच न सकें।) श्रुष्टयग्ने नवस्य मे स्तोमस्यर्वीर विष्पदे।नि मासिस्तपसा रक्षसो दह।।(सामवेद 10,11-1) (हे!षत्रु नाषक एवं उपासकों के रक्षक अग्ने!मेरे इस अभिनव ष्लोक को सुनकर मायाकारी राक्षसों को अपने महान तेज से भस्म करो।)
          उपरोक्त ऋचाएं मात्र उदाहरण हैं।ऐसी ही ऋचाएं वेदों में भरी पड़ी हैं। राक्षसों के विनाष के लिए यज्ञाहुति हो और राक्षस चुप रहें यह कैसे संभव था। यदि वेद की ऋचाएं यह कहतीं कि राक्षसों को हमारे मतानुकूल होने को प्रेरित करो उन्हें (ऋषियों के अनुसार कथित सद्बुद्धि दो,देवताओं के साथ मिलकर चलने की भावना पैदा करो, उन्हें भी कल्याणकारी बनाओ इत्यादि-और तब राक्षस यज्ञ विध्वंष करते तब अवष्य कहा जा सकता था कि राक्षसों का काम मात्र यज्ञ विध्वंष करना है। राक्षसों -दैत्यों-दानवों का सत्ता में बने रहना देवों को कभी भी मंजूर नहीं रहा। इसका उदाहरण बलि के साथ छल करना है।
          ऐसी बातें लिखने से आप मुझे नास्तिक कह सकते हैं। वेदों को प्रमाण न मानना नास्तिकता कहलाती है। वास्तव में नास्तिक वह है जो ईष्वर पर विष्वास नहीं करता या ईष्वर की सत्ता स्वीकार नहीं करता।मैं तो ईष्वर या परमात्मा की सत्ता को नहीं नकारता। जो भी मैं लिख रहा हूं वेदों से प्रमाण लेकर ही लिख रहा हूं। ईष्वर ने अच्छा बुरा सब रचा है फिर इसकी रचना से एलर्जी क्यों? किन्तु महषियों देवों को राक्षसों से घनघोर एलर्जी ? यह तो धर्म की अहिन्सा, क्षमा, सर्वहित की भावना से बिलकुल विपरीत है।
 (16)                 भार-भूतेष              
       लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
 (यह लेख राजभर मार्तण्ड मासिक के जनवरी. फरवरी 2006 अंक में छप चुका है।)
           सर हेनरी इलियट ने हिन्दू ट्राईब्स एण्ड काष्ट ग्रन्थ के पृष्ठ 367 में लिखा है- आष्चर्य के साथ लिखना पड़ता है कि हिन्दू पुराणों में भर जाति का कोई जिक्र नहीं है। केवल ब्रह्म पुराण में जयध्वज के वंषजों में भरताज षब्द का वर्णन है। सर हेनरी इलियट ने जब यह लिखा होगा तब तक संभवतः भारषिव षब्द प्रकाष में नहीं आया होगा अथवा पुराणों में प्रयुक्त भर षब्द की गंभीरता की ओर उनका ध्यान नहीं गया होगा।  
          आज जब हम यह जान गए हैं कि भर एवं भार षिव एक ही हैं तब यह कहना उचित होगा कि पुराणों में इस जाति का किसी न किसी रूप में वर्णन विद्यमान है। वामन पुराण के भुवन कोष वर्णन खण्ड के ष्लोक-
        वेणाष्चैव तुुषाराष्च, बहुधा वाह्यतोदराः।
        आत्रेयाः सभरद्वाजः प्रस्थलाष्च दषेरकः।।
        लम्पकास्ताव कारामाष्चूडिकास्तंगणे सह।
        अलसाष्कालिभद्राष्चकिरातांचजातयः।।          
            अर्थात वेण, तुषार, बहुध, वाह्यतोदर,,आत्रेय, सभरद्वाज, प्रस्थल, दषेरक, लम्पक, तावकाराम, चूडिक ,तंगण, अलस, अलिभद्र, ये सब किरात लोगों की जातियां हैं। इसमें सभरद्वाज ध्यान देने योग्य है। वे राजभर जो भरद्वाज लिखते हैं अथवा महर्षि भरद्वाज के नाम पर अपना गोत्र बताते हैं सभरद्वाज किरात वर्ग से है पर ध्यान दें। तुलसीदास के दोहे हरि तिय लूटत नीच भर अथवा भिल्लन लूटी गोपिका भी किरात वर्ग ही सिद्ध करते हैं । इसी प्रकार वे राजभर जो भार्गव लिखते हैं को पद्मपुराण के (भरतवर्ष में पर्वत और नदी खण्ड के )ष्लोक क्रमांक 46 को पढ़ना वाहिए।जिसमें लिखा है-पुड्राः भार्गाः किरातष्च। पुराणेंा के गहन अध्ययन की आवष्यकता है। कहते हैं हत्यारा और चोर कितने भी चालाक हों कोई न कोई सुराग छोड़ ही जाते हैं। इसी प्रकार पुराणकारों ने अनचाहे ही सही भार जाति के विषय में पुराणों में कोई न कोई संकेत दे दिए हैं।  
       वर्ष 1969-70-71ई. का अधिकांष समय मैंने जबलपुर विष्वविद्यालय के ग्रन्थालय में बहुत से ग्रन्थ पढ़ने में बिताया।अमर बहादुर सिंह अमरेष का राजकलष, अंग्रेज इतिहासकारों के विभिन्न ग्रन्थों का अवलोकन मैंने उसी केन्द्रीय ग्रन्थालय में किया। वहीं पर मैंने गीता प्रेस गोरखपुर का कल्याण षिवपुराण विष्ेाषांक पढ़ा जिसमें अंसभार सन्निवेषित षिव लिंगोद्वहन षिव सुपरितिष्ट समुत्पादित राजवंषानाम् पराक्रम अधिगतः भागीरथी अमल जलः। मुद्र्धाभिषिक्तानां दषाष्वमेधःअवभृथस्नानां भारषिवानागका उल्लेख था। विभिन्न पुराणों के पढ़ते समय मैंने एक पुराण में भारतीर्थ का उल्लेख पढ़ा।भारतीर्थ  रेवा नदी (नर्मदा)के तट पर है।षासकीय सेवा में जाने के बाद भारतीय धार्मिक,ऐतिहासिक वाग्ड.मय पढ़ने की गति स्वभाविक रूप से धीमी पड़ गई। किन्तु अभी एक दिन सूर्य पुराण पढ़ते समय जब मेरी दृष्टि ब्रह्मा नारद संवादादि कथन खण्ड के ष्लोक- रुद ्रकोटया, गयायां, चषालिग्रामेेमरेष्वरे। पुष्करे  भारभूतेष्ेा गोकर्णे मण्डलेष्वरै।29। पर गई तब पुनः मेरा ध्यान भार जाति एवं उसके अधिष्ठाता षिव पर गया। भार तीर्थ रेवा नदी के तट पर बताया गया। रेवा नदी का उद्गम अमरकंटक से हुआ है। इस नदी के तट पर भार जाति के बहुत से गांव आज भी देख्ेा जा सकते हैं। मण्डला,नरसिंहपुर एवं होषंगाबाद जिले के नर्मदा तट पर बसे कइ्र्र गांवों को गिनाया जा सकता है-जहां आज भी भर या भार या भारिया, भरिया जाति के लोग बहुसंख्या में निवास करते हैं। भार जाति का यह समूह नर्मदा तट पर एकत्र होकर षिवपूजन करता था वही स्थान भारतीर्थ के नाम से जाना जाता है।      
           स्ूार्य पुराण में वर्णित भारभूतेष तो स्पष्टतः भार जाति का उल्लेख करता है।भार भूतेष का अर्थ स्पष्ट करें तो भूत का अर्थ प्राणी अथवा जाति है। भारभूतेष का पूर्ण अर्थ भार जाति का ईष्वर षिव है। भारभूतेष षब्द भार जाति एवं षिव का घनिष्ट सम्बंध दर्षाता है।डा. राजेन्द्रप्रसाद बलिया ने अपने एक लेख में लिखा था कि षिव राजभर जाति के थे।यह अतिष्योक्ति नहीं है। यदि हम षिव को अपनी आंखों में इतिहास का चष्मा लगाकर देखें तो यह सब बड़ बोलापन नेहीं बल्कि सत्य है। वाराणसी, कैलास आदि इसी भूमि में आपके सामने हैं जबकि ब्रह्मा के ब्रह्मलोक, विष्णु के वैकुण्ठ, इन्द्र के स्वर्ग का कोई अता पता नहीं है।      
            वामन पुराण में विष्णु एवं वीरभद्र (वीरसेन) के युद्ध का उल्लेख है। वीरभद्र की पूजा आज भी खरवरिया वंषी राजभरों में कुलदेवता के रूप में की जाती है। प्रमाण के रूप में कटनी जिला के ग्राम गनयारी में निवास करने वाले श्री हेतराम राजभर के परिवार का उल्लेख किया जा सकता है। इस राजभर परिवार का बैंक (षाखा)खरवार है और इस परिवार के कुल देवता वीरभद्र हैं। मेरे एक पुत्र श्री कुमुदसिंह का विवाह इसी परिवार में हुआ है।
            वाकाटक नरेषों ने अपने ताम्रपत्रों में भारषिव नागवंष की प्रषंसा करते हुए दषाष्वमेध का उल्लेख किया है। उसी दषाष्वमेध का उल्लेख वामन पुराण में है। भगवान षंकर ने ब्रह्मा का एक सिर काट दिया था। ब्रह्म हत्या से मुक्त होने के लिए षिव ने वाराणसी में दषाष्वमेध का दर्षन किया था-गत्वा सुपुण्यां नगरी सुतीर्था दृष्टवा च लोलं स दषाष्वमेधम्। यदि हम धैर्य पूर्वक पुराणों का अध्ययन करें तो निष्चित रूप से इस जाति के इतिहास के सम्बंध में महत्वपूर्ण तथ्य सामने आयेंगे। षिव को भारेष्वर कहा जाता है। नागवंष अथवा भारषिव नागवंष के राजाओं की क्रमवद्धता पुराणों में खोजकर इतिहास को नया आयाम दिया जा सकता है।
(17)   अजेय महायोद्धा गणेष्वर महाराज वीरभद्र
      लेखक-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
               भारतीय धार्मिक वांग्मय का सूक्ष्म अध्ययन करने के बाद यह ज्ञात होता है कि गणेष्वर वीरभद्र ही एक मात्र ऐसे महा-योद्धा हैं जो कि ब्रह्माण्ड की समस्त महा-षक्तियों को पराजित करने के बाद भी अजेय रहे। गणेष्वर वीरभद्र के समान पराक्रमी इस भू-मण्डल में न कोई हुआ है और न होगा। विष्णु का सुदर्षन चक्र अमोघ अस्त्र कहा जाता है किन्तु उस अस्त्र को भी अपने उदर में ग्रहणकर लेने वाले गणेष्वर वीरभद्र भारषिव वंष के मूल हैं।
              षिवपुराणमें लिखा है-‘‘गणैस्समेतः किलतैर्महात्मा स वीरभद्रो हरवेषभूषणः। सहस्त्रबाहुर्भुजगाधिपाढयेा ययौ रथस्य प्रबलोतिभीकरः।। (अर्थात-वीरभद्र भी षिव जी जैसा वेष धारण किए हुए थे। वे सहस्त्र भुजा वाले ,भुजंग लपेटे हुए, महाप्रबल षत्रुओं को भी भयभीत करने वाले थे ,वे (वीरभद्र) रथारूढ़ होकर चले।) षिवपुराण का यह ष्लोक भारषिवों के नामकरण की उस अवधारणा की पुष्टि करता है जिसमें कहा गया है कि षिव को धारण करने के कारण भारषिव कहा गया। भार का एक अर्थ धारण करना भी होता है। महाराज वीरभद्र का षिवस्वरूप होना षिव-रूप धारण करना भारषिव नाम जाति का उत्पत्ति का कारण है।वाकाटकों के ताम्रपत्र-‘‘अंसभारसन्निवेषित षिवलिंगोद्वहनषिवसुपरितुष्ट समुत्पादित राजवंषानाम्पराक्रम आधिगतःभागीरथीः अमल-जलः मूद्र्धाभिषिक्तानाम् दषाष्वमेधः अवभृथ स्नानाम् भारषिवानाम्’’की पुष्टि भी होती है। (अंस का अर्थ कंधा,अंष का अर्थ रूप और भार का अर्थ धारण करना।) वीरभद्र बाममार्गी देव हैं-जो कि षैव-मार्ग के कट्टर प्रचारक हैं । अछूत कहे जाने वाले लोगों, जंगल में रहने वाले लोगों,अत्यंत गरीब दीन हीन जनों सबको षिव की अर्चना सहज-सुलभ कराने वाले महाराज वीरभद्र ही हैं।सामाजिक ,धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक ,बौद्धिक इन सभी क्ष्ेात्रों में समता मूलक समाज के संवाहक मूलदेव महाराज वीरभद्र ही हैं। सामाजिक ,धार्मिक, राजनैतिक, आर्थिक, बौद्धिक आदि क्ष्ेात्रों में भेदभाव के पोषक विष्णु ने जहां भी अवसर मिला पूंजीवादी, सामन्ती व्यवस्था का ही पोषण किया है, इसके ठीक विपरीत महाराज वीरभद्र सामाजिक समानता के लिये संघर्षरत रहे।
              यहां मैं बामन पुराण एवं षिवपुराण के अंषों का ही उल्लेख करूंगा जिसमें गणेष्वर वीरभद्र के महान पराक्रम का वर्णन किया गया है। दक्ष का यज्ञ षिव-मार्ग(कल्याणकारी मार्ग)पर कुठाराघात की सोची समझी योजना थी। षिव एवं षक्ति ही जगत के जनक एवं जननी हैं। लिंग पूजा का यही आधार है। लिंग एवं योनि अर्थात पिण्डी एवं जिलहरी की पूजा कर हम ंपिता एवं माता के प्रति प्रति-दिन कृतज्ञता व्यक्त करते हैं। लिंग एवं योनि के संयोग के बिना प्राणी जगत का सृजन ही संभव नहीं है। जगत को चलाने के लिए यही सत्य है ,यही सुन्दर है और यही षिव है। लिंग एवं योनि अर्थात जनक-जननी की पूजा में भी विष्णु कोे नंगापन दिखता है इसीलिए उसने लोगों को लिंग पूजा से विमुख करने और अपनी पूजा करवाने के लिए जब तब घोर युद्ध करवाकर जन-समूह का विनाष करवाया। दक्ष यज्ञ में षिव को आमंत्रित न किया जाय इसमें विष्णु की मौन स्वीकृति थी अन्यथा ऐसा हो ही नहीं सकता कि ब्रह्मा एवं विष्णु की बात दक्ष प्रजापति टाल दे ।
               भगवती सती ने षिव का अपमान सहन नहीं किया और यज्ञ में समाहित होकर अपनी देह की आहुति दे दी। इसका अर्थ यह है कि षिव का मार्ग अपनाये बिना यज्ञादि के ढकोसले बेकार हैं।भगवती सती के देह त्यागते ही हजारों षिवगणों ने भी अपनी अपनी देह विसर्जित कर दी। कुछ षिवगणों ने षिव को इसकी सूचना दी और षिव ने वीरभद्र को प्रकट कर दक्ष यज्ञ विध्वंष करने एवं यज्ञ में षामिल होने वाले सभी वर्ग के लोगों को नष्ट करने का आदेष दिया ।
                              वीरभद्र ने यज्ञ स्थल पर पहुंच कर धर्म, सूर्य, अग्नि, वायु, यम, निर्ऋति, वरुण, कुबेर, नौ ग्रह, आठ वसु, इन्द्र, बारह आदित्य, विष्वदेवा, साध्य, सिद्ध, गन्धर्व, पन्नग, गुह्यक, लोकपाल, यक्ष, किंपुरुष, भूत, खग, चक्रवर, सूर्यवंषी, चंद्रवंषी नृपगण आदि,सभी को पराजित किया, ऋषिगण भाग खड़े हुए,।यज्ञ मृग बनकर भागा उसका षीष काटा, पूषा के दांत तोड़े,सरस्वती तथा अदिति की नांक छेद डाली अर्थात सभी वर्ग के लोग पराजित हुए। विष्णु ने सबकी रक्षा के उद्देष्य से वीरभद्र से युद्ध किया। क्ष्ेात्रपाल ने विष्णु के चक्र का ग्रास किया जिसे बाद में विष्णु ने उगलवाया। क्रोध से वषीभूत विष्णु ने चक्र ग्रहणकर वीरभद्र को मारना चाहा जिसे वीरभद्र ने स्तम्भित कर दिया।
       क्रोध रक्तेक्षणः श्रीमान् पुनरुत्थाय स प्रभुः ।
       प्रहर्तु चक्रमुद्यम्य     ह्यतिष्ठतपुरुषर्षभः ।।
       तस्य चक्रं महारौद्रं कालादित्यसमअभम्।
       व्यष्ट यदीनात्मा वीरभद्रष्षिवः प्रभुः ।।(षिवपुराण)
                 यहां वीरभद्रष्षिवः प्रभुः भी ध्यान देने योग्य है। वीरभद्र ने विष्णु को भी निष्चल कर दिया जो कि यज्ञ मंत्र से स्तम्भन मुक्त हुए। विष्णु ने जान लिया की वीरभद्र को पराजित करना संभव नहंी है तब अपने सहयोगियों सहित पलायन कर गये ।वीरभद्र ने दक्ष का सिर काटकर अग्नि कुण्ड में डाल दिया।
                 वीरभद्र की वीरता के लिए षिवपुराण का यह ष्लोक ही पर्याप्त है-‘‘अनायासेना हन्वैतान्वीरभद्रस्ततोग्निना। ज्वालयामास सक्रोधोदीप्ताग्निष्षलभानिव।।’’अर्थात वीरभद्र ने उन सबको उस जलती हुई अग्नि में षलभ के समान भस्म कर डाला।(विस्तृत कथा बामनपुराण एवं षिवपुराण में पढ़ी जा सकती है।) वीरभद्र ने दक्ष आदि सभी को भस्म करके तीनों लोकों को परिपूर्ण करने के लिए घोर अट्टहास किया। उस समय वीरभद्र विजयश्री से आवृत हुए और उनके ऊपर पुष्प वृष्टि हाने लगी।सभी षिवगण प्रसन्न हुए।वीरभद्र ने अंधकार का नाष किया। वीरभद्र के सफल कार्य से परमेष्वर षिव परम सन्तुष्ट हुए और वीरभद्र को गणेष्वर उपाधि से विभूषित किया। भारत देष में विरला ही कोई गांव होगा जहां षिवालय या षिवधाम न हौ यह सब महाराज वीरभद्र के प्रयास का परिणाम है।
             यह कथा बहुत सी षंकाओं को जन्म देती है। विष्णु जिन्हें कि भारतीय जन मानस अन्य वैष्णवी अवतारों का स्रोत मानता है इतने कमजोर क्यों? विष्णु के सुदर्षन चक्र के वार से किसी का बच पाना संभव नहीं फिर वीरभद्र ने कैसे उदरस्थ कर लिया ?और बाद में चक्र एवं विष्णु को भी स्तम्भित कर दिया। वीरभद्र को अजेय मानकर विष्णु ने रणक्ष्ेात्र से पलायन क्यों किया? समाधान आप स्वयं खोजिए।
              अजेय महायोद्धा गणेष्वर महाराज वीरभद्र आज भी खरवार वंषी राजभरों के कुलदेवता हैं। इससे महाराज वीरभद्र और भारषिव वंष (राजभरों ) का अभेदत्व सहज ही समझा जा सकता है।  
(18) राष्ट्रवीर महाराजा सुहेलदेव के महत्व को कम करने की साजिश
     आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘राजगुरु’, सिहोरा, जबलपुर म.प्र. 483225 मो.9424767707
(यह लेख राजभर मार्तण्ड के जन.मार्च 2009 अंक में छप वुका है।)
     राजभर मार्तण्ड के दिसम्बर 2008 के अंक में मैंने ख्वाजा खलील अहमदशाह द्वारा लिखित पुस्तक अलमसऊद के पृष्ठ 14 पर लिखित कुछ पंक्तियों का उल्लेख किया था जिसमें लेखक ने लिखा है कि ‘‘राजा सुहेलदेव हिन्दू कौम का नुमाइन्दा नहीं हो सकता इसलिए सुहेलदेव की यादगार कायम करना या मनाना रार फसाद की बात है।’’ मुस्लिम लेखक महोदय स्पष्ट रूप से राजा सुहेलदेव की किसी भी प्रकार की यादगार के घोर विरोधी हैं, चाहे उनकी मूर्ति स्थापना हो ,उनकी जयंती मनाना हो ,उनके नाम पर किसी प्रकार के संगठन या ट्रस्ट की स्थापना हौ इन सब कामों को वे झगड़े-फसाद की जड़ मानते हैं। मतलब अपने देश, धर्म ,समाज, संस्कृति की रक्षा करने वाले की स्मृति में कुछ भी करना उन्हें झगड़े-फसाद की जड़ लगता है। दूसरी ओर तबाही मचाने वाला सैयद सालार मसूद उन्हें अवतारी पुरुष लगता है। पूर्वाग्रह प्रेरित वाचालता कहां तक उचित है ? इस्लाम पंथ को न मानने वाले (जिन्हें कि इस्लाम में काफिर कहा जाता है।) का खून बहाने वाले को ही तो गाजी के खिताब से नवाजा जाता है। फिर चाहे वह कितना भी आताताई हौ
      यहां मैं उसी लेखक महोदय की पुस्तक अलमयनी के पृष्ठ 14 (संयोगवश इस पुस्तक में भी पृष्ठ 14) पर लिखी कुछ पंक्तियां यहां दे रहा हूं-ः‘‘ राजा सुहेलदेव के बाबर्चीखना के लिए गोस्त की आवश्यकता भी और वह इस प्रकार पूरी की जाती थी कि जनता के पशुओं को पकड़कर राजा के सिपाही ले जाते थे। हजरत सैयद सालार जब शिकार खेलने बहराइच आये ,उस समय बहराइच के किनारे दरिया सरजू बह रही थी और जंगल का सिलसिला था। इब्नबतूता एशियायी इतिहास लेखक जो 1325-1351 में सुल्तान महमूद तुगलक के साथ बहराइच दरगाह शरीफ हाजिर हुआ था उसने इतिहास में लिखा है-फिर हम बांस के जंगल में प्रवेश हुए तो हमने गैंड़ा देखा ,लोगों ने उसे मार डाला।
     यहां के किसान और जनता हजरत सैयद के पास फिरयादी आये और शिकायत की कि राजा के सिपाही हमारी गाय बैल वगैरह जबर्दस्ती पकड़ ले जाते हैं। उस पर हजरत सैयद सालार ने अपने साथियों के साथ मिलकर पशुुओं को छुड़ा दिया। यह नित्य प्रति की घटना थी। मगर राजा सुहेलदेव जिसके राष्ट्र की जड़ ही युद्धाकांक्षी थी ,वह जनता की कठोरता को कैसे सहन कर सकता था। उसने सेना भेजी। मगर उसका सामना हजरत सैयद साहब से हो गया। वह भाग खड़ा हुआ। उसके पश्चात विधिवत युद्ध प्रारम्भ हुआ और युद्ध समय जब सूर्य कुण्ड के समीप आये तो साथियों ने मंत्रणा दिया कि सूर्य कुण्ड की मूर्ति को तोड़ दिया जाय। मगर हजरत सैयद सालार का उत्तर तमाम विद्रोहियों के मुख बन्द करने के लिए सदा के लिए स्वयं हजरत सैयद सालार ने दे दिया। यह कहा कि (पृष्ठ 15 पर) वह मंदिरों को तोड़ने भारतवर्ष नहीं आये और यह अवश्य बतला दिया कि थोड़े समय पश्चात यह स्थान अवश्य उपकारी हो जायेगा।
    अब सुहेलदेव मेमोरियल कमेटी के सदस्यों को अपने असत्य से शर्म खाना चाहिए। एक मुसलमान जिसको कि जरा भी ध्यान कुरान पाक है ,वह समझता है कि खुदा ने कुरान में किसी धर्म के पूज्य स्थान के तोड़ने का आदेश नहीं दिया फिर भला हजरत सैयद साहब कैसे किसी मूर्ति गृह को तोड़ सकते थे। मगर अपनी मानसिक शक्ति से अवश्य बतला दिया कि भविष्य में यह स्थान खुदा के बन्दों के लिए आशाओं का सहारा होगा ,जो आज तक है।’’
     यहां मैं अलमयनी के लेखक ख्वाजा खलील अहमदशाह की एक-एक बात का जवाब प्रस्तुत कर रहा हूं। लेखक ने लिखा है कि राजा सुहेलदेव के बाबर्चीखाना में गोस्त की आवश्यकता थी और इसके लिए राजा के सिपाही जनता के पशुओं (गाय बैल वगैरह) को जबर्दस्ती पकड़ ले जाते थे। लेखक महोदय यह भूल गये कि भारत के मूल धर्मावलम्बी राजाओं में भले ही शिकार करने अथवा मांसाहार का प्रचलन रहा हो किन्तु यहां बैल को धर्म एवं गौ को माता (पृथ्वी) की तरह पूजा जाता रहा है। गाय बैल मूल भारतीय धर्मों के मेरुदण्ड हैं। राजा सुहेलदेव उस भारशिव वंश के थे जो स्वयं अपने को शिव का वाहन (नन्दी) मानते थे या मानते है ऐसी स्थिति में क्या उनके द्वारा ऐसा अक्षम्य अपराध किया जाना संभव था ? कदापि नहीं। श्रावस्ती जैन ,बौद्ध एवं शैव-धर्म की त्रयी रही है। उस पावन भूमि में ऐसा घृणित कार्य हो ही नहीं सकता। जैन धर्म-ग्रन्थों में राजा सुहेलदेव को जैन मतावलम्बी कहा गया है। श्रावस्ती के जैन-मंदिर के मुख्यद्वार के ऊपर आज भी महाराजा सुहेलदेव की अश्वारोही प्रतिमा लगी हुई है। ख्वाजा खलील अहमद यह भूल गये कि जैन धर्म अहिन्सा परमोधर्मः के मूल सिद्धान्त पर चलता है उस जैन मतावलम्बी राजा सुहेलदेव के विषय में ऐसा लिखना मात्र सैयद सालार को महिमा मण्डित करना है। ख्वाजा खलील अहमद साहब यदि राजा सुहेलदेव गाय-बैल का उपयोग अपने बाबर्ची खाने में करते होते तो भारत के धर्म प्रिय अन्य राजा एवं धर्म प्रिय प्रजा ऐसे राजा का कत्ल करा चुकी होती वे सन् 1077 ईस्वी तक जीवित न रह पाते। यदि वे इस प्रकार के कुकृत्य करते होते तो निश्चित रूप से मुसलमान इतिहासकारों द्वारा उनकी प्रशंसा की गई होती निन्दा नहीं। क्योंकि जिस पशु को मूल भारतीय पवित्र मानते हैं उन्हीं पशुओं का बध करके मुसलमान जश्न मनाते हैं। आखिर मूल भारतीय धर्म के विरुद्ध आचरण करना ही तो इस्लाम मतावलम्बियों का सिद्धान्त है। कुर्रान-कुरान की व्युत्पत्ति भी तो आखिर कु-ऐरयान ,कु-आर्यन अर्थात आर्यों के विपरीत मत प्रतिपादक ग्रन्थ की ओर ही संकेत करती है। आर्यों का सम्बंध ईरान से है उसी से आर्य शब्द बना है। आर्यन और कुर्-आर्यन में बहुत कुछ छुपा हुआ है। लेखक ने लिखा है कि जनता की फरियाद पर सैयद सालार ने पशुओं को छुड़ा दिया जबकि युद्ध के समय सैयद सालार ने गायों का झुण्ड आगे करके युद्ध किया ताकि किसी गौ का बध न हो जाये इस भय से राजा सुहेलदेव अपने अस्त्र-शस्त्र का प्रयोग न कर सकें। यदि राजा सुहेलदेव गाय-प्रिय नहीं थे तो फिर सैयद सालार द्वारा गायों के झुण्ड को मुस्लिम सेना क आगे करके युद्ध करने की क्या आवश्यकता थी ? यदि सुहेलदेव गाय को माता नहीं मानते थे तो गायों के झुण्ड को भगाने के लिए सुअर झुण्ड के द्वारा या सैनिकों को काला कम्बल ओढ़ाकर गायों के झुण्ड को बिदकाने की व्यवस्था करने की क्या आवश्यकता थी ? फिर तो उन्हें गाय झुण्ड को मुस्लिम सेना के आगे देखकर भी युद्ध से परहेज करने की आवश्यकता नहीं थी। कुल मिलाकर ख्वाजा खलील अहमदशाह ने सफेद झूठ का सहारा ही लिया है। जिस इतिहास लेखक इब्नबतूता का उद्धरण लेखक ने दिया है वह जुगल में जंगली जानवरों के विषय में है और इब्नबतूता ने महाराजा सुहेलदेव से तीन सौ साल बाद की घटना का उल्लेख किया है।
      लेखक ने महाराजा सुहेलदेव के भाग खड़े होने एवं सैयद सालार द्वारा सूर्यकुण्ड की मूर्ति तोड़ने से मनाही की बात लिखी है जो कि पूरी तरह मनगढ़ंत है। सैयद सालार बुत विरोधी था बुतपरस्त नहीं, भला वह ऐसा कैसे कर सकता था जिससे उस पर बुतपरस्त होने का धब्बा लगे। बुत
ध्वंश करना भी तो उनके मूल एजेण्डा में रहता है फिर इसे हास्यास्पद ही कहा जायेगा कि सैयद सालार ने सूर्यकुण्ड की मूर्ति तोड़ने से मना कर दिया। यदि यह सच होता तो ख्वाजा खलील अहमद उस ग्रन्थ का नाम लिखने में कभी चूक न करते जिसमें कि सैयद सालार द्वारा सूर्यकुण्ड की मूर्ति तोड़ने से मनाही की बात लिखी है।। लेखक ने सैयद सालार मसूद को महिमामण्डित करने को ही यह सब लिखा है। इसके ठीक विपरीत ऐसे साक्ष्य उपलब्ध हैं कि सैयद सालार ने रामजन्म भूमि मंदिर को ढहाया था और उत्तर भारत स्थित दूसरे सोमनाथ के मंदिर को नेस्तनाबंूद करने का काम भी उसी का था। किसी सद्चरित्र शासक के चरित्र को कलंकित कर सैयद सालार मसूद को भला मानुष ठहराने की एक साजिश ही है। यदि प्रजा राजा से दुखी थी तो वह सैयद सालार मसूद का साथ देती-उसका बध न हो पाता। अम्बा देवी का अपहरण करने वाले और जौहराबाई पर आसक्त सैयद सालार मसूद को महिमा मण्डित करने की कला तो कोई इनसे ही सीखे। लेखक महोदय यह भूल गये कि महाराजा सुहेलदेव ने सन् 1027 ई. से सन् 1077 ई. तक अर्थात पूरे पचास वर्ष तक एक सच्चे प्रजा पालक के रूप में शासन किया। यह सभी जानते है कि इस्लाम मतावलम्बी भारतीयों के पूज्य गौ-बैल को भेड़-बकरी जैसा ही समझते हैं और जानबूझकर इनका बध कर मूल भारतीयों की धार्मिक भावनाओं को ठेस पहुंचाते हैं। बुत परस्तों के आस्था स्थलों को तोड़ने में उन्हें पुण्य सा लगता है। आज भी जब यह भयावह स्थिति है तब हम ग्यारहवीं सदी की इस्लामिक कट्टरता का अन्दाज तो सहज ही लगा सकते हैं और जो लेखक महोदय ने यह बताने की कोशिश की है कि सैयद सालार मसूद ने सूर्यकुण्ड की मूर्ति को तोड़ने की मनाही की थी इस सफेद झूठ को भी समझ सकते हैं। बालार्क ऋषि के आश्रम को बाले मियां की दरगाह के रूप में परिवर्तित कर देने वाले लोग जब यह कहें कि सैयद सालार मसूद गाजी ,मूर्ति तोड़ने के पक्ष में नहीं बल्कि उनका रक्षक था एवं राजा सुहेलदेव से उसने गाय-बैलों की रक्षा की थी तब बहुत आश्चर्य होता है।
(19) पाकिस्तान प्रषंसा का पात्र है निंदा का नहीं
                (आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
         (यह लेख तुमुल तूूफानी अंक 17 जून 2010 में छप चुका है।)
         लेख का षीर्षक आपको अच्छा नहीं लगेगा। इसका मुख्य कारण यह है कि आप पाकिस्तान का केवल एक पक्ष देखते हैं। ऐनकेन प्रकारेण अपने देष को षक्तिषाली बना लेने के पक्ष को आप भूल जाते हैं। विष्व के प्रत्येक देष को अपनी संप्रभुता की सुरक्षा का अधिकार है। अन्य देषों की भूमि हड़प लेना उसके लिए बोनस है।अपने अनर्गल कृत्यों को अपने मित्र देषों द्वारा जायज ठहरवा लेना उसके लिण् सोने में सुहागा है। अपने देष की गरीबी मिटाने ,आतंकवाद को समाप्त करने के नाम पर सम्पन्न-षक्तिषाली देषों से अरबों -खरबों डालर की सहायता प्राप्त कर उस राषि का उपयोग अपने षत्रु देष को नेस्तनाबूंद करने के लिए कर लेना उसकी चतुरता ही कहा जायेगा। यही राजनीति है ,यही कूटनीति है ,यही चाणक्यनीति है। हमारे देष में बहुत से चाणक्य हुए हैं किन्तु उनकी नीतियों को हमने नहीं दूसरे देषों ने आत्मसात् किया और वे अपने मकसद में कामयाब हुए। पाकिस्तान उनमें से एक है।
         भारत देष मुस्लिमों का मूल देष नहीं है। उनकी आस्था मुस्लिम देषों कंे साथ रही है। यह सब वैसे ही जैसे मारीषस ,नेपाल आदि आदि के हिन्दुओं की आस्था भारत के प्रति है। किन्तु इनमें बुनियादी अन्तर है-धर्म और राष्ट्र का। मुस्लिम के लिए इस्लाम सवो्र्रपरि है और हिन्दू के लिए राष्ट्र। मुस्लिम देषों में इस्लाम और राष्ट्र एक मुसलमान के लिए जीवन से जुड़े हैं। (वहां भी यदि दकिया नूसी इस्लाम के विरुद्ध कुछ हुआ तो इस्लाम के नाम पर ष्षासक की हत्या तक की जा सकती है।) किन्तु भारत में मुस्लिम भाईयों की स्थिति बिलकुल भिन्न है। भारत में भारतीय मुसलमान के लिए इस्लाम पहले है बाद में राष्ट्र। मसाक्षात्कारों में गणमान्य मुस्लिम नेताओं ने खुलेआम यह स्वीकार है। किन्त मारीषस ,नेपाल ,सूरीनाम या अन्य देष जहां हिन्दू अधिक संख्या में हैं उनके लिए राष्ट्र प्रथम है। यहां तक कि हिन्दुओं के मूल स्थान भारत में रहने वाले हिन्दुओं के लिए भी राष्ट्र-धर्म प्रथम है बाद में कथित धर्म।
        भारत के टुकड़े करके पाकिस्तान का निर्माण इस्लामियों के लिए बोनस था अर्थात एक और मुस्लिम देष की वृद्धि। अतएव भारत विभाजन की पीड़ा मूल रूप से हिन्दुओं (मूल भारतीयों) की है-इस्लामियों की नहीं। पाकिस्तान का निर्माण और पाकिस्तान की जनसंख्या से भी अधिक इस्लामियों का भारत में रह जाना इस्लामियों की दो-तरफा जीत है। उन्हें मालूम था कि यही जनसंख्या भविष्य में भारत के इस्लामीकरण में मदद करेगी। भारत ने पाकिस्तान के दो टुकड़े कर बांग्लादेष को जन्म दिया ,इससे भारत को खुष होने की जरूरत नहीं है क्योंकि बांग्लादेष इस्लामियों के ही बोनस का खण्ड है। भारत का ही एक और भाग एक और मान्यता प्राप्त देष बन गया-भारत का अंग नहीं। बांग्लादेष ने भी सिद्ध किया कि उसका भाईचारा पाकिस्तान (या यों कहें कि इस्लामिक देष से है।) भारत सेे नहीं । भारत की मुसीबतुें कम हाने की बजाय और बढ़ गईं।
       आज भारत के विद्वान ,विदेषनीति विज्ञ ,सुरक्षा विज्ञ पाक के बिषय में तरह तरह की बातें करत हैं। जैसे-पाकिस्तान ने सैकड़ों परमाणु बम बना लिए ,चीन ,बांग्लादेष आदि से सांठगांठ कर भारत में अस्थिरता फैला रहा है ,भारत पर आतंकियों की घुसपैठ करा रहा है ,नकली नोंटों की खेप भेजकर भारत की अर्थव्यवस्था को चैपट कर रहा है ,भारत में साम्प्रदायिक दंगे करा रहा है। इत्यादि-इत्यादि।
हम पाकिस्तान को महात्मा के रूप में देखना चाहते हैं। हम यह भूल जाते है कि पाकिस्तान की नींव ही भारतीयता के विरोध में रखी गई है। फिर मेरे भाईयों ! कौन सा देष है जो अपने देष के लिए उस प्रकार के हथकण्डे नहीं अपनाता जिससे उसकी स्थिति मजबूत होती हो ? हां ! भारत देष अवष्य सदाचार को लेकर चलता है और इन बातों को अन्तर्राष्ट्रीय पचायतों के सामने रखता है किन्तु पाक के मामले में मुंह की खाता है। अन्तर्राष्ट्रीय पंचायतों में भी पाकिस्तान माहौल को अपने पक्ष में करने में सफल हो जाता है। भारत तो यह भी नहीं समझ पाया कि जिस अमेरिका से वह पाकिस्तान की षिकायत करता है वही अमेरिका भारत को विष्व षक्ति के रूप में उभरने नहीं देना चाहता। यही कारण है कि पाक जैसे आतंकवादी देष को विभिन्ना मदों के अंतर्गत करोड़ों-अरबों डालर की मदद करता है। अमेरिका जानता है कि पाक उसके द्वारा दी गई मदद का उपयोग भारत के विरुद्ध युद्ध सामगी जुटाने एवं एवं आतंकवादियों को ट्रेनिंग देने के लिए करता है-इसके बाद भी अमेरिका आंखें मूंदे रहता है। भारत अमेरिका की इस कूटनीति से अनजान बना रहता है। भारत को भ्रम में रखकर पाक को बढ़ा रहा है। यह अलग बात है कि वह अपने लिए संपोला पाल रहा है। चीन और अमेरिका एक दूसरे के षत्रु हैं किन्तु पाकिस्तान को देखिए-इन दोनों विष्व-षक्तियों के आषीर्वाद का लाभ उठा रहा है। क्या आपके पास ऐसा हुनर है ?
        पाकिस्तान की निन्दा करने के पूर्व आप काल्पनिक पाकिस्तानी नागरिक बनकर पाकिस्तान के इन कृत्यों के बिषय में सोचिए। आपको लगेगा कि पाकिस्तान भारत के विरुद्ध बनाये गए अपने मकसदों में कामयाब ही रहा है और भारत नाकाम। पाक के नेताओं और मजहबी लोगों का उद्देष्य है-भारत की सीमाओं ,सभ्यता और संस्कृति को मटियामेट करना। वहां के बच्चों में कूट कूट कर वैसे ही जज्वात भरे जा रहे हैं और यहां के कर्णधार गंगा-जमुनी संस्कृति की दुहाई देकर ,साम्प्रदायिक सद्भावना का लबादा ओढ़कर अपना सब कुछ खोते जा रहे हैं। कोई एक ऐसा मित्र राष्ट्र बनाने में भी असफल रहे हैं जो आड़े समय पर आपके साथ खड़ा हो सके। पाकिस्तान वर्तमान में जी रहा है ,भविष्य के अन्जाम की उसे चिन्ता नहीं और आप उलाहनों के दल-दल में ही फंसे है।। पाकिस्तान प्रषंसा का पात्र है निन्दा कानहीं। वह अपने हर मकसद में कामयाब हुआ है। भारत को जिन समस्याओं में फंसाना चाहता था फंसा चुका है,उन समस्याओं का तोड़ भारत नहीं ढ़ूढ़ पाता तो इसके लिए भारत स्वयं जिम्मेदार है पाकिस्तान नहीं। हमारे कर्णधार सत्ता ंसुख के लिए एक दूसरे को खरीदने बेचने में लगे हैं। इनको एक दूसरे की टांग खींचने से फुर्सत नहीं है। हर नेता अपने को सबसे बड़ा मुस्लिम प्रेमी सिद्ध करने को लगा है। जब निर्णायक युद्ध होगा तब आप वार्डर और वार्डर के अन्दर होने वाले दो-तरफा युद्ध में सफल हो पायेंगे ?बस आप एक ही गीत गाते रहेंगे-‘‘ईष्वर अल्लाह तेरो नाम ,सबको सम्मति दे भगवान।’’ आपको अच्छा लगे या बुरा किन्तु सच यही है। पाकिस्तान को दोष देना छोड़िये और भरत की वास्तविक षक्ति का उपयोग कीजिए।  
 (20)    प्राकृतिक धर्मोंं के विरुद्ध फैसले न्यायसंगत नहीं
                              (आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘राजगुरु’)
    हिन्दू धर्म ,इस्लाम धर्म ,ईसाई धर्म ,या कोई और जिन्हें हम धर्म कहते हैं ,वे धर्म नहीं हैं ,विभिन्न समूहों द्वारा अपने अपने मुखियाओं के माध्यम से अथवा मुखियाओं द्वारा अपने समूहों को अनुषासन में रखने के विचार या विचारधारा हैं। ये ईष्वरकृत नहीं हैं अतएव प्राकृतिक नहीं हैं। वास्तव में ये पन्थ हैं जो अपनी आराधना पद्धतियों द्वारा ईष्वर प्राप्ति का दावा करते हैं। ये बदलते रह सकते हैं अथवा बदलाव की गुन्जाइष रखते हैं। यदि कोई ऐसा कहता है कि उसका धर्म ईष्वरकृत है और ईष्वर ने ऐसा कहा है तब आप जानिये कि वह सरासर झूठ बोल रहा है।कोई समूह विषेष ईष्वर की कृपा का पात्र नहीं होता। उस अदृष्य ईष्वर के लिए सम्पूर्ण चराचर बराबर है।
     ईष्वरकृत धर्म बदलता नहीं है। अग्नि का ताप ,पानी की आर्द्रता ,हवा का प्राण संचरण कुछ ऐसे ही धर्म है। यह सब उनके द्वारा धारण किये जाते हैं ,इनमें बदलाव नहीं होता। आग जलायेगी ,पानी गीलापन देगा ,हवा ंससखायेगी एवं प्राणों का संचरण करेगी। ये अपना धर्म आपके सामने ही सिद्ध करते हैं। औ वे ,जिन्हें हम धर्म कहते हैं-जिनके लिए खून खराबा करते हैं-स्वर्ग-नरक की खोखली भूल भुलैया में भटकाते हैं। मरने के बाद स्वर्ग अथवा नर्क का आंखों देखा हाल बताने के लिए बेचारा व्यक्ति आ ही नहीं सकता या आ ही नहीं पाता। यही इन धर्मों का हथियार है। ये धर्म आपको उलझाते हैं किन्तु ईष्वरकृत धर्मों में ऐसा नहीं है।
      हर जीव का ,हर वस्तु का अपना धर्म है जिसे निभाने के लिए वह बाध्य है। किन्तु जब हम उस जीव को अथवा वस्तु को उसके प्राकृतिक धर्म को निभाने से रोकते हैं अथवा उसकी प्रकृति के विरुद्ध कार्य करने को बाध्य करते हैं अथवा मान्यता देते हैं तब हम इसे अप्राकृतिक न्याय कहेंगे।
      यहां हम मानव प्राणी के सम्बंध में चर्चा कर रहे हैं। ष्द्यपि हर जीव संभवतः तीन श्रेणियों में बंटा हुआ है-नर ,मादा ,और नपुंसक। यह भी निष्चित है कि नर ,मादा अथवा नपुंसक में एक दूसरे का कुछ न कुछ अंष विद्यमान रहता है। यदि हम नर की बात करें तब हमें आष्चर्यचकित करने वाली एक विसंगति उसमें मिलती है ,वह यह कि उसकी छाती में दूध उत्पन्न करने वाले सुषुप्त अंग अथवा राष्ट्रकवि मैथिलीषरण गुप्त के षब्दों में ‘‘आंचल’’। क्या ईष्वर ने नर की छाती में इन अंगों की रचना केवल षरीर की षोभा बढ़ाने को की है अथवा मादा विहीन समाज होने की स्थिति में षिषु उत्पन्न कर उसके भरण-पोषण करने के लिए इन अंगों को जागृत कर दूध पिलाने के लिए रचना की है। वकौल श्री रामधरीसिंह दिनकर-‘‘छिपा दिए सब तत्व आवरण के नीचे ईष्वर ने ।’’ इन अंगों को धारणकर नर अर्द्ध नारी है और उन अंगों से दुग्ध उत्पन्न न कर पाने की स्थिति में तृतीय वर्ग का भी है।
       प्रकृति की बात करें तो पुरुष की मूल प्रकृति है नारी से संभोग कर संतुष्टि प्राप्त करना और नारी को भी संतुष्ट करना तथा सृष्टि वृद्धि हेतु अपने षुक्र का दान। ठीक इसी प्रकार की प्रकृति मादा की है। नर को संभोग करने देना ,उसके वीर्य को अपनी जनेन्द्रिय में धारण कर सृष्टि वुद्धि में योग देना। नर-मादा प्राकृतिक रूप से इस कार्य के लिए एक दूसरे की ओर आकर्षित होते हैं। ऐसा करने में ही उनकी सार्थकता अथवा पूर्णता है। नर और मादा का यह प्राकृतिक धर्म है।
        समलैंगिकता एक बचपना है। यह आदिकाल से रहा है और समलैंगिकों में समझ आने के बाद स्वतः समाप्त होता रहा है। किन्तु वे जो प्राकृृतिक नियमों के विरुद्ध मानसिक विकृति का षिकार हुए और इसे जारी रखा वे नगण्य रहे। समाज ने कभी उन्हें मान्यता नहीं दी और न देना चाहिए।
        आज समलैंगिकता बढ गई है। भारत में पष्चिमी सभ्यता और संस्कृति जड़ जमाने लगी है। कुछ महिला या पुरुष इसे जायज ठहराने की मुहिम चला रहे हैं। इसके दूरगामी परिणामों से वे पूरी तरह अनभिज्ञ हैं। दुःख तो तब होता है जब न्यायालय भी इस अप्राकृतिक कृत्य के पक्ष में फैसला देते हैं। क्या ईष्वरीय विधान के विरुद्ध फैसला देने का अधिकार मानवीय न्यायालयों को है ? इस पर चर्चा की जानी चाहिए। यदि यह सब रोका नहीं गया और समाज ने इसे मान्यता दे दी तो जिन बीमारियों का षिकार यह समाज होगा उसके टीके का ईजाद कर पाना बहुत मुष्किल होगा।
(21)       राजभर जाति का संक्षिप्त परिचय
                  लेखक-ः आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’
       (यह लेख संक्षिप्त 16 पृष्ठीय पुस्तिका के रूप  में सन् 1998 ईस्वी में छपा था।)
    19 वीं सदी के अन्त तक स्वयं राजभरों को अपने विषय में विषेष जानकारी नहीं थी। इस जाति के लोग अपने को भारषिव ,भारगव ,भारद्वाज ,भर ,भार ,राजभर ,भरपतवा ,राजभार आदि सम्बोधनों से जानते रहे रहे हैं। जब भी किसी ने पूछा कि भारषिव ,भर ,अथवा राजभर कौन सी जाति है तब इस कौम के किसी भी व्यक्ति ने सवालकर्ता को सही उत्तर नहीं दिया। इनका उत्तर बस यही होता था कि हमारे पुरखे भार ,भारषिव ,राजभर लिखते रहे हैं सो हम भी लिख रहे है।
     कभी-कभी किसी ने यह कहकर संतुष्ट करने का प्रयास किया कि हम राजा थे ,हम क्षत्रिय हैं ,हम राजवंषी ठाकुर है। किन्त ,प्रमाणों के अभाव में ये हीन भावना से ग्रसित रहे। जवाब देने की परेषानी से बचने के लिए इनमें से कई लोग अपनी संविधानुसार उपनामें का प्रयोग करने लगे।
     यद्यपि स जाति का उल्लेख ऋग्वेद के दसवें मण्डल में (भरत तृत्सुगण), पुराणों ,महाभारत एवं अन्य प्राचीन ग्रन्थों में किया गया है किन्तु इस जाति में ऐसा कोई व्यक्ति नहीं हुआ जो उन सूत्रों को सबके सामने रख सके।
     अंग्रेज इतिहासकार मि. षेरिंग ,मि. डब्लू क्रोक ,मि. सर हेनरी इलियट ,मि. पी. करनेगी ,डाॅ. स्मिथ ,मि. रिकेट्स ,मि. गोस्टव आपर्ट ,डाॅ. फानसिस बच्चन ,लेफिटनेन्अ गवर्नर मि. थानसन ,मि. उडवर्न ,मि. सर ए. कनिघम ,मि. सी. जी. सबोल्ड ,मि. डी. एल. ड्रेक ब्राकमेन ,डाॅ. ओल्घम ,मि. डब्लू. सी. बेनेट ,एच. आर नेविल ,मि. सी. इलियट ,मि. टुथोइट , एफ. एच. फेयर ,जे. पी. ह्वेट ,मेजर मेकन उुज ,ई. ए.. एच. ब्लुन्ट ,आर. बी. रसेल ,जे. एच. हट्टन ,जैस बर्गीज ,कर्नल एच. एस. वैरेट ,रिसले ,एडविन अटकिसन ,मि. हरबम्स ,मि. फग्र्यूसन ,मि. फ्लीट ,आदि ने अपने ग्रन्थों तथा विभिन्न गजेटियर्स में इस वीर जाति के षौय्र्र की दिल खोलकर चर्चा की है।
    इन्होंने लिखा है कि यह वीर जाति भार ,राजभर ,भरत ,तथा भरपतवा नाम से सम्बोधित की जाती है। इन्होंने भर और भरताज को एक मानते हुए कहा है कि इनकी मुख्य जाति राजभर ,भारद्वाज और कनौजिया है। भूमिधारी भार को राजभर कहा गया है।इन्होंने चन्देल ,राठौर ,राष्ट्रकूट ,परिहार आदि को इनका वंषज मानते हुए इस जाति को उच्च वर्ण का राजपूत कहा है।
      अंगे्रज इतिहासकारों का कहना है कि भार अथवा राजभर जाति ने भारत के अधिकांष भू-भाग पर षासन किया है तथा आज के प्रतिष्ठित अनेक राजपूत वंषों को जन्म दिया है। प्रमाण के लिए उक्त इतिहासकारों के ग्रन्थों का अवलोकन कीजिए।
      भारतीय इतिहासकारों के सामने भी एक विकट समस्या थी। कुषनों के पतन तथा गुप्तों के उदय के बीच का इतिहास ज्ञात न होने के कारण भारतीय इतिहासकारों ने इस युग को अन्ध्कार युग की संज्ञा दी। इतिहासकारों के लिए यह दुःखद पहलू था। वे समझ नहीं पा रहे थे कि उस काल में कौन सा राजवंष राज्य कर रहा था।
      सच है ,पृथ्वी के गर्भ में बहुत कुछ समाया हुआ है। समय बदलता है। समय ने भारषिवों से सम्बंधित ऐतिहासिक सामग्री उगलना प्रारम्भ किया तब इतिहासकार भी आष्चर्यचकित रह गये। सन! 1836 ईस्वी से लेकर अभी तक पुरातत्वविदों ने भारषिवों के सम्बंध में जो भी सामग्री प्राप्त किया उससे स्पष्ट हो गया कि जिसे इतिहासकार अन्धकार युग कहते थे वह युग भारषिव (राजभर) राजवंष के षासनकाल का युग था। विष्लेषण से स्पष्ट हो गया कि भारषिवों (राजभरों) ने अपने देष की रक्षा के लिए जो कुछ भी किया उसका ऋण चुका पाना सम्भव नहीं है।
     भारषिवों के परम संक्षिप्त इतिहास के रूप  में वाकाटक नरेष प्रवरसेन द्वितीय द्वारा लिखाए गये ताम्रलेख वर्धा जिले के हिंगणघाट के उत्तरार्द्ध में लगभग सात मील पर स्थित जाँबगाँव के चैधरी माधवराव अठोले के घर में सन् 1940 ईस्वी में ,वर्धा जिले की आर्वी तहसील के बेलोरा नामक गाँव में सन् 1938 ईस्वी में श्री जाने के घर में ,अमरावती जिले की अचलपुर तहसील में अचलपुर के उत्तर में चार मील की दूरी पर स्थित चम्मक ग्राम में भूमि जोतते समय सन् 1868 ईस्वी में ,सिवनी जिले के पिण्डराई नामक ग्राम में वहाँ के मालगुजार हजारी गोंड़ के यहाँ सन् 1836 ईस्वी में ,इन्दौर के स्वर्गीय पण्डित वामन षास्त्री इसलामपुरकर के संग्रह में ,छिंदवाड़ा जिले के दुदिया ग्राम में किसी गोंड़ के संग्रह में ,बालाघाट जिले में कटंगी ग्राम के आग्नेय में आठ मील पर स्थित तिरोड़ी ग्राम से मेगनीज की खदानों के निकट ,चाँदा जिले की बरोड़ा तहसील के बड़गाँव नामक ग्राम में एक ग्रहस्थ भगवान षिवा गजार के पितामह के संग्रह में ,बैतूल जिले के पट्टन ग्राम में एक किसान को खेत जोतते समय सन् 1953 ईस्वी में ,छिंदवाड़ा जिले में स्थित पाण्ढुर्णा गाँव के उत्तर-पष्चिम में लगभग छः मील दूर टीगाँव नामक ग्राम मंें कडू पटेल का पुराना घर गिरने पर सन् 1942 ईस्वी मे ,नागपुर से 28 मील पर रामटेक के समीप मेगनीज खोदते समय मनसर ग्राम में ,दुर्ग में भूतपूर्व पानाबारस जमींदारी के मुख्य ग्राम मोहल्ला में सन् 1934 ईस्वी में ,बालाघाट जिले में एक स्थान पर एक बृक्ष से बँधा हुआ मई मास के पूर्व सन् 1893 ईस्वी में प्राप्त हुए।
    उक्त ताम्रपत्रों में भारषिवों का परम संक्षिप्त इतिहास इस प्रकार लिखा गया है-ः
         ‘‘अंसभार सन्निवेषित षिवलिंगोद्वाहन-षिवसुपरितुष्ट समुत्पादित राजवंषानाम्-पराक्रमआधिगतः भागीरथीः अमल-जलः मूद्र्धाभिषिक्तानाम् दषाष्वमेधः अवभृथ स्नानाम् भारषिवानाम्।’’
      अर्थात् उन भारषिवों (के वंष) का जिनके राजवंष का आरम्भ इस प्रकार हुआ था कि उन्होंने षिवलिंग को अपने कंधे पर वहन करके षिव को भलीभंति परितुष्ट किया था। वे भारषिव जिनका राज्याभिषेक उस भागीरथी के पवित्र जल से हुआ था ,जिसे उन्होंने अपने पराक्रम से प्राप्त किया था। वे भारषिव जिन्होंने दष अयवमेध यज्ञ करके अवभृथ स्नान किया था।’’(विषेष अध्ययन के लिए पढ़िए - वाकाटक राजवंष का इतिहास तथा अभिलेख ,लेखक-डाॅ. वासुदेव विष्णु मिराषी नागपुर विष्वविद्यालय तथ अन्धकार युगीन भारत ,लेखक- डाॅ काषीप्रसाद जायसवाल।)’
       ताम्रलेख में वर्णित राजवंषानाम् भारषिवानाम् का संक्षिप्त रूप  है भार अथवा राजभर। डाॅ. वासुदेव विष्णु मिराषी ने स्पष्टतः भारषिव एवं भार को एक ही माना है। उन्होंने अपने ग्रन्थ के पृष्ठ 32 पर लिखा है कि-‘‘ये नागवंषी भारषिव मूलतः विदर्भ के प्रतीत होते हैं क्योंकि भार राजा भगदत्त का ईसा की द्वितीय षताब्दि का षिलालेख महाराष्ट्र में भण्डारा जिले के पौनी नामक ग्राम में प्राप्त हुआ है। इसी प्रकार पण्डित देवीदत्त षुक्ल ने ग्राम सन्देष मासिक पत्रिका सन् 1937 ईस्वी वर्ष 1 अंक 6 सफहा 123 में लियाा है कि भर या भार ,भारषिवों के वंषधर हैं। आचार्य हजारीप्रसाद द्विवेदी ने पुनर्नवा के पृष्ठ 39 पर भी यही लिखा है।
        डाॅ. काषीप्रसाद जायसवाल ने अन्धकार युगीन भारत में ,अमृतलाल नागर ने गदर के फूल में भी उक्त धारणा की पुष्टि की है। प्रायः सभी विद्वानों एवं इतिहासकारों ने यह माना है कि भर ,भार या राजभर भारषिवों के वंषधर हैं। महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ,बलदेवसिंह चन्देल ,आदि इनका सम्बंध प्राचीन भरत जाति से भी जोड़ते हैं। भारषिव नाग थे। डाॅ. काषीप्रसाद जायसवाल ,डाॅ. वासुदेव विष्णु मिराषी ,डाॅ. राजबली पाण्डेय ,प्रो. भगवतीप्रसाद पान्थरी ,डाॅ. रमानाथ मिश्र ,डाॅ. मोतीचन्द्र आदि सभी इतिहासकार यही मानते है।
       नागों ने भारषिव उपाधि कब से धारण की इस विषय में डाॅ. काषीप्रसाद जायसवाल ,आर. एस. त्रिपाठी ,विष्वेष्वरनाथ रेणु ,एच. सी. रे ,एस. एन. पाण्डेय ,सत्यकेतु विद्यालंकार ,रामदुलारे राय ,बाबू बैजनाथप्रसाद ,ईष्वरीप्रसाद ,एम. बी. राजभर आदि इतिहासकारों के अनुसार राजा वीरसेन नाग ही उस नवनाग वंष का प्रतिष्ठापक था जिस राजवंष की राजकीय उपाणि भारषिव थी। भूमरा ,नचना ,खोह ,में एक मुख षिव लिंगों की स्थापना भारषिव नागवंषी राजा वीरसेन ने ही कराई थी।
      श्री राजकुमार गुप्ता अध्यक्ष भेड़ाघाट विकास प्राधिकरण पंचवटी भेड़ाघाट जबलपुर के अनुसार भेड़ाघाट में चतुर्मुख षिवलिंग की स्थापना भारषिव नागवंषी राजा वीरसेन ने कराई थी। काषी में गंगा तट पर दषाष्वमेध के कत्र्ता-धत्र्ता भी वही थे। यथार्थ में वीरसेन को ही पुराणों में गणेष्वर वीरभद्र कहा गया है। आचार्य चतुरसेन ने वीरभद्र की गणना एकादष रुद्रों में की है। षिव पुराण में दषाष्वमेध का उल्लेख मिलता है।
      भारषिव नागवंष के महान राजाओं की लम्बी सूची है। भारषिव नागवंषियों का राज्य इस षताब्दि में भी भारत के अनेक भागों में रहा है। अभी तक छत्तीसगढ़ में कई इस्टेट नागवंषी राजाओं के अधीन रही हैं। राजभर जाति का राज्य श्री रामचन्द्र जी के समयभी था। रायबहादुर लाला सीताराम ने अयोध्या के इतिहास में लिखा है कि श्री रामचन्द्र जी के समय इस प्रान्त में राजभर और असुर रहते थे। राजभर जाति के राज्य की सीमा श्री रामचन्द्र जी के राज्य से लगी हुई्र थी।
      डाॅ. रमानाथ मिश्र सागर विष्वविद्यालय ने भरहुत ग्रन्थ में लिखा है के -‘‘भरहुत का ऐसा नाम संभवतः भरों अथवा राजभरों  (आदिम जाति) के सम्पर्क से पड़ा। भार जाति के नाम पर भारभुक्ति ही भरहुत हो गया है। इसी प्रकार देष के हजारों स्थानों का नाम इस जाति के नाम पर पड़ा। यथा- भरवेली ,बरहटा (भरहता) ,बरघाट (भरघाट) ,भरेल ,वर्धा (भरदा) ,बहराइच (भराइच) ,रायबरेली (राही-भरौली) ,भरुच ,नागपुर ,भरान ,बनारस (बन्दार भर षासक के नाम पर) ,डलमऊ (डल राजा के नाम पर) ,भरदोही ,भरथना ,भरतपुर ,हरदोई (राजा हरदेव के नाम पर) , वारासिवनी (भारषिवनी) ,भरदा ,भरवारा इत्यादि।
     इस प्रकार पुरातात्विक सामग्री ,ऐतिहासिक ग्रन्थों ,साहित्यिक ग्रन्थों ,पत्र-पत्रिकाओं आदि का अवलोकन करने के पष्चात कह सकते हैं कि-
     ‘‘भर ,भार ,भरत ,भरपतवा ,राजभर नामधारी जाति आर्यावर्त में की पावन भूमि में निवास करने वाली वह सभ्य , श्रेष्ष्ठ ,उच्च जाति है जो आज से लगभग दो हजार वर्ष पूर्व भारतवर्ष म ेंषासन करती थी। इस वंष के राजा बड़े प्रतापी ,ऐष्वर्यषाली और वीर हुए हैं। चूंकि ये लोग पहले षैवमत के अनुयायी थे ,अतएव षिव जी के परम उपासक होने के कारण प्रारम्भ में भारषिव के नाम से विख्यात हुए। जिस समय षक ,हूण आदि विदेषी जातियों का आक्रमण उषरी भारत में होना प्रारम्भ हुआ ,इस वीर ,साहसी जाति ने उन म्लेच्छों को देष की सीमा से बाहर निकाल देने का भार अपने सिर पर लिया और अपने बाहुबल तथा पराक्रम से जिम्मेदारी को सफलता पूर्वक कार्यान्वित कर विदेषियों को मार भगाने में सफलता पाई एवं संसार के सामने अपनी वीरता का पूर्ण परिचय दिया। अतः इसी भार को ग्रहण करने के कारण राजवंषीय वीर राजभर ,भार कहलाए जाने लगे जो इस नाम से आज तक प्रसिद्ध हैं।
     पुथ्वी एवं इस पर निवास करने वाले प्राणियों की सुख सुविधाओं का भार उठाने वाली उसी महान पराक्रमी ,साहसी वीर जाति का आज इतना अधःपतन हो चुका है कि उसमें क्षत्रियत्व का बोध कराने वाले कोई अणु नहीं दिख रहे। आज यह वीर जाति अपने उद्धार के लिए प्रतीक्षा कर रही है एक अदद मसीहा की।
 (22)    राजभर जाति अंग्रेज इतिहासकारों की दृष्टि में
                ( संकलन कत्र्ता-आचार्य षिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’)
         (यह लेख वर्ष 1998 ईस्वी में 16 पृष्ठीय लघु पुस्तिका के रूप  में प्रकाषित हो चुका है।)
    दो षब्द-ः राजभर जाति भारत के हर क्षेत्र में पाई जाती है। नंपाल ,कम्बोडिया ,सूरीनाम ,मारीषस आदि देषों में भी यह जाति है। लेकिन ,भिन्न-भिन्न नामें से सम्बोधित किए जाने के कारण इस जाति के लोग एक दूसरे के सम्पर्क में नहीं आ पाते। बहुत से लोग राजभर लिखने से कतराते हैं। इसका मूल कारण यह है कि ये अपनी जाति के वीरता पूर्ण इतिहास से अपरिचित हैं। यदि इन्हें मालुम हो जाए कि इनका अतीत अत्यंत गौरवषाली था तो ये अपने नाम के साथ राजभर षब्द अवष्य लिखने लगेंगे। इन्हें नींद से जगाने की आवष्यकता है।राजीार जाति के विषय में इतिहास में बहुत कुछ लिखा गया है। इतिहास की बातों से राजभर समाज को अवगत कराना हम सबका परम कत्र्तव्य है। सेवा भावना के साथ कम मूल्य में इतिहास की पुस्तकें राजभर भाइयों को उपलब्ध कराई जाये ंतो अधिक से अधिक राजभर भाई इन पुस्तकों को पढ़कर अपना इतिहास जान सकेंगे और राजभर लिखने के लिए उत्याहित होंगे तथा एक दूसरे के सम्पर्क में आ सकेंगे।
     मैं उसी भावना से छोटी छोटी पुस्तकें लिख कर कम से कम मूल्य में उपलब्ध कराने का प्रयास कर रहा हूँ। राजभर जाति के विषय में अँग्रे्रज इतिहासकारों ने बहुत कुछ लिखा है। इस लघु पुस्तक में अँग्रेज इतिहासकारों द्वारा लिखी गई बातों का संकलन किया गया है। कौन से अंग्रेज इतिहासकार ने कौन से ग्रन्थ के कौन से पृष्ठ पर क्या लिखा है उसका (सप्रमाण) विवरण इस छोटी सी पुस्तक में देने का प्रयास किया गया है। विषेष अध्ययन के लिए इन संदर्भ ग्रन्थों को किसी भी विष्वविद्यालय के पुस्तकालयों या भारत के किसी भी प्रसिद्ध पुस्तकालय में जाकर पढ़ा जा सकता है। मेरा मूल उद्देष्य राजभर समाज को उसके अतीत से अवगत कराना है ,किसी अन्य समाज को किसी प्रकार की ठेस पहुँचाना नहीं।
     राजभर समाज के व्यक्तियों को चाहिए कि अपने अतीत से सम्बंधित पुस्तकें स्वयं पढ़ें तथा दूसरे समाज के लोगों को भी पढ़ने को दें ताकि दूसरे समाज के लोगों के मन में इस समाज के प्रति जो अनुकूल धारणा नहीं है उसमें परिमार्जन हो सके। आषा है राजभर समाज के अधिक से अधिक लोग इससे लाभान्वित होंगे। यदि आप और भी जानकारी हमें देना चाहें तो सप्रमाण दे सकते हैं ,उसे हम आगामी संस्करण में षामिल कर सकते हैं।
                                                            आपका
                                                          आचार्य राजभर ‘‘राजगुरु’’
मिस्टर षेंिरंग-ः ‘‘भर या भार जाति उत्तरी भारत केे गोरखपुर से मध्य भारत के सागर जिले तक पाई जाती है। यहाँ के निवासी इस जाति को भार, राजभर, भरत, भरपतवा के नाम से सम्बोधित करते हैं।.......आजमगढ़ के भरों का राज्य श्रीरामचन्द्र के राज्य के समय अयोध्या से मिला हुआ था। ....अवध प्रान्त में भरों की षक्ति बड़ी ही प्रबल थी। प्रयाग से काषी तक इनका सुदृढ़ षासनाधिकार था।’’
‘‘भर जाति  को असभ्य जाति से जोड़ना उपयुक्त न होगा क्योंकि इनके कार्य कलापों को देखकर किसी राजवंष का इन्हें कहा जा सकता है। व्यवसाय के आधार पर उत्तरप्रदेष में इनका कोई निष्चित व्यापार या व्यवसाय नहीं है ,जैसा कि अन्य हिन्दू जातियों को वयवसाय के आधार पर जाना जा सकता है।इनका व्यवसाय प्राचीनकाल में युद्ध करना था जो इन्हें क्षत्रियों से जोड़ता है।’’ ( प्रमाण के लिए पढ़िये -हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्ट वाल्यूम फस्र्ट पृष्ठ 357)
‘‘भर जाति के लोग पूर्वकाल में हिन्दु धर्म के अनुसार उपासना करते थे।’’ (हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्ट 360, 361, 362 ) ‘‘मेरा स्वयं का विचार है कि भरों ने जनेऊ पहनने का विधान राजपूतों से सीखा जो कि उनके ही में आते थे। लेकिन यह भरों के अधीन होने के पहले ही हो चुका था और जब राजपूत मात्र उनके नौकर थे। भरों को अधीन कर चुकने के बाद ,राजपूत उन्हें पवित्र धागा पहनाने के लिए संस्कारित किये होंगे, जो कि हिन्दुओं की अच्छी जाति को ही पहनने की आज्ञा दी जाती है। ’’(हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्ट वाल्युम फस्र्ट पृ. 362)।
‘‘यह बिलकुल सत्य सिद्ध है कि भर जाति एक उत्तम जाति है तथा किसी समय जैन और बौद्ध मत स्वीकार किये थ। ’’( मिरजापुर गजेटियर पृष्ठ 118)
डा. बी. ए. स्मिथ-ः ‘‘कुछ राजपूत प्राचीन निवासियों की सन्तान हैं अर्थात मध्य प्रान्त तथा दक्षिण के गोंड़, भर क्रमषः उन्नति करके अपने को राजपूत कहने लगे। बुन्देलखण्ड के चन्देल ,दक्षिण के राष्ट्रकूट, राजपूताने के राठौर और मध्यप्रान्त के गोंड़ तथा भर यहाँ के राजपूत सन्तान हैं।’’(अरली हिस्ट्री आफ इण्डिया ,चतुर्थ संस्करण )
‘‘राजपूतों की उत्तपत्ति गोंड़, खखड़ा एवं भर जाति से हुई है। यह भर जाति सूर्यवंषी, नागवंषी, भारषिव और बाद में राजपुत्र कहलायी।’’ (कान्ट्रीब्यूषन टू दी हिस्ट्री आफ बुन्देलखण्ड, इण्डियन एन्टीकरी गगगपप 1908 पेज 136,137)
डी. सी. बैली-ः ‘‘अयोध्या के षासक रामचन्द्र ने भर षासक केरार को जौनपुर में हराया था। यदि रामचन्द्र (दषरथ के पुत्र) भर को हराए थे तो ऐसा माना जा सकता है कि भर जाति अति प्राचीन है। ’’(सेन्सस आफ इण्डिया वाल्युम गअप पेज 221 (1891) )
मिस्टर रिकेट्स -ः ‘‘ भरों का सम्बंध उच्च जातियों से है। कहीं कहीं राजपूत लोग अपने लड़कों की षादियां भी भी करते हैं। इसके प्रमाण विषेष रूप से पाये जाते हैं। इलाहाबाद में भरोर्स, गरहोर्स तथा तिकइत लोग भरों के वंषज कहे जाते हैं। तिकइत जाति की एक लड़की से चैहान क्षत्रिय ने षादी की थी और उसका लड़का उस भर राजा के राज्य पर षासन करता था। कहीं कहीं राजपूत लोग अब भी अपने लड़कों की ष्षादियां भरों की लड़कियों से करते हैं। ’’ (रिकेट्स रिपोटर्् पृष्ठ 128) । प्रयाग के आसपास की भूमि को उपजाऊ बनाने तथा सभ्य बनाने में भरों ने अधिक परिश्रम किया है।
मिस्टर गोस्टव आपर्ट पी.एच.डी. -ः
‘‘एक भर राजा था जिसके चार स्त्रियां थीं जिसमें एक स्वजातीय थी और तीन अन्य जाति की थीं, अन्त में जिन वंषों के पास आजकल भूमि है और अपने को प्राचीन राजपूत सन्तान कहते हैं, चाहे वे लोग सम्मान के भय और समाज की लज्जा से बात को स्वीकार न करें, परन्तु वास्तव में भरों के वंषज हैं। क्योंकि किसी समय इस देष के प्रत्येक एकड़ भूमि पर भरों का आधिपत्य और बोलबाला था।’’ (दी ओरिजिनल हेविटेन्स आफ भारतवर्ष आर इण्डिया, पृष्ठ 44, 45, 46)
मिस्टर पी. करनेगी-ः ‘‘भर लोग राजपूत वंष के है और पहले ये लोग यहाँ के राजा थे। कालान्तर में बौद्ध मत को स्वीकार कर लेने के पष्चात इनके प्रचारार्थ अधिकांष अन्य देषों में चले गये। इनकी मुख्य जाति ‘‘राजभर’’, ‘‘भरद्वाज’’, और कनौजिया की है। मिरजापुर में इनके तीन गोत्र हैं। भर उच्च वर्ण के हैं। भर लोग पुराने राजपूत तथा पूर्वी अवध के प्राचीन निवासी हैं। ’’ (रिसर्च आफ अवध पृंठ 19 )
लंेफ्टिनेन्ट गवर्नर मिस्टर थानसन-ः ‘‘यद्यपि भर लोग अपने अस्तित्व की रक्षा के लिए लगभग दो सौ वर्षों तक युद्ध करते रहे परन्तु असंगठित और न्युन संख्या में होने के कारण तथा स्वधर्मियों के विरोध पक्ष ग्रहण करने से अधिक समय तक वे न टिक सके, तथापि इनके लिए यह कम गौरव की बात नहीं है जो देष की मर्यादा और स्वतंत्रता के लिए अपने सम्पूर्ण वैभव को नष्ट कर दिया। ’’ (हिन्दु ट्राइब्स एण्ड कास्ट पृष्ठ 363)।
एच. आर. नेविल-ः ‘‘ प्रतापगढ़ के भरों के सम्बंध में जहाँ तक ऐतिहासिक प्रमाण मिलता है इससे सिद्ध होता है कि इनके पूर्वज सोमवंषीय हैं। ’’ (प्रतापगढ़ गजेटियर पृष्ठ 144, 145, 967 )।
मि. डब्ल्यू. क्रोक तथा मि. सर हेनरी इलियट-ः ‘‘ किसी समय इस जाति की सभ्यता का विकास पूर्ण रूप से था। भरों का सम्बंध भरताज वंष से है जिनकी पीढ़ी जयध्वज से सम्बंधित है। सम्भवतः महाभारत काल में ये लोग ‘‘भरताज’’ नाम से विख्यात थे और पूर्वी भारत खण्ड में भीमसेन द्वारा पराजित हुए थे। राम राज्य के समय इनका कुछ आभास मिलता है। इनके राज्य का विस्तार अवध, काषी, पष्चिमी मगध, बुन्देलखण्ड, नागपुर और सागर के दक्षिणी पा्रन्त तक था। ’’ ( दी ओरिजिनल हैविटेन्स आफ भारतवर्ष आर इण्डिया पृष्ठ 37, 38) ।
एच. एम. एलियट-ः ‘‘ भर स्वयं को राजपूतों से उच्च मानते हैं, पूर्व कथित राज से नहीं मानते। वे परस्पर एक दूसरे के साथ खाते पीते नहीं हैं। राजभर लोग स्वयं को राजपूत मानते हैं। राजपूत और राजभर लोग दोनें ही राजाओं के वंषज हैं जो सूर्यकुल और चन्द्रकुल से सम्बंधित हैं। ’’( रेसेस आफ दी र्नौा वैस्टर्न प्रोविन्सस आफ इण्डिया वाल्यूम फस्र्ट लन्दन 1844)।
मिस्टर डब्ल्यू. सी. बैनेट-ः ‘‘ बुन्देलखण्ड में अजयगढ़ और कालिन्जर का इतिहास प्रकट करता है कि एक आदमी जिसका नाम नहीं दिया गया है, वही परिवार का संचालक था। इसी के अधिकार में अजयगढ़ का किला था। इस वंष की एक महिला गद्दी पर बैठी थी जिसका भाई दलकी अन्तिम राजा कन्नौज को परास्त कर के सम्पूर्ण ढाबे पर अधिकार किया था। इसके बाद दलकी मलकी तथा कालिन्जर का नाष हुआ। इनके पास कड़ा और कालिन्जर के दो किले थे। इनका राज्य विस्तार मालवा तक था। दक्षिणी अवध के सांसारिक व्यवहारों से पूर्ण सिद्ध होता है के ये षहजादे भर थे, और घाघरा से मालवा तक राज्य करते थे।’’(दी ट्राइब्स एण्ड कास्ट वाल्यूम सेकेण्ड पृष्ठ 3)।
‘‘‘‘ भर षासकों ने वही किया जो आदिम जातियों के लोग सदैव कर सकते हैं और स्वयं को हिन्दू जाति व्यवस्था में कायस्थों के समान प्रतिस्थापित किया, उनके वंषजों ने 150 वर्षों तक ष्षासन किया और 1247 ई. में वे राजच्युत हुए। उनकी संतति को क्षत्रियों में प्रतिस्थापित किया गया और उन्हें चन्देल के नाम से ख्याति मिली। ’’(इण्डियन एन्अीक्वेरी वाल्यूम फस्र्ट 1872 ,पृष्ठ 266)।
मिस्टर सर ए. कनिंघम-ः ‘‘किसी समय देष में भरों का बोलबाला था। जिनके प्रभुत्व और सभ्यता की प्राचीन परम्परा आज तक चली आ रही है। ’’(हिन्दू ट्राइब्स एण्ड कास्ट वाल्यूम फस्र्ट पृष्ठ 362)।
बन्दोवस्ती आफीसर (अवध प्रान्त) मिस्टर उडवर्न -ः ‘‘भर जाति षूरवीर ,पराक्रमी ,रण कुषल और कला निपुण थी। उनकी सभ्यता स्वयं की उपार्जित सभ्यता है। ’’
मिस्टर डी. एल. ड्रेक ब्राकमेन-ः ‘‘ आर्यों में से भर भी एक जाति है। ऐतिहासिक प्रमाणों द्वारा सिद्ध है कि इस स्थान (आजमगढ़) के प्राचीन निवासी भर तथा राजभर हैं। ’’ (आजमगढ़ गजेटियर पृष्ठ 84 व 155)।
मिस्टर सी. एस. एलियट-ः ‘‘ भरों ने ईसा के थोड़े ही काल पष्चात आर्य सभ्यता का विकास किया। भरों ने कनकसेन की अध्यक्षता में अपने विपक्षी कुषनों को गुजरात तथा उत्तरोत्तर नामक पहाड़ियों की ओर मार भगाया। ’’ डा. फानसिस बच्चन-ः ‘‘परिहार राजपूत षाहाबाद निवासी भरों के वंषज हैं। वर्तमान में बहुत से राजपूत अपनी अँतड़ियों में भरों का खून रखते हैं। ’’(आन दी ओरिजिनल इनहेविटेन्स आफ भारतवर्ष आर इण्डिया गुस्तव आपर्ट पृष्ठ 45)।
डा. ओलघम-ः ‘‘बुद्धकाल के अवनति के समय भर और सोयरी इस देष पर षासन करते थे।’
          अंगे्रजों ने भर ,राजभर जाति के विषय में जो कुछ भी लिखा है उस सबको एक छोटी सी पुस्तक में समेट पाना बहुत ही मुष्किल कार्य है। यदि हम चाहें कि भर जाति के विषय में उनके द्वारा लिखी गई रिपोर्ट ,जनगणना रिपोर्ट, गजेटियर्स आदि का अध्ययन ही कर लें तो इसके लिए कई वष्र्र लगेंगे।
उपसंहार-ः अंग्रेजों द्वारा भर जाति के विषय में लिखी गई सामग्री के सम्बंध में उनकी जितनी प्रषंसा की जाये उतनी ही कम है। राजभर जाति वह जाति है जिसने सतयुग, त्रेता, द्वापर आदि युगों में भी अपना डंका बजाया है। गोरखपुर गजेटियर के पृष्ठ 173,एवं 175 में लिखा है कि जब अयोध्या का नाष हो गया तब वहाँ के राजाओं ने रुद्रपुर में अपनी राजधानी स्थापित की और श्री रामचन्द्र के बाद जो लो गद्दी पर बैठे ,वे लोग भर तथा उनके समकालीन जातियों द्वारा परास्त हुए।
          जौनपुर गजेटियर के पृष्ठ 148 में लिखा है कि जब भरों के ऊपर कठोरता का व्यवहार होने लगा तब कुछ पराधीन भर जाति के लोग अपनी जाति का नाम बदल दिया। समयानुसार धीरे धीरे क्षत्रियों में मिल गये। इस कथन से स्पष्ट है कि बहुत से तरक्कीषुदा राजवंष राजभरें से सम्बंधित हैं। बलिया गजेटियर के पृष्ठ 77 एवं 138 में कहा गया है कि आर्यों में से भर भी एक प्राचीन जाति है।
           इस जाति के नाम पर ही इस देष का नाम भारत पड़ा है। आज भारत के किसी भी क्षेत्र में जाइये इस जाति के नाम पर स्थानों के नाम अवष्य मिल जायेंगे। बिहार प्रान्त का नाम भी इसी जाति के नाम पर पड़ा है। दी ओरिजिनल दनळेविटेन्स आफ भारतवर्ष आर इण्डिया के पृष्ठ 40 पर लिखा है कि काषी के निकट बरना नामक नदी तथा बिहार नामक राष्ट्र भर षब्द से निकला है। क्योंकि एक समय में भर लोग इस प्रान्त पर षासन करने वाले थे और इन्हीं की प्रधानता भी थी। बिहार में गया के पास बारबर पहाड़ी पर षिवलिंग स्थापित है, उसे एक भर राजा ने स्थापित किया है।
                   घर का सिक्का खोटा तो परखैया को क्या दोष ?
          राजभर समाज के लोग चाहते हैं कि दूसरे समाज से उन्हें समुचित आत्म-सम्मान  मिले। दूसरी समाज के लोगों को जब आच के जातीय इतिहास की जानकारी नहीं होगी तो भला वे क्यों आपको सम्मान देंगे ? उन्हें सपना नहीं आता कि आपके पूर्वजों ने किसी जमाने में भारत पर षासन किया था। उन्हें सपना नहीं आता कि आप भरत वंष के हैं या नाग वंष के हैं, या आपके नाम पर भारतदेष का नाम भारत पड़ा है ,या आप प्राचीन क्षत्रिय हैं या उच्च राजपूत हैं या आपकी जाति से ही कई प्रसिद्ध राजपूत वंषों का उदय हुआ है।
          दूसरी समाज के लोगों के पास इतना समय नहीं है अथवा उन्हें मतलब नहीं है  िकवे आपसे सम्बंधित इतिहास की खोजबीन के लिए प्राचीन-अर्वाचीन ग्रन्थों की खाक छानते रहें। फिर आप क्यों दूसरों से अपेक्षा करते हैं  िकवे आपका आदर करें। जब आप में स्वयं आत्म-सम्मान की भावना नहीं है तो दूसरों को आपकी क्या पड़ी है।
          यथार्थ बात तो यह है कि आप लज्जाहीन हो गये हैं। आपकी अंतड़ियों में खून नहीं पानी बह रहा है। आपको अल्प आत्म-ग्लानि भी नहीं होती कि चुल्लूभर पानी में डूब मरो। धिक्कार है ऐसे राजभरों को जिनमें अपनी जाति ,धर्म,और देष की उन्नति के लिए थोड़ा भी लगाव नहीं है। वे तो वैसे ही अपना समय व्यतीत कर रहे हैं जैसे अन्य प्राणी।
          राजभर जाति के विषय में जितनी जानकारी ग्रन्थों में भरी पड़ी है उतनी अन्य जातियों के विषय में नहीं। लेकिन इस जाति के लोगों की स्थिति तो अजगर के समान है कि षिकार स्वयं मुँह में पहुँचे। राजभर समाज के कुछ चिन्तनषील पुरुष कुछ करते भी हैं तो उनकी सहायता करना तो दूर की बात है उनके विरुद्ध विष बमन का कार्य करने में समाज के लोग आगे रहते हैं। राजभर समाज के प्रसिद्ध इतिहासकार भाई श्री एम.बी. राजभर मुम्बई द्वारा लिखी गई महत्वपूर्ण ऐतिहासिक पुस्तकें आलमारी में बन्द पड़ी हैं लेकिन इस समाज के लोगों को षर्म कहाँ जो कि एक एक रुपया एकत्र कर उन पुस्तकों को छपवाकर अपने जातीय गौरव को बढ़ाने में योग दे सकें। किसी ने सच कहा है कि जब अपना ही सिक्का खोटा तो परखने वाले को क्या दोष दिया जाए।
          भारत की छोटी से छोटी जातियां उन्नति के षिखर पर पहुँच गईं, लेकिन धन्य हो राजभर जाति के लोगों का जो कि इनके कानों में जूँ तक नहीं रेंग रही। अरे ! बेषर्मों जरा तो षर्म करो। यदि एक एक रुपया एकत्र करोगे तो प्रति माह एक नई बैंक स्थापित करने की क्षमता आप में है, प्रति माह कई आफसेट प्रिंटिंग प्रेस स्थापित करने की क्षमता आप में है, एक भव्य मंदिर प्रति माह स्थापित करने की क्षमता आप में है, प्रति माह एक विद्यालय स्थापित करने की क्षमता आप में है, जरा अपने आप से पूछो कि कौन सी क्षमता आप में नहीं है।
          राजभर जाति से सम्बंधित ऐतिहासिक पुस्तकें छपवाकर प्रचार प्रसार करना यह तो आपके चुटकी बजाते हो सकता है आवष्यकता है केवल आपके जागने की । हे!बलवानो क्यों चुप्पी साधकर बैठे हो। ध्यान रखो जातीय इतिहास की खोजबीन करने वाले भाई एम.बी. राजभर जैसे महापुरुष सदियों बाद ही अवतार लेते हैं। अवसर मत चूकिए, समय का लाभ उठाइये। समाज को नई दिषा से प्लावित करने में योग दीजिए।
          दूसरी समाज के लोग तो आष्चर्य करते हैं कि सभी जाति के लोग उन्नति कर रहे हैं ,राजभर समाज के लोग क्यों सो रहे हैं। आप इस कलंक को धो डालिए। समाज की उन्नति में तन-मन-धन से योग दीजिए। ऐतिहासिक पुस्तकें छपवाने में योग कीजिए और उन पुस्तकों के प्रचार प्रसार में भी योग दीजिए ताकि इस जाति के गौरव की जानकारी सभी को हो जाए। राजभर समाज के ऐसे लोग जो अपने को राजभर कहलाने से षरमाते हैं, अपनी जाति को छुपाने के लिए दूसरी जातियों की पदवी या उपनाम अपनाकर बुजदिलों की तरह जीते हैं ,हीन भावना से ग्रसित हैं ,उनसे मेरा निवेदन है कि वे अपने जातीय गौरव को जानने का प्रयास करें। सिर उठाकर चलना सीखें। गर्व से कहें कि वे ऐसी जाति में जन्म लिए हैं जिस जाति का राज्य भारत के चप्पे चप्पे पर था। जिस जाति ने अनेक प्रतिष्ठित राजवंषों को जन्म दिया था, जिस जाति ने इस देष की रक्षा के लिए सब कुछ न्यौछावर कर दिया था और जिसके नाम पर इस देश का नाम भारत पड़ा। (शुभेच्छु -आचार्य राजभर ‘‘राजगुरु’’)
                            श्री सुहेलदेवाय नमः
           श्री सुहेलदेव चालीसा एवं आरती
                  आचार्य शिवप्रसादसिंह राजभर ‘‘राजगुरु’’ विरचित
     (यह कृति सन 1997 ईस्वी में लघु पुस्तिका के रूप  में छप चुकी है, एवं वितरित की जा चुकी है।)
                      स्तोत्रं कस्य न तुष्टये
       चमचागिरी व चापलूसी की परम्परा नई नहीं है। जबसे सृष्टि का सृजन हुआ है, तभी से स्वभाविक रूप से इस परम्परा का उदय हुआ है। पहले इसे स्तुति, वन्दना, या प्रशंसा कहा जाता था, आज इसे चमचागिरी कहा जाता है। चमचागिरी की महिमा अपार है।
       महाकवि कालिदास ने कहा है-ः ‘‘स्तोत्रं कस्य न तुष्टये ’’। विश्व में ऐसा कोई प्राणी नहीं है जो स्तुति से प्रसन्न न हो जाता हो। साम, दाम, दण्ड, भेद, इन चार नीतियों में साम (स्तुति) को ही सर्वश्रेष्ठ माना गया है। सभी प्राचीन ग्रन्थ स्तुति से भरे पड़े हैं। सम्पूर्ण यजुर्वेद इसका अच्छा उदाहरण है। हिन्दी साहित्य के एक काल का नाम ही चारणकाल रखा गया है।
      समय समय पर ऋषियों, मुनियों, महर्षियों, साधु-सन्तों ने अपने आराध्यों को प्रसन्न करने के लिए स्तोत्रों की रचना की है। बन्दीजन अथवा चारण तो दूसरों की प्रशंसा कर बड़ा से बड़ा एवं कठिन से कठिन कार्य करा लेने की कला में निपुण थे। चाहे देवी-देवता हों या राजा महाराजा, सभी अपनी प्रशंसा के भूखे रहे हैं। जिनने भी इनकी प्रशंसा की उनने अपना मनोवांछित फल पाया।
       चालीसा, शतक, एवं सहस्त्रनाम आदि स्तुति परम्परा के अंग हैं। स्तुति परम्परा में चालीसा साहित्य को अधिक मान्यता मिली है। वर्तमान में अनगिनत चालीसा उपलब्ध हैं, लेकिन शिव चालीसा और रुद्रावतार हनुमान चालीसा का अपना विशेष महत्व है। वानर वंश में उन्पन्न होने के बाद भी हनुमान जी का पराक्रम अद्वितीय है। (हनुमान जी वानर वंशी हैं, वानर या बन्दर नहीं।)। वे बहुमुखी प्रतिभा के धनी हैं। यदि वे राम की सहायता न करते तो रावण से राम विजय प्राप्त कर पाते यह कहना अत्यंत कठिन कार्य है। तात्पर्य यह कि हनुमान की वन्दना उनके द्वारा उपार्जित पराक्रम का फल है, लोगों की अन्ध श्रद्धा का सूचक नहीं।
       जहाँ एक ओर ऋषियों-महर्षियों ने कपोल-कल्पित पात्रों को लेकर वन्दना साहित्य द्वारा जन सामान्य को उनसे जोड़ा वहीं महान पराक्रमी ऐतिहासिक पात्रों की उपेक्षा भी की। यह सब वर्गवाद की भावना से प्रेरित होकर किया गया। ग्यारहवीं शताब्दि के अवतारी पुरुष, राष्ट्रनायक, वीर सुहेलदेव राय के सम्बंध में लिखे गये पूर्व साहित्य का विनष्टीकरण एक आश्चर्य का विषय है। उनकी प्रशंसा में लिखा गया थेाड़ा बहुत जो भी साहित्य उपलब्ध है उनका चरित्र उजागर करने के लिए पर्याप्त है। हमारा परम कर्तव्य है कि उस महान राष्ट्रनायक की सेवाओं से जन सामान्य को परिचित कराएं एवं श्रद्धा-भक्ति की भावना जगायें।
       उत्तर भारत में श्रावस्ती सम्राट राष्ट्रवीर सुहेलदेव के प्रति जनसामान्य की अगाध श्रद्धा है। सभी लोग राष्ट्रवीर सुहेलदेव को एक अवतारी शक्ति के रूप में पूजते हैं। जनसामान्य की उसी भावना का आदर करते हुए ,उनकी श्रद्धा-भक्ति उवं विश्वास को निरन्तर सम्पुष्ट करने के उद्देश्य से इस वालीसा का अवतरण श्री बीरबलराम वारन्ट आफीसर अनौनी, ओड़िहार, गाजीपुर उ.प्र. एवं श्री शिवचन्दराम स्काउट कमिश्नर ,उत्तर टोला, सतीतर ,सहतवार बलिया उ.प्र. की प्रेरणा से हुआ है। इन दोनों महानुभावों की प्रेरणा से मैं अधिक से अधिक सुहेलदेव साहित्य की रचना कर सकूँगा ऐसा विश्वास है।
       आशा है मेरी इस रचना से आप सब अवश्य लाभ उठायेंगे।
ष्                                                                  शुभेच्छु
                                                              आचार्य राजभर ‘‘राजगुरु’’
                  श्री सुहेलदेवाय नमः
             सुहेलदेव चालीसा
दोहा-‘प्रथम पूज्य,जय गुरु,गिरा,जय-जय जयति जकार।
      भारशिवेशंिहं  जय जयति, पन्च तत्व  जयकार।।1।।
भारशिवों के वंश में, सकल गुणों की खान।
नृप सुहेल जी हो गये, वीर सुभट बलवान।।2।।
जन जन के मन में बसे ,जानत सब संसार।
महिमा बरनन करत  हों, सुमरों  बारम्बार।।3।।
न हि मैं चतुर न गुनी जन,बहुत कठिन यह कार्य।
शिवप्रसादसिंह राजभर,  शरन  परो  आचार्य।ं4।।
वीरसेन  शिवमय भये, देहु शेष आशीष।
पुनि पुनि सुमिरन कर लिखूँ, नृप सुहेल चालीस।।5।ं
चैपाई-‘जयति सुहेल रूप गुन सागर। जय नरेश अतुलित बल आगर।।1।।
जय  लक्ष्मी-सुत, लाल बिहारी। महावीर  अतुलित  बलधारी।।2।।
माघ  सुदी  पंचम  अवतारा। नौ ऊपर  सन्  एक  हजारा।।3।।
मात पिता  सुत पा  हरषाए। सुहलदेव  शुभ  नाम  धराए।।4।।
स्वातीपुरम्  प्रजा  हरषाई। अद्भुत  काम  किए  लरकाई।।5।ं
थ्शव-शक्ति के परम उपासक। दीन हीन जन के दुख नाशक।।6।ं
राष्ट्र प्रेम की अद्भुत  मूरत। परम प्रतापी जन  हित  में रत।।7।।
अविजित राष्ट्रवीर पद मण्डित। भेद रहित किय राज अखण्डित।।8।।
भाला,  तरकस-तीर  विराजे। खडग  प्रचण्ड  हाथ  में साजे।।9।।
तेज तुरग पर सोहैं आपै। नाम सुनत ही अरिदल काँपै।।10।।
भीर परी भारत पे जबहीं। आपन खड़ग संभारो तबहीं।।11।।
पुरुषोत्तम अवतार तुम्हारो। दुष्टन को तुमने संहारो।।12।।
भार देश रक्षा को लीनों। तुम उपकार सबहिं पे कीनों।।13।।
भारशिवों के नाम जगाये। पर उपकार हेतु तुम आये।।14।।
तुम्हरो नाम हरे सब पीरा। रक्षा करहु सुहलदेव वीरा।।15।।
अम्बे ने जब तुमहिं पुकारो। विपदा से तेहि जाय उबारो।।16।।
सैयद सलार मसौद गाजी। गजनी से आयो वा पाजी।।17।ं।
भारत लूटन हेतु लुटेरा। जहँ तहँ डाल दियो है डेरा।।18।।
गाजी तुमसे अनबन ठानी। का गति करी सबहिं ने जानी।।19।।
सैयद गाजी तुमने मारो। रुण्डरु मुण्ड अलग करि डारो।।20।।
प्रेम प्रजा से इतनो कीनों। शिव समान सबको सुख दीनों।।21।।
को करि सके तुम्हार बड़ाई। टेर सुनी सब भये सहाई।ं22।।
तुम्हरे गुन प्रताप अपनाये। तब अकबर को धूल चटाये।।23।।
जय जय श्री सुहेल नृप वीरा। बल बुधि देहु हरहु सब पीरा।।24।।
वीरसेन के वंशज प्यारे। सुख दो संकट हरहु हमारे।।25।।
तुम्हरी संन्तति भई दुखारी। फिरती जहँ तहँ मारी मारी।ं26।।
कोउ न उनको  पूछन वारो। अपने जन को तुम्हहिं उबारो।।27।ं।
किससे  कहें  कहाँ  पे जावें। रक्षा  करो  तोहि गोहरावें।।28।।
श्रावस्ती नरेश बलवन्ता। जय जन बुद्ध जयति अरिहन्ता ।।29।।
सब छल कपट छाँड़ि तुहि ध्यावों। दीप, धूप, नैवेद्य चढ़ावों।।30।।
नमो नमो जय गौ प्रतिपालक। नमो नमो जय अघकुल घालक।।31।।
नमो नमो जय लक्ष्मी नन्दन। नमो नमो जय कुमति निकन्दन।।32।।
नमो नमो सुख सम्पति दाता। नमो नमो दुख दैन्य  निपाता।।33।।
नमो नमो निज जन अपनावो। नमो नमो जय सुमति बढ़ावो।।34।।
तोहि  शपथ है भरत देश  की। वीरसेन  नृप, पूज्य  शेष  की।35।ं
तेारी  शरण  पड़े  जन  तेरे। काटहु  जनम  जनम  के फेरे।।36।।
जो  नित  पढ़े  सुहेल  चलीसा। तज  छल चरन नवावे शीशा।।37।।
चारहु  सुक्ख  परम  पद पावै। साखी  शेष  भारशिव  गावैं।।38।।
शिवप्रसादसिंह  जपै  हमेशा। मिले  महा  सुख  कटे कलेशा।ं39।।
श्रृद्धा भक्ति सहित नित ध्यावो। कहें ‘‘राजगुरु’’’ सद्गति पावो।।40।ं
दोहा-ः मेदीसिंह सुत पुनउसिंह, ताके सुत सुखलाल।
       माता  केसरिनी-तनज,  अग्रज  प्रभूदयाल।।‘6।।
       सन् स्वतंत्र दिन दनुज गुरु ,कायस्थ कला अपरेल।
       सुख  केसरिनी  जोग शिव,, तन  धारो  जग जेल।।7।।
       सुहेलदेव  चालीस  को, कीनों  सोइ प्रकाश।
       सुबह शाम जो भी पढ़े, होय दुसह दुख नाश।।8।।
 आचार्य विरचित सुहेलदेव जी की आरती
जय जय वीर सुहेलदेव अक्षर अवतारी।
राजाधिराज  करूँ  आरती  तुम्हारी।। जय जय वीर ....
जननी जय लक्ष्मी, जय जनक श्री बिहारी।
रूपवान, गुण निधान, छाजित छबि न्यारी।। जय जय वीर .....
भाला,  तूणीर,  तीर, खडग हस्तधारी।
राजित नरकेसरी, है तुरग की सवारी।। जय जय वीर .....
प्रजापाल, शीलपाल,  जय  गौ  हितकारी।
दुष्ट-दलन, कष्टहरण, जन जन सुखकारी।। जय जय वीर .....
पराक्रमी,  धीर,  महावीर,  धरमधारी।
तेज-पुन्ज, साहसी, अनन्त अविकारी।। जय जय वीर .....
लीला  अपार  करुणामय  तुम्हारी।
भारशिव दिवाकर,सुधि लीजियो हमारी।। जय जय वीर .....
धूप,  दीप,  मेवा, सब अर्पण शुभकारी।
अभय करो ,अरज करें ,तुमसे नर-नारी।। जय जय वीर .....
श्रृद्धा, विश्वास सहित आरती उतारी।
मेरी  सुधारो  जस  सबकी सुधारी।। जय जय वीर .....
गाजी सैयद सालार मसूद का बध
लये सुहेलदेव तलवार चढ़े रण भूमि में....टेक
घोड़ा भये सवार तीर तरकस लये भाला।
इष्टदेव को सुमर ,गले धारण की माला।।
जय लक्ष्मी के लाड़ले बिहारीमल के पूत।
चैबीसा रण बाँकुरे, हिम्मत गजब अकूत.....चढ़े रण भूमि में...
गाजी सैयद सालार हर लियो भगिनी अम्बे।
चले  छुड़ावन  सुहेलदेव  सुमरत जगदम्बे।।
दोनेंा की सेना भिड़ीं भयो युद्ध घमसान।
सैयद  गाजी डर भगो लेकर अपने प्राण.....चढ़े रण भूमि में...
श्रावस्ती  सम्राट  वीर  हिन्दू  हित  रक्षक।
सुहेलदेव को नाम सुनत भई छाती धक धक।।
कुटिला नदी के पास में घेर लियो है जाय।
सैयद छुप गयो कुन्ज में सूर्यकुण्ड में जाय...चढ़े रण भूमि में...
सुहेलदेव हुंकार कहो जय मात  भवानी।
थर थर सैयद कँपे भयो तन पानी पानी।।
भाला फेंको वीर  ने कीन्हों जस आखेट।
भाला जाकर के धंसो सैयद गाजी के पेट...चढ़े रण भूमि में...
घोड़े से गये उतर भारषिव कुल के भूषण।
हाल न बरनो जाय क्रोध से जलता तन मन।।
हन्स राजभर वंष के उठा लियो तलवार।
घड़ से सिर को काट के गाजी को दयो मार...चढ़े रण भूमि में
      सुहेलदेव महिमा गीत
तोरी महिमा अगम अपार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ.......टेक...
सारे उत्तराखण्ड में तोरी हो रही जय जयकार,
सहेलदेव हो रही जय जयकार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ..तोरी महिमा..­
जय लक्ष्मी के लाड़ले, स्वातिपुरम अवतार,
सुहेलदेव स्वातिपुरम अवतार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ.. तोरी महिमा...
राजा बिहारीमल के दुलारे कियो राज उजयार,
सुहेलदेव कियो राज उजयार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ..तोरी महिमा...
दीन दुखिन के पालनहारे खोल दियो भण्डार
सुहेलदेव खोल दियो भण्डार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ..तोरी महिमा...
हिन्दुन पर जब विपदा आई लियो रक्षा का भार
सुहेलदेव लियो रक्षा का भार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ..तोरी महिमा...
कलम कियो सिर गाजी मियाँ को लियो हाथ तलवार,
सुहेलदेव लियो हाथ तलवार सुहेलदेव हमें तारियो हाँ.. तोरी महिमा...
     जय सुहेलदेव की बोल
मन  मूरख  लवलीन  हो, जहाँ तहाँ मत डोल।
षुभदा षरण सुहेल की,  सुहलदेव जय बोल।ं1।।
छोड़  पराई  दासता, इनकों देख  टटोल।
काहे भूलो आपनो,  सुहलदेव  जय बोल।।2।।
तेरो  तेरे  पास  है, हिरदय  के पट खोल।
मोहिनि मूरत मन मुकर, सुहलदेव जय बोल।।3।।
भटकत भली न भावना ,लीन्हों  सबखें तोल।
अब तू आजा षरन में , सुहलदेव जय बोल।।4।।
हाट बिके नहिं दाम कछु, तो भी बहुत अमोल।
रसना निषिवासर सदा,  सुहलदेव  जय बोल।ं।5।।
बीती  सो  बीती  सुधर,  मत  हो डांवाडोल।
मोल समझ अब नाम का, सुहलदेव जय बोल।।6।।
हैं सब प्यासे प्रेम के, रसना  मिसरी घोल।
प्रेम पाग में सब पगें,  सुहलदेव जय बोल।।7।।
सुखद,फलद,भव भय हरन,,नहिं कल्पना कपोल।
सुफल  मनोरथ  हांेयगे,  सुहलदेव  जय बोल।।8।।
जितनी  रही  सुधार ले, कर मत टालमटोल।
सीख धरहु आचार्य की, सुहलदेव जय  बोल।।9।।


   
राजगुरु के सवैया (राजभर प्रवृत्ति पचीसा)

        खून पानी हो गया
खून नहीं जिनकी नस में ,भरा है षरीर लबालब पानी।
बंांह कहां फड़के उनकी ,विरथा है सुनावब गर्व कहानी।।
केंकड़ ,दादुर भंति सुभाय ,जे नांहीं तजें अपनी नादानी।
ऐसन खातिर ‘‘राजगुरू’’ ,विरथा न गवां अपनी जिन्दगानी।ं।1।।

       मुरदा हो गये हैं
संास चले कछु कीजे दवाई ,मुरदा में नहीं मरदानगी आवे।
विचरें पषु से बस पेट ही पालें,कहां सेे भला कुलखानगी आवे।
थिर सरवर सरिता  नहींदेखी, कहां  बढ़बे की  रवानगी  आवे।
तुम जानत हो सब ‘‘राजगुरू’’, है जान नहीं क्यों जहानगी आवे।।2।।

   मुखिया भिखारी बना रहे हैं
भीख दिबैया हते जो किसी जुग ,आज हैं देखो वे भीख लिबैया।
किरीट से सोहत ते जिनके सिर, उनके सिर हो गये लात खबैया।।
मुखियान की आदत ही जब भीख की ,लड़ैयन खें कर डारो लड़ैया।
तुम कैसे बचाओगे ‘‘राजगुरू’’ ,जिनकी तकदीर है खाबड़-खैया।।3।।

        करनी का फल
भिखमंगे भये अपनी करनी तुम ,दूसर दोष कदापि न दीजे।
सुरा ने समेटो ,हैं सिमटे उसी में, मानत नाहिं पीजे जी पीजे।।
माला में एक कभू न गुथे, तुम करनी का फल लीजे जी लीजे।
‘‘राजगुरू’’ थक थाक भये अब, न भाई सही न सही हैं भतीजे।।4।।

   विधायक/सांसद बनने का जुगाड़
एक  चले नहिं ,दूजो बनावत ,सभा  अरु  संघ बने मनमाने।
अध्यक्ष को लेटर पेड दिखाय, चुनाव जुगाड़ लगा है लगाने।।
समाज  की सेवा  गई भाड़ में ,विधायक  बनबे  की मन ठाने।
समाज को आम़ सों ‘‘राजगुरू’’,चूस के फिर गुठली सों फिकाने।।5।।

          भाषणबाज
म्ंांच में माइक हाथ लगे ,तब भाषण  देत है  ऐसे ऐसे।
ताली बजें सब वाह करें अरु, मन्च कंपे भूकम्प हो जैसे।ं।
ऐसा लगे कि मसीहा मिला अब,मन्च तजे सब भूलत भैसे।
‘‘राजगुरू’’ चुपचाप लखें सब, खेल मदारी के कैसे कैसे।ं।6।।

         मरजी का राजा
राजा  ही  राजा जे  पैदा भये ,ढूंढ़े  मिले  इनमें  न प्रजा है।
ताल किनारे ये खोजत मीन ,दें दण्ड लिए अपने को सजा है।।
कोऊ की बात को कोऊ सुने नहिं, चाहें चले इनकी ही रजा है।
सारी उमर इन्हें ‘‘राजगुरू’’ दई, नहीं सुधरे तब मौन, तजा है।।7।।

           अहंकारी
बताओ जो बात, अहम् गर्रात ,समझाओगे तो तुमको समझावे।
दूजों की लातें सहेगा भले ,पर आपन को लात जरूर दिखावे।।
समेटो तो ऐंठत ‘‘राजगुरू’’, अरु बाजीगरी से जे बाज न आवे।
ब्रह्मा अरु विष्णु, महेष भी मौन ,गुरू को गिराये तो कौन बचावे।।8।।

        गुरु और ईष्वर
माटी को माधव होवे गुरू, तऊ झुकिये ,विष्वास  तो कीजे।
गुरू का हो मान सुफल वरदान ,झूठ न होवे ,अदृष्य पसीजे।।
श्रृद्धा-विष्वास भलीभूत होवे ,बुजुर्गन, ग्रन्थन से जंच लीजे।
ग्ुारू अपमान  सहे नहीं ईष्वर ,‘‘राजगुरू’’ वह देत नतीजे।।9।।

      अपने जन को हरवावे
राज की नीति न जाने ये राजा ,दूजे की बातन में लग जावे।
दूजे को तो हरा न  सके ,अपने  जन  को निष्चय  हरवावे।ं।
देष ,समाज की बात न सोचत, स्व-प्रतिषोध अलाव जलावे।
माटी मिले खुद ‘‘राजगुरू’’ ये, अपने जन माटी में मिलवावे।।10।।

             कौन बचाये
वोट तो लेय समाज से जाय के ,पर  नौकरी  दूसरे को दिलवाये।
पीड़ा बताओ तो पीड़ा ही देता है, तुमने न दिया ,कह के उमझाये।।
जानत न कि समाज नाराज हो ,तब पूरक वोटे कहां से ये पाये।
‘‘राजगुरू’’ जो समाज ही रूठ के ,उतान करे तब कौन बचाये।।11।।

        स्व-इतिहास के सगे नहीं
इतिहास को तो ये चाट रहे ,सब बेंच रहे हैं किले अरु खाई।
म्हापुरुषन को  नीलाम कियो ,खुद  मंच पे बैठ करे अगुवाई।।
स्थानन नामन को भी मिटाये ,प्रस्ताव बनाय  दिए पलटाई।
खून सगे नहीं ‘‘राजगुरू’’, परखून फिदा निज खून कसाई।।12।।

          घर के देव ललांय
जिसने पुरखन के षीष उड़ाये ,उसकी दरगाह जा षीष झुकाये।
मन्नत  मांगे  अरु  इत्र  लगाये ,अरु  चादर रंग विरंगी चढ़ाये।।
देष बचावन वाले  को भूलत ,कातिल विदेषी के ये गुन गाये।
‘‘राजगुरू’’ पड़े अक्ल में पत्थर ,देकर के जनम माता पछताये।।13।।

          किससे पड़ा पाला
साहित्य में सूर, षराब में षूर, षिक्षा से दूर, रत मांस मसाला।
अर्थ व धर्म , काम व मोक्ष में ,भैंस ही जानिये अक्षर  काला।।
पैदा  हुआ बस पैदा हो सन्तति ,पेट भरे बस कमाय निवाला।
सामाजिक स्तर जानिये कृषतर,‘‘राजगुरू’’ किससे पड़ा पाला।।14।।

           मन मलीन
कछू धन जोड़े ,चढ़े रहें घोड़े ,अपने न दिखें वे धरा न निहारें।
कहावत ऊंचे ,हिया से हैं सूंचे ,वे जात जतौनी न जात उचारें।।
औरउ न धनगीर बनें  कहूं , कुघात लगात हैं दाव पछारें।
‘‘राजगुरू’’ मन माटी मलीन है, बलायें बुरी कैसन निरबारें।।15।।

         क्षत्रियत्व लोप
भये चुपचाप ,रहे सब ताप, कर  जो  गये  वे कृतित्व  मिटाते।
पुरखों की थाती संभाल सके नहिं ,नादानी करें स्वामित्व मिटाते।।
वे तो गुमे तुम गुमाने की राह पे ,अपना ही आप अस्तित्व मिटाते।
‘‘राजगुरू’’ डर  डर  के चलें ,क्षत्रिय  अब  क्षत्रियत्व  मिटाते।।16।।

        सब कीच लबादा
धुत्त  के  सुत्त  करें  नेतृत्व, कलि  षीष रहे ,न  रही मर्यादा।
राज की रट्ट ,हैं नेम से फट्ट ,समझें नृप्प ,खेल के प्यादा प्यादा।।
नहीं कुछ याद ,भये बरबाद ये ,जीवन दाद ,मुंह मिट्ठू के दादा।
कहां तक बखानोगे ‘‘राजगुरू’’, ओढ़ रखे सब  कीच  लबादा।।17।।

          सुजन पछतावें
जो हैं  सुजान,  अति हलकान, कुवृत्ति  प्रवृत्ति ,धड़ल्ले चरावें।
सुजान जो जोड़ें ,नादान तो तोड़ें ,फोड़ें समाज ,तुरत बिखरावें।।
‘‘राजगुरू’’ जब  जोड़त हारें ,सुजानहु  खिन्न विचार में लावें।
क्हां से भये इन बीच में पैदा ,माथे को ठोंकें सुजन पछतावें।।18।।

         समाज के द्र्रोही
चितौड़ा को छोड़ा, श्रावस्ती है बस्ते में ,डलमउ हिरानो है, भूली भदोही।
लखनऊ को सौंपा  हाथों पराये में ,विदिषा,  भरहुत के कोऊ न टोही।।
इतिहास  गाये ,पर  अपने  भुलाये, पराये  नहीं , अपने  निर्मोही।
‘‘राजगुरू’’ नहीं दूजों को दोष ,घर  में ही पाले  समाज के द्रोही।।19।।
           धरती के भार
कौन है बीस और कौन उन्नीस है ,मुष्किल है अन्दाज लगाना।
षेर के ऊपर  बब्बर षेर हैं ,डीह  पर  डेरा ,किले पे ठिकाना।।
जिनके महल ,वे करें न पहल ,यों समझो जाहिलता के राना।
‘‘राजगुरू’’ सब क्षेत्र में सून हैं ,धरती के भार सो भार बढ़ाना।।20।।
         जीवन भर सोबो
है  नहीं  चाह ,नहीं  उत्साह ,तकदीर पे  आपनी केवल रोबो।
उन्नति बात जो कोउ कहे  ,पल भर न टिकें बस बात बिलोबो।।
‘‘राजगुरू’’ सब  देख  रहे लत ,पाबो  नहीं  सब खोबो खोबो।
ऐसा लगे कि श्राप है ब्रह्म को ,कमाबो, खाबो, जीवन भर सोबो।।21।।
         बिना डोर की पतंग
बे-रंग है जीवन  रंग नहीं ,अंगड़ाई  के  लायक  अंग नहीं।
अपनों से सदैव ही जंग करें ,पर से ,परकटे से हैं ,जंग नहीं।।
षिक्षा हो ,अर्थ हो ,राज की नीति हो, दूजों से सीखत ढंग नहीं।
‘‘राजगुरू’’  ये  तो  डोर  ही तोड़त ,डोर बिना तो पतंग नहीं।।22।।
           तकदीर के हन्ता
सद्वृत्ति की ओर प्रवृत्ति मुड़े ,भाव जुड़ें ,हो समाज की चिन्ता।
आपस  मेल  मिलाप  बढ़ावें ,द्वेष  तजें  अरु बनें सब मिन्ता।।
लेकिन सब उलटो पुलटो ,खुदी ही खुदी तकदीर के हन्ता।
‘‘राजगुरू’’ समझावे कितेक ,हारे  महन्त और हारे हैं भन्ता।।23।।
            राज रखो
राज भरे , हिय रंजिष  के ,राज रखो, मत राज उंघारो।
होकर मौन रहो निज भौन ,औरहु काम सो काम संवारो।।
माथा को बांच करावहु जांच ,सामाजिक षोध का लेहु सहारो।
‘‘राजगुरू’’राजाओं के बीच में ,वृथा न पिसो ,जिनगी न बिगारो।।24।।
            नादानी
कोउ सुजान लिखेगा पुरान ,भार के भार धरा अकुलानी।
गाय का रूप धरा धर टेरे ,दुहरावेंगे वे अवतार कहानी।।
चेत सको तो चेतहु चातुर ,मजाक न मानहु मन्थन बानी।
‘‘राजगुरू’’ सब जानत आहीं कि,नादान न छोड़ेंगे नादानी।।25।।

21 टिप्‍पणियां:

  1. कैलाश नाथ राय जी, आपके भीतर बैठे हुए परमात्मा को मेरा प्रणाम
    मैं कई सालों से एक पुस्तक "एक जाति का दर्द" नामक पुस्तक पर काम कर रहा हूँ, यह पुस्तक राजभरों के इतिहास पर केन्द्रित है. इस सन्दर्भ में मै आपसे बात करना चाहता हूँ. क्या आप अपना फोन नंबर दे सकते हैं. मेरा नंबर 9532458399 है.

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  2. जरूर यह आर्यपुत्र दिवोदास जिसका पुत्र सुदास के अलावा प्रतर्दन के वंशावली का ही है जिसको विस्वामित्र और वशिष्ठ ने कोई जगह नही दी

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  3. निःसंदेह यह शिबिर जन के दुर्गों और उनकी बीरता पूर्ण कहानियों को अपने पूर्वजों की कहानियां बना कर पेश किया है लेकिन इसको पता नही है भर का इतिहास राजभरों का इतिहास नही ही सकता

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  4. भर का इतिहास उन्ही शिव के उपासकों का है जो आर्यो से लड़े तो नाग कहलाये और कुछ उनके साथ रक्त मिश्रित करके शादी विवाह भी किये और कुषाणों से भारशिव बनकर लड़े गुप्त काल मे राज सत्ता में सेना के उच्च पदाधिकारियों का कार्य करते हुए लड़ाइयां लड़ी और तुर्को के आगमन का सामना अपनी भाले इस्तेमाल किये भर कहलाये और मुस्लिमों से तलवार लेकर लड़े और पासी कहलाते हुए मुगलों के समय डकैत बनकर आम जनता को लाभ पहुचाये मुगलो के अवनति के समय ज़मीन से जुड़कर उनके सेना में शामिल होकर अंग्रेजी सेना के ख़िलाफ़ लड़े और क्रिमिनल ट्राइब कहलाये , जमीन से जुड़कर मुख्य विकास धारा से जुड़कर भारत की स्वाधीनता के लडाई में भाग लेकर अंग्रेजों द्वारा जरायम जाति घोषित हुए और विकास के निचले पायदान पे जाने को विवश हुए , 1947 के बाद भी विमुक्त जाति का दर्जा पाए जब जरायम एक्ट इन लोगो पर से हटाया गया आर्यों के पहले की जाति होने के कारण अनुसूचित जाति में आकर आज पासी नाम से जाने जाते है जो मुग़लो के समय ग़ुलामी स्वीकार करके हिन्दू मनुवादी समाज मे आये पानी भरने लगे उनको रामचरित मानस में नीच भर कहा गया और इस कारण अपने को राज से जोड़ लिए लेकिन अंग्रेज इतिहास कारो ने नईजाति न देते हुए भर को पासी ही माना और इनको भी जरायम एक्ट के तहत रखा लेकिन मनुवादी मलाई खाते खाते अपनी जगह भुल कर राजभर अपने को नेहरु के पिछड़ी से शामिल करने का विचार रखा

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  5. जैसे आदि मानव की संतान आज इतने भागो में विभाजित है वैसे ही समय समय के अंतराल हम मानव अलग अलग होते गए

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  6. उत्तर
    1. मुझे ये बताओ की अंग्रेज ने राजभर को क्रिमिनल एक्ट मे को डाला और १९५२ मे राजभर के उपर जो एक्ट लगा उस खारिज किया

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  7. Main chahta hu ki rajbhar hamari jati ko aaj bahut hi km log jante hai yadi ham kisi ko batate hai ki hm rajbhar hai chhatriye hu to koi nhi manta plz isko socal media ke madhyam se sbko btaya jaye or hame smman mile plz everyone one shere 🙏

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