अनुक्रमणिका
(1) राजभर शासक इन्दु भर (इन्दुपुर देवरिया) 645 ई. से 702 ई. तक
(2) इन्दुपुर की कालिका भवानी
(3) भर जाति के नाम पर भारत का नामकरण
(4) राजभर शासक मित्रसेन (भौवापार गोरखपुर 1252 ई. से 1278 ई.
(5) षक्ति-स्वरूपा महारानी वल्लरी देवी
(6) राजभर शासक राम का गोरखपुर में शासन (7 वीं सदी ई.पू.)
(7) भोगी से योगी बने भर राजा भर्तªहरि ( 7 वीं सदी )
(8) राजा सोहनाग (दूसरी सदी- सोहनाग देवरिया)
(9) राजा शिवविलास- 8वीं सदी (मझौली राज देवरिया)
(10) साम्प्रदायिक सद्भावना के प्रतीक थे -महाराजा सुहेलदेव
(11)राजभर राजा रुद्रसेन का पतन (चैथी शताब्दी)
(12)
(1) राजभर शासक इन्दू भर (इन्दूपुर देवरिया )
(645 ईस्वी से 702 ईस्वी तक)
(लेखक-ःश्री रामचन्द्र राव, ग्राम-ःखैराबाद, पोस्ट-ः पिपराइच (परशुरामपुर), जिला-ः गोरखपुर उ.प्र.)
जिला देवरिया मुख्यालय के पश्चिम गौरी बाजार एक रेल्वे स्टेशन है ! गौरी बाजार से रुद्रपुर मार्ग पर किलोमीटर 4 पर सड़क के पश्चिम इन्दूपुर ग्राम है ! इन्दूपुर गांव ऐतिहासिक गांव है ! गांव के दक्षिण कालिका भवानी का विशाल मन्दिर है ! मन्दिर के दक्षिण पश्चिम दिशा में मन्दिर के पास ही बिखरे हुए पुराने ईंटों का ढेर आज भी मौजूद है ! जिसके अवलोकन से लगता है कि यहां पर बहुत पहले किसी राजा का गढ़ रहा होगा ! किम्वदन्ती है कि विक्रमी संवत् 745 अर्थात सन 688 में यहां पर इन्दू भर नामक राजा का शासन था ! राजा इन्दू भर यहां पर एक स्वतंत्र शासक के रूप में षासन कर रहे थे ! राजा इन्दू का राज्य उत्तर दिषा में इन्दूपुर से 16 किलोमीटर तक तथा दक्षिण में 7 किलोमीटर तक पूरब में देवरिया तथा पश्चिम में चैराचैरी तक विस्तृत था ! आज भी यह जनश्रुति प्रचलित है कि इन्दूपुर को राजभर शासक इन्दू ने बसाया था और उन्हीं के नाम पर इसका नाम इन्दूपुर पड़ा ! लोग कहते हैं कि इन्दू भर के पूर्वजों के समय से ही यहां पर राजभरों का शासन रहा है ! राजा इन्दू के समय में इन्दूपुर के दक्षिण रुद्रपुर में राजा लवंगदेवा का शासन था ! राजा लवंगदेव अयोध्या के राजा दीर्घबाहु के 52 वीं पीढ़ी में पैदा हुए थे । राजा लवंगदेव के समय लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में राजा हर्ष का ष्षासन था !राजा हर्ष बौद्ध धर्म के अनुयायी थे । रुद्रपुर के राजा लवंगदेव का उस समय गोरखपुर के रामगढ़ के पास रामग्राम में जहां पहले बौद्ध विहार था वहीं पर उनकी एक सैनिक छावनी थी ! एक बार विलासी बौद्ध भिक्षुओं ने कुछ युवतियों को जबरन बौद्ध भिक्षुणी बनाने हेतु इसी बौद्ध विहार में कैद कर रखा था । वैदिक धर्मी राजा लवंगदेव को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने उन युवतियों को छुड़ाने के लिए सैनिकों को भेजा ! उनकी सेना ने उन बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला और युवतियों को छुड़ा दिया ! यह सुनकर बौद्धधर्मी राजा हर्ष की क्रोधाग्नि भभक उठी ! उसने अपने सेनापति अरुणाश्व उर्फ अर्जुन को राजा लवंगदेव को उसके किये की सजा देने के लिए सेना के साथ रुद्रपुर भेजा ! अरुणाश्व ने मयूरगढ़ (राजधानी) डोमनगढ़ व रामगढ़ आदि इस क्षेत्र के कई गढ़ों को जीतते हुए रुद्रपुर पहुंचा ! उसने रुद्रपुर के सकुनकोट को चारों तरफ से घेर लिया और युद्ध में राजा लवंगदेव को मार डाला ! राजा लवंगदेव के मर जाने के बाद हाहाकार मच गया ! उस समय राजा लवंगदेव के बच्चे अभी छोटे थे ! राजा लवंगदेव का सेनापति जिसका नाम भी अर्जुन था तीनों राजकुमारों महिमाशाह, महिलोचनशाह और चन्द्रभानशाह को साथ लेकर पश्चिम की तरफ भाग खड़ा हुआ ! राजा हर्ष के सेनापति ने राजा हर्ष के निर्देशानुसार रुद्रपुर के राज्य को कई भागों में बांटकर छोटे छोटे राजाओं को वितरित कर दिया । जो निम्नांनुसार था-- (1) तप्पा उमरा तथा तप्पा बटुका इन्दू भर को (2) उसके आसपास के क्षेत्र को एक पवार ठाकुर को (3) गोरखपुर तथा डोमनगढ़ कोट डोमन कटार राजा को (4) सकुनकोट मझौली के विसेन ठाकुर को (5) भौवापार एक राजभर शासक को (6) तथा कटहरा तथा लेहुड़ा एक बंजारा सरदार को दिया !
इस घटना को श्री अश्वनी द्विवेदी ने इस प्रकार उल्लेख किया है-‘‘ राजा बृजभान के 51 पीढ़ी में राजा लवंगदेव सिंहासन पर बैइे ! उस समय हर्ष सम्पूर्ण उत्तर भारत का सम्राट था ! वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था ! विलासी बौद्ध भिक्षुओं ने रामगढ़ (गोरखपुर) के निकटवर्ती अपने रामग्राम नामक विहार में कुछ कन्याओं को बलात् बौद्ध भिक्षणी बनाने के नियत से बन्द कर दिया । उस समय रामगढ़ में राजा लवंगदेव की फौजी छावनी थी ! लवंगदेव की सेना ने आक्रमण करके बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला और उनके बौद्ध विहार को जला दिया ! यह सुनकर हर्ष ने लवंगदेव को दण्ड देने के लिए अरुणाश्व के नेतृत्व में एक सेना भेजी ! उन्होंने सबसे पहले डोमिनगढ़ को घेरा उसके बाद रामगढ़ को और मयूरगढ़ वर्तमान ग्राम (राजधानी) को जीतते हुए शकुनकोट को घेर लिया ! अरुणाश्व उर्फ अर्जुन के सैनिकों ने धोखे से लवंगदेव को मार डाला ! उसके मरते ही किले में हाहाकार मच गया ! किले को अधिकार में कर लेनं के पश्चात अर्जुन ने राज्य को कई भागों में बांट दिया ! (1) तप्पा उमरा व बटुका इन्दू भर को (2) उसके आसपास का इलाका एक पवार ठाकुर को (3) गोरखपुर तथा डोमिनगढ़ कोट को डोम कटार राजा को (4) शकुनकोट मझौली के विशेन ठाकुर को (5) भौवापार राजभर राजा को (6) तप्पा करहरा तथा लेहड़ा एक बंजारा सरदार को सौंप दिया !(समाचारपत्र-- जनसंदेश टाइम्स ,1 जनवरी 2012 पृष्ठ 4, षीर्षक सूर्यवंशी राजा वशिष्ठसेन ने बसाया था रुद्रपुर नगर लेखक -अश्वनी द्विवेदी) राजा इन्दू को अपने राज्य के साथ दो और तप्पा मिल जाने के से उनका राज्य विस्तृत हो गया ! राजा इन्दू के यश में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी ।
सन 647 ईस्वी में राजा हर्ष का देहान्त हो गया ! राजा हर्ष के मरते ही पूरे उत्तर भारत में अराजकता की लहर दौड़ गई। जिन राजाओं की रियासतें चली गई थीं वे उसे पाने के लिए प्रयत्नशील होने लगे ! छोटे छोटे राजा राज्य विस्तार को लेकर आपस में लड़ने लगे !उधर राजा लवंगदेव का सेनापति अर्जुन जो निःसन्तान था तीनों रातकुमारों को लेकर थानेश्वर पहुंचा था एक छोटे राजा को परास्त करके अपनी सत्ता कायम की । तीनों राजकुमार कुशल सेनापति का सानिध्य पाकर उसके कुषल मार्गदर्शन में अति शीघ्र एक परिपक्व रण योद्धा बन गये ! सन 688 में टिहरी गढ़वाल में अर्जुन के सेनापति के रूप में कई लड़ाइयां लड़ी और विजयश्री भी मिली ! राजा अर्नुन ने उसी समय उन्हें श्रीनेत घोषित किया । सन 688 में अर्जुन ने टिहरी गढ़वाल के श्रीनगर में एक राजधानी कायम की और महिमाशाह को वहां का राजा घोषित किया । 7 वरं सदी के प्रारम्भ में आन्तरिक अशान्ति का दौर चला ! हिन्दू और बौद्ध आपस में लड़ने लगे ! ऐसी परिस्थिति में राजाओं के राज्य का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था ! उसी समय सैन्य शक्ति सशक्त हो जाने पर महिमाशाह को अपने पैतृक राज्य रुद्रपुर की याद आने लगी ! महिमाशाह ने अपने दोनों भाइयों को रुद्रपुर की रियासत पुनः वापस लेने हेतु प्रशिक्षित घुड़सवारों के साथ एक सैन्यदल रुद्रपुर को भेजा । सर्वप्रथम रुद्रपुर पर आक्रमण किया ! इस अप्रत्याशित आक्रमण से रुद्रपुर की रियासत पर कब्जा जमाये विश्वसेन राजकुमार घबड़ा गया और रात्रि के समय रुद्रपुर को छोड़कर सरयू नदी की तरफ भागकर अपना जान बचाया ! रुद्रपुर पर कब्जा करने के पश्चात इन्दूपुर पर आक्रमण किया ! उस समय इन्दूपुर पर राजभर शासक इन्दू का शासन था ! राजा इन्दू ने बु’िद्धमानी से काम लिया ! महिलोचन शाह से युद्ध न करके आपस में समझौता कर लिया ! समझौते के अनुसार राजा इन्दू को इन्दूपुर से उत्तर 16 किलोमीटर तथा दक्षिण में 7 किलोमीटर पष्चिम में तरकुलहां तथा पूरब में देवरिया तक इलाका इन्दू भर को मिला ! इस घटना को श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ने निम्नलिखित प्रकार से उल्लेख किया है-ः
‘‘ उत्तर भारत की अशान्ति व्यवसथा देखकर महिमाशाह ने जो उस समय गढ़वाल के श्रीनगर में शासन कर रहे थे अपने दोनों भाइयों महिलोचनशाह और चन्द्रभानशाह को एक प्रशिक्षित घुड़सवार सेना की टुकड़ी के साथ अपने पैतृक राज्य रुद्रपुर पर पुनः अधिकार करने के लिए भेजा । महिलाचनशाह अपने सैनिकों के साथ गोरखपुर आये ! आते ही सबसे पहले उन्होंने रुद्रपुर पर आक्रमण किया ! मझौली का विश्वसेन राजकुमार जो उस समय रुद्रपुर पर अपना अधिकार जमाये बैठा था श्रीनेतों के अप्रत्याशित आक्रमण से घबरा गया ! वह मध्य रात्रि में बिना लडे ही चुपके से सरयू नदी के कछार में भाग गया ! रुद्रपुर के उत्तर का इलाका उस समय इन्दू भर के आधीन था ! इन्दू भर चालाक व दूरदर्षी था ! वह समझ गया कि श्रीनेतों का सामना करना उसके वष के बाहर है ! इसलिए उसने बिना यु’द्ध किये ही अपना इलाका महिलोचनशाह को दे दिया ! महिलोचनशाह ने इन्दू भर के इस व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे गुजारे के लिए रुद्रपुर से ढाई कोस उत्तर पर 5 कोस का इलाका दिया ! मौर्य ठाकुर ने भी जिसके अधीन मयूर गढ़ था बिना लड़े ही गढ़ व इलाका राजा महिलोचनशाह को सौंप दिया ! किन्तु डोमिनगढ़ के डोम कटारों तथा भौआपार के राजभरों ने बिना युद्ध किए अपना इलाका देना अस्वीकार कर दिया ! (समाचारपत्र;- दैनिक जागरण गोरखपुर 9 सितम्बर 1997 पृष्ठ 5 ष्शीर्षक अतीत का आईना , लेखक -अयोध्याप्रसाद गुप्त ), तब से इन्दूपुर में राजा इन्दू भर का षासन अनवरत सन् 702 तक चलता रहा ! सन 702 ईस्वी में इन्दू भर का देहान्त हो गया ! जनश्रुति है कि इन्दूपुर में राजा इन्दू भर के पहले उनके पूर्वजों तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके वंशजों का शासन रहा है । राजा इन्दू भर के वंशजों में वर्तमान समय में श्री रामकेवल, श्री रामबृक्ष और बहीर उर्फ सर्कस पुलगण, शिवपूजन आदि मौजूद हैं , ये लोग वर्तमान इन्दूपुर गांव के भर टोलिया में रहते हैं ! आज इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है ! राजा इन्दू के कुछ वंशज फाजिलनगर कुशीनगर में जोर बस गये हैं ! राजा इन्दू के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए शोधकार्य की आवश्यकता है !
राजा इन्दू का शासनकाल-ः राजा हर्ष के सेनापति अरुणाश्व ने राजा लवंगदेव को मार कर रुद्रपुर राज्य के तथा उमरा व बटुका राजा इन्दू को दिया था ! राजा हर्ष की मृत्यु सन 647 ईस्वी में हुई थी ,जिससे स्पष्ट है कि राजा इन्दू भर का शासन सन 647 के पूर्व अर्थात सन 645 ईस्वी अवश्य रहा होगा ! श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त के अनुसार राजा लवंगदेव के तीनों पुत्रों महिमाशाह, महिलोचनशाह, तथा चन्द्रभानशाह ने विक्रम संवत 745 अर्थात सन 688 ईस्वी में टेहरी गढ़वाल के श्रीनगर में अपनी सत्ता कायम की थी ! कमसे कम दस या बारह साल तक अपनी सैन्य संगठन मजबूत करने के प्ष्चात ही अपने पैतृक राज्य रुद्रपुर पर आक्रमण किया होगा ! अतः उनका रुद्रपुर पर आक्रमण का काल 707 ईस्वी हो सकता है ! जब महिलोचनशाह ने इन्दूपुर पर आक्रमण किया उस समय राजा इन्दू भर ने युद्ध न करके महिलोचनशाह से समझौता कर लिया था ! इस प्रकार मेरे विचार से इन्दूपुर पर राजा इन्दू का शासनकाल 645 से 702 ईस्वी तक हो सकता है ! प्रसिद्ध इतिहासकार एम.बी. राजभर के अनुसार 17 0ीं दसी तक इन्दूपुर पर राजा इन्दू के वंशजों का षासन रहा है !
इन्दूपुर की कालिका भवानी
(लेखक-ः श्री रामचन्द्र राव ,ग्राम खैराबाद, पोस्ट-ःपरषुरामपुर जिला-ः गोरखपुर उ.प्र.)
छेवरिया जनपद में गौरी बाजार से दक्षिण रुद्रपुर माग्र पर गौरी बाजार से 4 किलोमीटर पर इन्दूपुर गांव स्थित है ! गांव के दक्षिण मुख्य माग्र से पष्चिम लगभग एक किलोमीटर पर एक प्राचीन इन्दूपुर के कालिका भवानी का मन्दिर हे ! यह मन्दिर लगभग 3 एकड़ भूमि में विस्तृत है ! इन्दूपुर के कालिका भवानी का मन्दिर प्राचीनता ,पवित्रता तथा महात्मय के लिए देवरिया जनपद में विख्यात है ! मुख्य मन्दिर के दक्षिण पष्चिम कोण पर भैरों बाबा की प्राचीन मूत्रि है और वहीं बगल में एक प्राचीन बट वृक्ष है मन्दिर के पूर्वोत्तर कोण पर हनुमान जी की मूत्रि स्थापित है ! मन्दिर के पृष्ठ भाग अर्थात पष्चिम में प्राचीन मन्दिर है जिसमें देवी जी की पिण्डी बनी हुई है और वहीं बगल में तीन बड़ी बड़ी हथनियां सीमेन्ट की बनी हुई हैं ! चूंकि कालिका भवानी की सवारी हाथी है इसीलिए उनकी सवारी के प्रतीक के रूप में श्रद्धालुओं ने हाथियों का निर्माण करवाया है !मन्दिर के पष्मिोत्तर दिषा में पहले एक तालाब था ! परन्तु वर्तमान में वह तालाब पक्का और उसके चारों तरफ सीढ़ी बनवा दिया गया है ! तालाब के पष्चिमी तट पर एक पंक्ति में चार तथा तथा तालाब के पूर्वी तट पर एक पंक्ति में चार तथा तालाब कें के मध्य एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया गया है ! तालाब के मध्य का मन्दिर अभी निर्माणाधीन है । ये सभी मन्दिर पूर्वाभिमुख हैं ! ज्यादातर मन्दिरों में षंकर व पार्वती की मूरत रखी गई । कुछ मन्दिर का गर्भगृह अभी खाली पड़ा है । इन्दूपुर के कालिका भवानी के प्राचीन मन्दिर जिसमें माता जी की पिण्डी है और हथनियां हैं उसे राजा इन्दू भर ने बनवाया था ! स्नान हेतु बगल में एक तालाब खुदवाया था ! राजा इन्दू भर ने ही इस गांव को बसाया था और यहीं पर उनकी राजधानी थी एजिसके कारण इस गांव का नाम उनके नाम पर इन्दूपुर पड़ा और मन्दिर का नाम इन्दूपुर की कालिका भवानी मन्दिर पड़ा ! यहां जनश्रुति प्रचलित है कि राजा इन्दू काली मां के परम भक्त थे ! इस मन्दिर में सुबह षाम पूजा अर्चना करना उनका नित्य का नियम था ! लोग कहते हैं कि एक बार राजा इन्दू भर तीरथ के नियत से कलकत्ता गये हुए थे ! कलकत्तावाली कालिका भवानी का दर्षन पाकर राजा के मन में बहुत षान्ति मिली !राजा इन्दू ने कलकत्ता की कालिका भवानी के मन्दिर की भव्यता पवित्रता तथारमणीयता और मन्दिर का प्राकृतिक सौंदर्य देखकर वहीं मन्दिर में महीनों रह गये ! महीनों माता जी के मन्दिर में घंटों ध्यान मग्न रहते थे और प्रतिदिन कलकत्ता वाली कालिका भवानी को अपने राज्य चलने का अनुनय विनय करने लगे ! लोग कहते हैं कि माता जी की मूरत ळाले ही काली बनाई जाती है परन्तु माता जी का दिल अपने भक्तों के प्रति हमषा ही स्वच्छ रहा है ! एक रात कालिका भवानी ने राजा को स्वप्न में दर्षन दिया और कहा कि मैं आपके भक्ति-भाव से सन्तुष्ट हूं तथा आपके राज्य में चलने को तैयार हूं ! परन्तु मेरी षर्त यह है कि मैं आपकी कुलदेवी के रूप् में आपके गढ़ के करीब रहूंगी ! ध्यान रहे मेरे मन्दिर की देखभाल व सेवा टहल का कार्य आपके राजभर परिवार के लोग ही करेंगे । अन्य के द्वारा मेरी पिण्डी/मूर्ति को छूना तक मुझे पसन्द नहीं है ! जिस दिन तेरा या मेरे मन्दिर की उपेक्षा की गई उस दिन आपके परिवार का अनिष्ट हो जायेगा और राज्य का पतन भी हो जायेगा ! राजा इन्दू ने यह सोचकर कि जिसके ऊपर कालिका भवानी का वरदहस्त हो उसका कोई क्या बिगाड़ पायेगा माताजी की षर्त को स्वीकार कर लिया ! राजा ने कलकत्ता की कालिका भवानी के निर्देषानुसार कार्य किया और वहां से पिण्डी लाकर अपने गढ़ के चहारदीवारी के मध्य कालिका भवानी की मन्.त्रोच्चार के साथ पिण्डी स्थापित की तथा कालिका भवानी का एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया ! बगल में एक तालाब खुदवाया ! कालिका भवानी मां राजा इन्दू के परिवार में कुलदेवी के रूप में पूजी जाने लगी ! सातवीं सदी से लेकर आज तक यह देवी राजभरों की कुलदेवी के रूप में ूपजी जा रही है ! जब तक यहां राजभरों का षासन था किले के चहारदीवारी के अन्दर मन्दिर होने के कारण केवल राजपरिवार के लोग ही मन्दिर में पूजा करते थे ,इन्दुपुर से राजभरों के सत्तापतन के बाद यहां के क्षे; की जनता भी इस मन्दिर में पूजा अर्चना करने लगी ! परन्तु आज भी मन्दिर में पुजारी का कार्य राजा इन्दू भर के वंषज ही करते हैं! यद्यपि आज यहां कोई किला नहीं है ! परन्तु, पुराने ईंटों के ढेर यत्र तत्र ुैले हुए हैं ,जो यहां कभी किसी निर्मित भवन/किला होने की तरफ इषारा करते हैं ! इस मन्दिर में भक्तों की मनोकामना पूरी होने के कारण यह मन्दिर श्रद्धालुओं की अगाध श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है ! कहते हैं कि मनोवांछित मनोकामना पूरी करने वाली ममतामयी कालिका भवानी के मन्दिर में सच्चे मन से अर्ज करने वाले भक्त कभी निराष नहीं लौटते हैं । जिन जिन प्रतिष्ठित लोगों की मनोकामना इस देवी मां के दया दृष्टि से पूरी हुई है वे लोग इस मन्दिर के परिसर में अपना अलग अलग मन्दिर का निर्माण करवाये हैं । इन मनमोहक मन्दिरों की संख्या 9 है । कालिका भवानी मां का मन्दिर तथा बगल में 9 अत्यन्त सुन्दर मनभावन मन्दिर परिसर की रमणीयता एवं प्राकृतिक सौंदर्य ने मन्दिर के आकर्षण में चार चांद लगा दिए हैं !
किंम्वदन्ती है कि पुराना मन्दिर जीर्णःषीर्ण हो जाने पर जब नये मन्दिर का निर्माण करवाया जा राि था ,उसी समय पुराने मन्दिर में कुछ लकड़ी का कार्य भी चल रहा था । लकड़ी का कार्य गणेष लोहार निवासी वसदेवा कर रह थे ! संयेग से कांटी ठोंकते समय गनेष लोहार का हाथ माता जी की मूर्ति से छू गया ! उसी समय गनेष लोहार के हाथ में कई जगहों पर कुछ खरोंच जैसे चिन्ह खिाई देने लगा ,तथा उस खरोंच वाले स्थान से खून की बूंदें टपकने लगीं ! गनेष लोहार तथा अन्य उपस्थित लोग यह आष्चर्यचकित करने वाली घटना देखकर अनहोनी की आषंका से घबड़ा गये ! यह खबर जंगल में आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गई ! मन्दिर में श्रद्धालुओं का तांता लग गया ! सभी लोग पूजा अर्चन कर देवी को मनाने में लग गये ! मन्दिर के परिसर में माता जी के यषोगान तथा भजन कीर्तन से आकाष गुंजायमान हो गया ! परन्तु खून का टपकना बन्द नहीं हुआ ! तंत्र-मंत्र के जानकार विद्वत्जनों तथा काली मां के सेवकों (सोखा) ने बताया कि इन्दूपुर की कालिका भवानी राजभरों की कुलदेवी है अतः यदि राजा इन्दू भर के वंषज या कोई राजभर आकर माता जी को मनाये तो माता जी की क्रोधाग्नि षान्त होगी ! अन्यथा कुछ भी अनिष्ट हो सकता है । साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि माता जी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनी मूरत छू जाना पसन्द नहीं कर रहीं हैं । मन्दिर के पष्चिम एक भरटालिया टोला है । यह इन्दूपुर ग्राम सभा का एक टोला है । यहां आज भी राजा इन्दू के वंषज मौजूद हैं । उनके पूर्वज तो इन्दूपुर के राजा थे, परन्तु आज उनके वंषजों की आर्थिक स्थिति दयनीय है । राजा इन्दू के वंषजों को बुलाया गया । वे माता जी के सामने सुबह से षाम तक हाथ जोड़े विनती करते रहे । अन्ततः अपने भक्तों की पुकार ,अनुनय विनय तथा अपने भक्तों पर सदा ही दया की वृष्टि करने वाली मां कालिका भवानी का ह्रदय द्रवित हो गया और गनेष लोहार के हाथ से खून टपकना बन्द हो गया । क्षेत्र की जनता ने संतोष की सांस लिया । उपस्थित जनसमूह द्वारा देवी के जयकारों से व्योम गंज उठा । तब से इन्दुपुर की कालिका भवानी के यष में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई ! कुछ वर्षों बाद क्षेत्रीय जनता तथा कुछ संभ्रान्तों के सहयोग से पुराने मन्दिर के पूरब से सटे ही दूसरे भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया गया । माता की मूर्ति/पिण्डी को नये मंदिर में स्थापित करना था। इस कार्य का सम्पादन सुविख्यात बाबा रामदास जी कर रहे थे । कहते हैं कि कुछ लालची प्रवृत्ति के लोगों मन्दिर की सम्पत्ति और चढ़ावे को लेकर मन में लालच आ गया । वहीं कुछ सम्भ्रान्त लोग इस मन्दिर के स्वामित्व को अपने वर्ग के लोगों को सौंपना चाह रहे थे । अन्दर अन्दर खिचड़ी पकने लगी ! परन्तु जिस समय पुराने मन्दिर से माता जी की मूर्ति/पिण्डी उठाकर नये मन्दिर में लाकर स्थापित करने की बात आई तो उस समय गनेष लोहार के साथ घटित घ्टना की याद आते ही अनहोनी की आषंका से किसी की भी हिम्मत मूर्ति /पिण्डी छूने की नहीं हुई । मूर्ति स्थापना का मुहूर्त 10 बजकर 15 मिनट पर निर्धारित था ,परन्तु किसी ने मूर्ति /पिण्डी उठाकर नये मन्दिर में ले जाने की बात तो दूर उसे छूने तक का साहस नहीं किया ! तुहूर्त बीता जा रहा था ! अन्त में थक हारकर राजा इन्दू भर के वंषजों को बुलाने को कहा गया । इस समय राजा इन्दू के वंषज रामकेवल, रामबृक्ष व वहीर उर्फ सरकास आदि घर पर मौजूद थे । परन्तु साजिष के तहत उनको नहीं बुलाया गया था । स्थानीय संभ्रान्तों का मंदिप में बढ़ते प्रभाव के कारण ये लोग उस दिन नहीं आये थे । तीनों भाई मन्दिर पर उपस्थित हुए । वहीर उर्फ सर्कस ने पहले कालिका भवानी का हाथ जोड़कर स्मरण किया और अनुनय विनय के प्ष्चात मूर्ति/पिण्डी को उठाकर बाबा रामदास के निर्देषानुसार मन्दिर की पांच बार परिक्रमा करके विधिवत वेद मन्त्रों के उच्चारण के मध्य मन्दिर के गर्भगृह में मूर्ति /पिण्डी स्थापित कर दिया । कालिका भवानी के जयकारों से गगन गूंज उठा और भक्तों में खुषी की लहर दौड़ गई । फिर भी स्थानीय संभ्रान्तों ने एक नागा बाबा को यहां का महन्थ बना दिया । नागा बाबा पर ‘‘मन ना रंगाये बाबा रंगाय लिए चोला-- चरितार्थ हुआ । नागा बाबा कुछ वर्षों बाद अपने असली रूप में प्रकट हुए और मन्दिर तथा मन्दिर परिसर की भूमि अपने नाम पर कराने के लिए तहसील के लेखपाल के पास पहुंच गये । इस मन्दिर के प्रति श्र’द्धावान लेखपाल ने इस षणयंत्र से ग्राम इन्दूपुर के सम्भ्रान्तों तथा प्रधान को अवगत कराया । क्षेत्रीय जनता तथा सम्भ्रान्त लागों के हस्तक्षेप से नागा बाबा अपने नापाक मकसद में सफल नहीं हुए । इस मन्दिर में जो चढ़ावा आता है वह राजा इन्दू भर के वंषज रामकेवल, रामबृक्ष तथा बहीर उर्फ सर्कस को मिलता है और जो चढावा बाबा के गद्दी पर चढ़ता है वह नागा बाबा लेते हैं । समय समय पर रामकेवल ,रामबृक्ष व बहीर उर्फ सर्कस इस मन्दिर के पुजारी का कार्य करते हैं और नागा बाबा इस गद्दी के महन्थ का कार्य करते हैं । यहां आज भी प्रत्येक सोमवार व षुक्रवार को श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है । रामनवमीं में नौ दिन तथा अन्तिम दिन विषाल मेला लगता है । लोग बतो हैं िकइस क्षेत्र के श्री प्रमोदसिंह विधायक का चुनाव लड़ रहे थे ,उन्होंने इन्दूपुर की कालिका भवानी के मन्दिर में मनौती माना कि अगर हम विधायक चुन लिए जाते हैं तो माताजी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करायेंगे । इन्दूपुर की कालिका भवानी का श्री प्रमोदसिंह पर कृपा-दृष्टि हुई और वे चुनाव जीत गये । श्री प्रमोदसिंह विधायक चुन लिए जाने पर सपरिवार सर्वप्रथम माताजी के मन्दिर में आकर माताजी का दर्षन किए फिर लखनऊ जाकर षपथ ग्रहण किया। श्री प्रमोदसिंह 9 लाख 96 हजार की लागत से इस मन्दिर का जीर्णोद्धार कराये जो वहां पर लगे षिलालेख से स्पष्ट है । यह है राजभर षासक इन्दू के कुलदेवी इन्दूपुर की कालिका भवानी का इतिहास ।
भर जाति के नाम पर भारत का नामकरण
लेखक-रामचन्द्रराव ग्राम-खैराबाद,पोस्ट-परषुराम, पिपराइच जनपद गोरखपुर ,उ.प्र. किसी भी स्थान के नामकरण के पीछे कोई न कोई ठोस आधार अवष्य होता है जिसके आधार पर मनुष्य किसी भी स्थान, गांव, षहर. प्रदेष व देष का नामकरण करता आया है। धीरे धीरे नियत नाम जन मानस में व्यापक रूप से प्रचारित प्रसारित हो जाता है। कालान्तर में उन नामों में बोलचाल की भाषा या भाषा अषुद्धि के कारण धार्मिक सोच के अनुरूप सुधार भी होता रहा है।
1-जैसे मेरे बगल के गांव परषुरामपुर को ही लिया जाये। मेरे बचपन में इस गांव को पसरमापुर कहते थे। आज भी कुछ बुजुर्ग बातचीत में पसरमापुर कह ही देते हैं।परन्तु गत 30-35 वर्षो ंसे रामचरित मानस में चर्चित यमदग्नि के पुत्र परषुराम के नाम पर धार्मिक सोच व भाषा षुद्धि के फलस्वरूप पसरमापुर को परषुरामपुर कहा जाने लगा। पत्राचार में आते जाते अब सरकारी रिकार्ड में भी परषुरामपुर हो गया है।
2- इसी प्रकार राजा लाखन भर के द्वारा बसाया गया, लाखनपुरी से बने लखनऊ नगर को धार्मिक सोच के कारण रामायण के राम के भ्राता लक्ष्मण के द्वारा बसाया लिखा गया। जबकि, लक्षमण ने राम की सेवा के अतिरिक्त कभी षासन किया नहीं, फिर लक्षमण के द्वारा लखनऊ बसाने का कोई औचित्य ही नहीं हैं।
3-मुस्लिम षासक आजमखां द्वारा तमसा नदी के तट पर एक किला बनवाकर एक नगर बसाया गयां उस नगर का नाम आजमखां ने अपने नाम पर आजमगढ़ रखा। परन्तु पौराणिक सोच से ओत-प्रोत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा अपने पत्रिकाओं में आर्यमगढ़ लिखा जा रहा है। परन्तु अभी जन मानस में प्रचलन नहीं हो पाया है।
4-खलील के द्वारा बसाया गया खलीलाबाद को वर्तमान मुख्यमंत्री उ.प्र. सुश्री मायावती ने सन्त कबीर नगर एवं भदोही जो कभी भरदोही अर्थात भरों का गढ़ था, भरदोही से बने भदोही को सन्त रविदास नगर बना दिया ,जो आज प्रचलन में है।
5-इसी प्रकार लडा़कू भर जाति के नाम पर भरराइच, भर्राइच से बने बहराइच नगर को पौराणिक सोच के लोगों ने कहा कि ब्रह्माने यहां तपस्या किया और यहीं पर एक यज्ञ किया था अतः,उनके नाम पर इस नगर का नाम ब्रह्माइच से बहराइच पड़ा। परन्तु बहराइच की जनता ने इस कपोल कल्पना को नकार दिया। पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग बार बार भारत के गांव, नगर, व देष के नामकरण को धर्म से जोड़ने की कोषिष की है।
इस प्रकार प्रायः देखने व पढ़ने को मिलता है कि व्यक्ति विष्ेाष के नाम पर गांव, नगर का नामकरण हुआ है परन्तु,व्यक्ति विषेष के नाम पर किसी देष का नामकरण नहीं पाया जाता। भारत देष के नामकरण के मामले में धर्म के नाम पर वास्तविकता पर पर्दा डाल कर कपोल कल्पित कहानी के आधार पर भारत के नामकरण के विषय में भारतीय जनमानस को दिग्भ्रमित किया गया है। आर्यों के इस देष में आने के पहले ही भरत जनों के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ चुका था। आर्यों ने इस देष पर आक्रमण करके भीषण संग्राम के बाद अपनी कूटनीति से इस देष पर कब्जा करके आर्यावर्त में षामिल कर लिया। उस समय कुछ भरत जन दक्षिण व पूरब की तरफ पलायन कर गए।षेष भरत जन को दास ही नहीं बनाया बल्कि उनके साहित्यों को जला कर खाक कर दिया। षेष भरत जन को दास बनाकर पठन पाठन से भी वंचित कर दिया, ताकि वे भरत जन न षिक्षित बनेंगे, न संगठित होंगे और न तो संगठित होकर अपने राज्य के लिए पुनः लड़ाई लड़ेंगे।आर्यों ने सर्व प्रथम इस भू-भाग का भी आर्यावर्त नाम देना चाहा ,परन्तु यह नाम साहित्यों तक ही सीमित रहा। यहां के मूल निवासियों ने आर्यावर्त नाम स्वीकार नहीं किया और भारत ही कहते रहे। बाद में मजबूर होकर आर्यों ने आर्यावर्त के इस क्षेत्र को भारत खण्ड कहा। स्मरण रहे कि आर्यावर्त में पहले ईरान, ईराक, अरब, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि षामिल थे, बाद में भारत भी षामिल हो गया। अन्त में पौराणिक महापुरुषों के नाम पर इस देष का नामकरण जोड़कर भारत के नामकरण के इतिहास का आर्यीकरण की साजिष की गई। परन्तु मतैक्य न होने के कारण स्वयं ही भारत के नामकरण पर विवाद पैदा कर लिया। एक तरफ व्यास रचित महाभारत के आदि पर्व में वर्णित दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष के नामकरण की बात कही गई ं जिसे भारतीय जन मानस ने अक्षरषः स्वीकार भी कर लिया हे। दूसरी तरफ व्यास ने भागवत पुराण में ऋग्वैदिक ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष के नामकरण को लिख कर राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष के नामकरण को तथ्यहीन बताकर खारिज कर दिया है। कृपया अवलोकन करें-
प्रियंबदो नाम सूतो मनोःं स्वायंभुवस्य ह।
तस्याग्नीधस्ततो नाभि ऋषभष्च सुतस्ततः।।
अवतीर्ण पुत्र षतं तस्यासी द्रहयपारगम्।
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायण परायणः।
विख्यातं वर्षमेतधन्नाम्ना भारतमुन्तप्रभ। ;भागवत पुराण
अर्थ-स्वयंभु के पुत्र मनु, मनु के पुत्र प्रियंबदा ;प्रियव्रत, प्रियंबदा के पुत्र आग्निध्र, आग्निध्र के नाभि, नाभि के और ऋषभ के सौ पुत्र हुए।ऋषभ, ज्येष्ठ पुत्र भरत , जो नारायण का भक्त था, उसी के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा।
अलग अलग साहित्यकारों ने मनगढ़न्त तथ्यों के आधार पर भारत के नामकरण के बिषय में लिखकर भारतीय जनमानस को दिग्भ्रमित करने के षणयंत्र का साहस क्यों किया? इसका एकमात्र जवाब है हमारी धर्मान्धता। उन्हें विष्वास था कि ये कूप मण्डूक लोग जब कर्म काण्ड में महाब्राह्मण को रजाई, गद्दा, चारपाई, आदि देते हैं। स्वयं अपने आखों के सामने देखते हैं कि सारा सामान महाब्राह्मण अपने घर ले जाते हैं। फिर भी इन्हें धर्म के नाम पर अटूट विष्वास है कि वह सारा सामान स्वर्ग में उनके स्वर्गीय पिता को मिल जाएगा। तो ऐसे आंख के अन्धे, नाम नयनसुख लोगों को धर्म के नाम पर कुछ भी मनवाया जा सकता है और पौराणिक सोच के कारण हमने माना भी।
नागा बाहुल्य क्षेत्र को नागालैण्ड, पंजाबी बाहुल्य क्षेत्र को पंजाब, मराठी बाहुल्य क्षेत्र को मराठा,आर्यों के बाहुल्य क्षेत्र को आर्यावर्त,बुन्देलों के क्षेत्र को बुन्देलखण्ड, बघेलों के क्षेत्र को बघेलखण्ड, भरतजनों के बाहुल्य क्षेत्र को भरत खण्ड, फिर भारत कहा गया। विष्व में कहीं भी किसी व्यक्ति विषेष के नाम पर देष या प्रदेष का नाम नहीं रखा गया है। परन्तु भारत के नामकरण के मामले में हमने धर्म के नाम पर सत्य व असत्य पर विचार किए वगैर मनगढ़न्त नामकरण को स्वीकार कर लिया है।
भरत जनों का इतिहास अमर है और अमर रहेगा,जब तक भारत देष रहेगा। सत्य पर कुछ समय के लिए पर्दा डाला जा सकता है,परन्तु समाप्त नहीं किया जा सकता। भारत को कभी आर्यावर्त, कभी हिन्दुस्तान तो कभी इण्डिया नाम देकर भरत जनों के गौरवषाली इतिहास को समाप्त करने का षणयंत्र किया गया। परन्तु भारत नाम मील का पत्थर साबित हुआ। भारतवर्ष नामकरण के बिषय में कुछ इतिहासकारों के विचारों का अवलोकन करें-
1-इस देष का नाम भारत हो जाने के पीछे दो कथाएं जुड़ी हैं। एक हैं राजा दुष्यन्त के मेधावी पुत्र भरत की और दूसरी है जैन ऋषभदेव के पुत्र भरत की जिनके सम्राट बनने पर प्रजा के आग्रह पर इस देष का नाम भारतवर्ष रखा गया। हम सबकी भी यही धारणाएं हैं। इन्हीं दो कथाओं का उल्लेख कर हम प्रष्न कर्ताओं की जिज्ञासा षान्त करते आए हैं। भारत देष का नाम भारत कैसे पड़ा, कभी भी हमने गम्भीर होकर षोध कार्य नही ंकिया। इन दो पौराणिक पात्रों ने हमें इतना बांध दिया कि हम पौराणिक पूर्वाग्रहों के षिकार हो गए। प्रदेषों देषों के नामकरण के सिद्धान्तों व नियमों पर हमने ध्यान नहीं दिया। व्यक्तियों के नाम पर गांव, नगर, विषिष्ठ स्थान आदि के नाम होते हैं,देष का नहीं। मुम्बा देवी के नाम पर मुम्बई, इला के नाम पर इलाहाबाद, जाबालि ऋषि के नाम पर जाबालिपुरम् ;जबलपुर, राजा मानिक के नाम पर मानिकपुर, राजा बन्दारस के नाम पर बनारस आदि। जाति समूहों के नाम पर, मुहल्लों, गांवों, व नगरों के नाम हो सकते हैं। जैसे षिवहरे जाति के नाम पर सिहोरा, नागजाति के नाम पर नागपुर इत्यादि। प्रदेष अथवा देष का नामकरण जाति ;जाति समूहों ,भाषा, भौगालिक संरचना, आदि के आधार पर होते हैं, कभी भी व्यक्ति के नाम पर नहीं। अर्थात देष का नाम व्यक्ति-वाचक नहीं समूह वाचक होता है। आप हमारे प्रदेष व देष के नामकरण के सम्बंध में इन्हीं सिद्धान्तों को आधार बना कर सोचिए। विष्व के देषों के नामकरण के सम्बंध में भी सोचिए कि उनका नामकरण व्यक्ति विषेष के नाम पर हुआ है अथवा जाति, भाषा, भौगोलिक संरचना आदि सिद्धान्तों के आधार पर। आइये हम विचार करंे कि हमारे देष का नाम भारत क्यों ? यदि पुराणकारों ने दुष्यंत पुत्र भरत और जैन ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से भारत देष के नामकरण होने का उल्लेख कर भी दिया है तो इसका अर्थ्र यह नहीं है कि उन्होंने जो लिख दिया है सही लिखा है। सही तौ यह है कि भरतों ;भरत तृत्सुगण के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा है। भरत जाति ;भरत जाति समूह का उल्लेख ऋगवेद में है । इस भरत जाति के समूह के मुखिया राजा सुदास थे। ऋगवेद में वर्णित दास राज्ञ युद्ध से सभी विद्वान परिचित हैं। भरत जाति बहुत प्रतापी थी, और उस जाति के नाम पर हमारे देष का नाम
भारत पड़ा।; भारत देष का नामकरण और हमारे पूर्वाग्रह- बहुजन विकास पाक्षिक ,बी/105, पंजाबी बस्ती बलजीतनगर, नई दिल्ली, अंक 1 सितम्बर 2009 पृश्ठ 2,
2-विष्व विख्यात महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। भरत जाति के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा। कृपया अवलोकन करें-
जीता राजभर जाति के थे। कौन सी राजभर जाति ? ईसा से पायः दो हजार वर्ष पूर्व,जब आर्य भारत में आए, तब हजारों वर्ष पूर्वजो जाति सभ्यता के उच्च षिखर पर पहुंच चुकी थी। जिसने सुख व स्वच्छतायुक्त हजारों भव्य प्रासादों वाले सुदृढ़ नगर बसाए थे । जिनके जहाज समुद्र में दूर दूर तक यात्रा करते थे,वही जाति। व्यसन निमग्न पाकर आर्यों ने उनके सैकड़ों नगरों को ध्वस्त किया, तो भी उनके नाम की छाप आज भारत देष के नाम में है, वही भरत जाति या राजभर जाति। ;पुस्तक-सतमी के बच्चे -षीर्षक -डीह बाबा, लेखक-महापण्डित राहुल सांकृत्यायन
3-महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के उपरोक्त विचारों का समर्थन करते हुए इतिहासकार रामदयाल वर्मा ने अपना विचार व्यक्त किया है, कृपया अवलोकन करें- पुराविद् राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक सतमी के बच्चे में कहा है कि-भारत वर्ष का नाम भर जाति की देन है, षायद यह सत्य ही है, क्योंकि पुराणों का जन्म गुप्ता ;चन्द्रगुप्त लोगों के बाद ही हुआ है। जिसमें षकुन्तला सुत भरत का उल्लेख मिलता है। ;पुस्तक-ःबिखरा राजवंष, षीर्षक- भर राजवंष, लेखक-रामदयाल वर्मा
4-सरस्वती और यमुना के बीच इनकी ;भरतजन सघन आबादी थी। आपसी अनबन के कारण आर्यों में दो दल हो गए और जंग षुरू हो गई। ऋगवेद में इसे दासराज्ञ कहा गया है। इस युद्ध में प्राचीन आदिवासियों ने आर्यों के एक दल के साथ मिलकर युद्ध किया, अन्त में विजय भरत नाम की एक षाखा की हुई। आर्यों की भरत षाखा के नाम पर हमारे देष का नाम भारत और उसमें रहने वालों का नाम भारतीय पड़ा। ;पुस्तक-इतिहास मन्थन गीता पृष्ठ 9,10, लेखक-बलदेवप्रसादसिंह गोरखा ष्
5-हिन्दू धर्मानुयायी कहते है कि भारत देष का नाम आर्यों के प्राचीन सम्राट दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा। वेदों में भारत अथवा भारतवर्ष का नाम नहीं मिलता। आर्यावर्त नाम अवष्य मिलता है। रामायण में भारत का नाम नहीं मिलता, यद्यपि राम के भाई भरत का नाम उल्लेख है।......अतः आर्य सम्राट भरत के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ने का मत सही नहीं जान पड़ता। अप्सरा नर्तकी सुन्दरी मेनका के नृत्य और रूप लावण्य से मुग्ध हो विष्वामित्र के सम्भोग से उत्पन्न षकुन्तला के साथ राजा दुष्यन्त द्वारा बलात्कार से उत्पन्न भरत के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ना अषोभनीय है। मेरे विचार से भारत नाम भर व आरख के सम्मिलित नाम से मिल कर बना है। भऱ आरख से भारख और फिर भारत पड़ा। एक समय था जब भर और आरख जातियां सम्पूर्ण देष पर राज्य करती थीं।
;पुस्तक-चरमराती सामाजिक व्यवस्था, षीर्षक-भारत का नामकरण, पृष्ठ 10, लेखक-बलवन्त राय एम.ए.,एल.एल.बी.,पी.सी.एस.,सेवा निवृत
6-ऋगवेद में वर्णित भरत जाति के नाम पर भारत के नामकरण पर एक और इतिहासकार के विचार का अवलोकन करें-अनेक प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भरत जाति इस देष की मूल निवासी थी। इस जाति को आर्यों से ही नहीं अनार्यों से भी युद्ध करना पड़ा । इस बहादुर जाति के प्रबल षासक सुदास को अकेले सभी 30 राजाओं से युद्ध करना पड़ा ,जिनके नाम हैं-ः
1-षिन्यु, 2-तुर्वस, 3-द्रुह्यु, 4-कवष, 5-पुरु, 6-अनु, 7-भेद, 8-षंबर, 9-वैकर्ण, 10-अन्य वैकर्ण, 11-यदु, 12-मत्स्य, 13-पवथ, 14-भालन, 15-अलोना, 16- विषानिन, 17-अज, 18-षिव, 19-षिग्रु, 20-यक्ष्यु, 21-यद्धमादी, 22-यादव, 23-देवक मान्यमना, 24-चापमना, 25-सुतुक, 26-उचथ, 27-श्रुत, 28-बुद्ध,29-मन्यु, 30-पृथु
उक्त सभी आर्य व अनार्य राजाओं को पराजित कर के विषाल साम्राज्य स्थापित कर अपने साम्राज्य का नाम उसने भारतवर्ष रखा।इसी भरत जाति को भर जाति भी कालान्तर में कहा गया, जिसे अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है।;पुस्तक-भर/राजभर साम्राज्य, षीर्षक भारत का नाम करण ,पृश्ठ 15.16 लेखक -एम.बी. राजभर
7-इस देष में ईसा के 3500 वर्ष पूर्व भरत जाति का साम्राज्य होना और भरत जाति बाहुल्य क्षेत्र के कारण इस देष का नाम भारत पड़ने की तरफ प्रसिद्ध इतिहासकार/साहित्यकार श्री गजानन माधव मुक्ति बोध की पुस्तक भारत का इतिहास व संस्कृति भी इषारा करती है-
आर्य जाति की दूसरी एक षाखा ईसा के 3500वर्ष पूर्व भारत के दरवाजे पर आ खड़ी हुई। उसके अष्वारोही वीरों ने पष्चिमोत्तर ;बलूचिस्तान, अफगानिस्तान आर्येतर सभ्यता के केन्द्र्रों को नष्ट किया। क्रमषः ये आर्य सप्त सिन्धु पंजाब के प्रदेष में अपने उपनिवेष स्थापित करने लगे।ये आर्य जातियां एक नहीं अनेक समूहों और प्रभावों में आईं। ;पुस्तक-भारत का इतिहास व संस्कृति षीर्षक ऋगवैदिक युग पृष्ठ 24 लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध भारत के पष्चिमोत्तर प्रदेष से आते ही आर्यजनों को भिन्न धर्म ,भिन्न सामाजिक व्यवस्था ,भिन्न आचार विचार वाले ऐसी सभ्यता का सामना करना पड़ा जो कि पहले से ही उस प्रदेष में जमी बैठी थी। परिणामतः संघर्ष अनिवार्य हो उठा। वह सभ्यता अधिक विकासषील होने से उनकी प्रतिरोध षक्ति भी अधिक थीं जिसके फलस्वरूप अधिकाधिक बैमनस्य और घृणा का वातावरण बनता गया।;तदैव-षीर्षक युद्ध क्रम पृष्ठ 10
आर्यजन आपस में लड़ते थे। आर्य जाति कई जत्थे में कबीले में बंटी हुई थी। उसमें पांच प्रमुख थे- यदु, तुर्वसु, अनु, द्रह्यु, और पुरु। यह स्वाभाविक ही था कि आर्यजन भूमि के लिए आपस में लड़ते थे। उस काल में पुरु जाति का बहुत प्रभाव था। किन्तु साथ ही उस समय भरत जन नाम की जाति भी बहुत महत्वाकांक्षी थी। पुरु आर्य कहलाते थे। आर्यजन अपने को षुद्ध रक्त वाला समझते थे। उन्होंने ही दास राज्यों को नष्ट किया होगा। इस बात का प्रमाण नहीं मिलता है कि उन आर्य जातियों के अपने अलग अलग राज्य हुआ करते थे । उनके प्रथक नेता अवष्य थे। ये नेता कभी राजा कहलाते थे।
इसके विपरीत भरतों का अपना एक वास्तविक राजा था ं उसका राज्य यमुना के पूर्व में था। इस राज्य में पष्चिमोत्तर प्रदेष से भागे हुए आए हिमालय के आंचल में रहने वाली यक्ष, गन्धर्व, आदि जातियां भी थी।ं ये जातियां बहुत पहलेे से यहां रह रही थीं।
भरत जाति का राजा सुदास था। सुदास ने आर्येतर जातियों का भी एक संघ बना लिया था। उसका नेतृत्व मेड़ नामक एक आर्येतर पुरुष के पास था। सुदास भरत जाति का राजा था न कि नेता। इसके विपरीत पष्चिम की ओर के आर्य अभी नेता ही थे। पुरु जाति ने भी आर्य जाति का एक संघ ;पुरु, तुर्वस, अनु, द्रह्यु, और यदु बनाया था।........। आर्येतर जन दोनों तरफ से लड़ें राजा सुदास की विजय हुई। पुरुजनों का प्रधान्य समाप्त हुआ। सुदास अपनी इस सफलता से सार्व भौम नरेष बन गया। उसने जीते हुए राज्यों को अपने राज्य में नहीं मिलाया। वरन अपना आधिपत्य स्वीकार करने के लिए उनसे कर बसूल करता रहा। अधिपति की यह भावना आगे चलकर सम्राट की कल्पना में बदल गई। ;तदैव पृष्ठ 25.26
उपरोक्त युद्ध में ऋगवेद 7.2.33 के अनुसार भरत वंषी राजा सुदास ने पुरु राजा की अध्यक्षता में गठित 10 राजाओं के संघ को परास्त किया।
इस प्रकार भरत जाति अर्थात वर्तमान भर जाति के राजा सुदास ने अपने को सम्राट घोषित किया और भरत जनों के विषाल भू भाग का नाम भारतवर्ष रखा।
8- भर षब्द जिसका पर्यायवाची है; पुस्तक-निघन्टु तथा निरुक्ति ,पृश्154, लेखक डा. लक्षमण स्वरूप अर्थात भर षब्द संग्राम, युद्ध, वीरता का पूर्णतः पर्याय एवं परिचायक है। इसीलिए कहा गया है कि भर इति संग्राम नामः। व्याकरण दर्षन के आधार पर संस्कृत भाषा के ऋ धातु से भरड़े अर्थ विस्तार में धारण ,भरण पोषण, पालन आदि विविध अथों का विकास धि धातु से हुआ। धृ धातु का नाभिक विन्दु भर भरत है। देष का नाम भारत भी भर धातु से उत्पन्न हैं ;भारतवर्ष का नामकरण प्रथम भाग पृष्ठ 3, लेखक- कुंवर बहादुर कौषिक
9-डाॅ. वासुदेवषरण अग्रवाल के अनुसार तथा प्रचलित अनुश्रुति है कि भरतजन वीर योद्धा थे अथवा वारिमी के समय प्राचीन भरतजन की कोई टुकड़ी संघ के रूप में संगठित हो गई थी। भरतजन के नायक नरेष सुदास-षिवोदास ने दास-राज्ञ युद्ध में दस राजाओं को पराजित कर अपनी वीरता का परिचय दिया था।; उपरोक्त पृष्ठ 6। भारत देष के नामकरण में भरतों की वीरता का विषेष योगदान है। षिव जैसी षक्ति एवं गति भरत वीरों में विद्यमान थी। ;तदैव पृष्ठ 6 जन षब्द का संबंध निष्चित रूप से दिक्,काल, वंष से है। जन षब्द संस्कृत भाषा के जनने से व्युत्पन्न है। भरत भूमि से उत्पन्न जन भरतजन का बोधक है। यह भरत जन जिस भूमि पर उत्पन्न हुआ उसे भारत कहा गया। ;तदैव पृष्ठ 12।
10- भरत या भर जाति आर्यों के भारत आगमन के हजारों वर्ष पूर्व इस देष पर षासन कर चुकी है। सिन्धु घाटी की सभ्यता इसी जाति की सभ्यता थी। इसी भरत या भर जाति के नाम पर ही इस देष का नाम भारत रखा गयाा। ;बहुजन समाज की दषा एवं दिषा पृष्ठ 44, लेखक-फौजदार प्रसाद उर्फ बहुजन दास
तमाम इतिहासकारों ने इसे स्वीकार किया है कि यही भरत जाति कालान्तर में भर जाति के नाम से जानी जाने लगी।
हरिवंष पुराण अध्याय 33 पृष्ठ 53 को लक्ष्य बनाते हुए सर हेनरी एम इलियटने कहा है कि भरत वंष भर जाति से संबंधित है ।
इन तमाम साक्ष्यों से स्पष्ट है कि भारत का नामकरण पौराणिक भरत के नाम से नहीं बल्कि भरत जनों के नाम से भारतवर्ष हुआ है।
राजभर षासक मित्रसेन (भौवापार गोरखपुर)
(1252 ई. से 1278 ई.)
(लेखक-श्री रामचन्द्र राव ,ग्रा-खैराबाद ,पो-परषुरामपुर ,जिला-गोरखपुर उ.प्र.)
गोरखपुर के इतिहास में राजभर षासकों के विषय में भारतीय इतिहासकारों के उपेक्षित रवैये से राजभर षासकों का नाम ,षासनकाल व उनकी राजधानी आदि के विषय की जानकारी करना अॅंधेरे में सुई तलाषने के समान है। लगभग सभी इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में राजभर षासकों और क्षत्रिय षासकों के बीच युद्ध होने तथा परास्त होकर षासन से बेदखल होने का उल्लेख किया है परन्तु विजेता क्षत्रिय षासक का नाम लिखने में जहाॅं उत्साह दिखाया है वहीं राजभर षासक का नाम लिखने में इतिहासकारों की लेखनी मौन हो गई है ,ऐसा क्यों ? निष्चितरूप से दावे के साथ कहा जा सकता है कि अपने इतिहास की दूकान चलाने वाले इतिहासकारों ने इतिहास लेखन में एक तरफ उपेक्षित रवैया अपनाकर एक वर्ग के गौरवषाली इतिहास को विस्मृत करने का प्रयत्न किया है तो दूसरी तरफ कपोल कल्पित कहानियों को गढ़कर महिमा मण्डित करने का कार्य किया है। बल्कि राजभर षासकों का नाम वर्तमान क्षत्रियों की वंषावली में जोड़ लिए जाने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। अंग्रेज इतिहासकारों तथा कुछ भारतीय इतिहासकारों के अभिलेखों के अवलोकन तथा जनश्रुतियों के आधार पर गोरखपुर जनपद में रामगढ़ ,कोलियां ,भौआपार ,षिवपुर गगहां ,सोहगौरा ,सरुआर ,धुरियापार में राजभर षासकों का षासन होना पाया गया है और षोध जारी है। षोध कार्य करके राजभर षासकों के विस्मृत इतिहास को स्मृति में लाने का प्रयास जारी है। यहाॅं मात्र राजभर षासक मित्रसेन (भौवापार) के विषय में अब तक प्राप्त विवरण का उल्लेख किया जा रहा है।
गोरखपुर जनपद के अंतर्गत भौवापार गाॅंव धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह स्थान गोरखपुर से दक्षिण गोरखपुर से वाराणसी राष्ट्रीय मार्ग परलगभग 15 किलोमीटर पर स्थित है। किम्बदन्ती है कि श्रीनेत्र क्षत्रियों के षासन के पूर्व भौवापार में राजभर षासक मित्रसेन का षासन था। इस क्ष्ेापत्र पर मुस्लिम षासकों का आक्रमण कभी कभी हुआ करता था ,जिन्हें राजभर सैनिक अपनी सैन्य कुषलता से रणभूमि छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर देते थे। राजा मित्रसेन के राज्य पर श्रीनेत क्षत्रियों की हमेषा गिद्ध दृष्टि लगी रहती थी । समय समय पर राजा मित्रसेन के राज्य पर आक्रमण किया करते थे ,परन्तु सफलता नहीं मिलती थी। राजा मित्रसेन का भौवापार में एक सुदृढ़ दुर्ग था। राजा मित्रसेन ने भौवापार में एक विषाल षिव मन्दिर का निर्माण कराया था। राजा मित्रसेन षिव जी के परम भक्त थे। इस षिव मन्दिर में पूजा अर्चन के बाद ही अन्न व जल ग्रहण करते थे। षिव के षिव लिंग को कन्ध्ेा पर वहन करने के कारण ही नहीं बल्कि छोटे छोटे षिव लिंग को गले में माला की तरह पहनने के कारण भारषिव कहलाते थे। यद्यपि भौवापार में राजभर षासक का षासन होना कई विद्वान इतिहासकार पुरातत्ववेत्ता व षोधकत्र्ताओं ने स्वीकार किया है ,परन्तु अपने लेख में राजभर षासक का नाम उनके परिवार व उनका षासनकाल लिखने से परहेज किया गया है। राजभर षासक को पराजित करके भौवापार में श्रीनेत क्षत्रियों का षासन कायम करने वाले राजा विजयभानसिंह का नाम तो इतिहासकारों ने लिखा है परन्तु पराजित राजभर षासक का नाम व युद्ध के समय का उल्लेख न करके अपने ऐतिहासिक कृति को रहस्यमय और सन्देहास्पद बना दिया है। नागभारषिव राजभरों के मुख्य देवता देवों के देव महादेव रहे हैं। राजभर आज भी षिव को अपना सर्वस्व मानते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार भौवापार के राजभर षासक के षासन काल में एक बार कुछ मजदूर मूॅंज(सरपत) की झाड़ी खोद कर कृषि कार्य के निमित्त खेत तैयार कर रहे थे। तभी एक मजदूर का फावड़ा एक पत्थर से टकरा गया। मजदूरों ने उस पत्थर के चारों तरफ से मिट्टी निकाला तो अन्दर का दृष्य देखकर आष्चर्य में पड़ गये। क्योंकि वह साधारण पत्थर नहीं बल्कि देवों के देव भगवान षिव जी का एक दुर्लभ षिवलिंग था। कहते हैं कि जिस स्थान पर फावड़े से चोट लगा था उस स्थान से दूध की धारा बह रही थी। यह अलौकिक दृष्य देखकर श्रृद्धालु कौतूहलवष षिव जी का दर्षन करने उमड़ पड़े। श्रृद्धालुओं का तांता लग गया। इसकी सूचना राजा को दी गई। राजा मित्रसेन ने अपने आराध्य देव के लिंग को पाकर धन्य धन्य हो गये। पहले तो राजा ने उस दुर्लभ षिव लिंग को उचित स्थान पर ले जाकर स्थापित करना चाहा परन्तु षिव जी को जो स्थान पसंद था वहाॅं से उन्हें कौन हटा सकता है। षिव लिंग को हटाकर दूसरे स्थान पर स्थापित करने की राजा की मंषा पूरी न हो सकी। राजा ने मजदूरों को उचित पारिश्रमिक दिया और उसी स्थान पर भगवान षिव का गगनचुम्बी विषाल मन्दिर का निर्माण करवाया। भगवान भूतनाथ के अत्यन्त प्राचीन उस षिव लिंग को उस विषाल मन्दिर के गर्भ गृह में स्थान दिया गया। राजा ने मन्दिर के बगल में जलाषय का निर्माण कराकर उसके चारों तरफ फलदार बृक्षों को लगवाया। मन्दिर की देखरेख व पूजा अर्चन के लिए पुजारी नियुक्त किए गए। मन्दिर के चारों तरफ की जमीन मन्दिर के नाम कर दी गई।
किम्बदन्ती है कि चॅंूकि षिव लिंग मॅंूज(सरपत) की झाड़ी में मिला था इसलिए उन्हें मून्जेष्वरनाथ कहा जाने लगा। वर्तमान में यह मन्दिर मॅंूजेष्वरनाथ मन्दिर के नाम से विख्यात है। यहाॅं प्रतिवर्ष षिव रात्रि और दषहरा को बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले को राजा मित्रसेन ने अपने षासन काल में विस्तृत रूप दिया था। दूसरी किम्बदन्ती है कि इस मन्दिर का निर्माण सत्तासी राज नरेष मॅंूज के द्वारा कराया गया था। इसलिए इस मन्दिर का नाम मून्जेष्वरनाथ पड़ा। चॅूंकि सत्तासी राज के संस्थापक भगवानसिंह के वषावली में राजा मून्ज का नाम नहीं है अतः यह दूसरी किम्बदन्ती कपोल कल्पित एवं सत्य से परे लगती है।वास्तव में उस मन्दिर का निर्माण राजभर षासक ने ही कराया था। इस मन्दिर में सर्वप्रथम राजभर षासक के परिवार के लोग दर्षन व पूजा अर्चन करते थे। उसके बाद ही अन्य लोग दर्षन दर्षन करते थे। इसी मन्दिर में षिव जी के दर्षन को लेकर उनवल नरेष विजयभानसिंह और राजभर षासक मित्रसेन के मध्य युद्ध हुआ। युद्ध में राजभर षासक मित्रसेन को पराजित करके विजयभानसिंह ने भौवापार में श्रीनेतों का षासन कायम कराया।
उक्त घटना को इतिहासकार डॅा. दानपालसिंह ने अपनी पुस्तक में राजभर षासक का नाम व युद्ध के समय का उल्लेख किये वगैर इस प्रकार से उल्लेख किया है-ः
भौवापार राज्य पर विजय-ः भौवापार व उसके आसपास का इलाका राजभर राजा के अधीन था। श्रीनेत भौवापार पर अधिकार करना वाहते थे।किन्तु युद्ध का कोई उचित कारण नहीं मिलता था। संयोग से एक ऐसी घटना घट गई जिससे आक्रमण करने का उचित बहाना मिल गया। उनवल राजा विजयभानसिंह के द्वितीय पुत्र होरिलसिंह का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। हिन्दू धर्मषास्त्र के अनुसार इस नक्षत्र में जन्मे षिषु की रुलाई सुनना पिता के लिए अनिष्टकर माना जाता है। अतः दनवल नरेष ने रानी तथा पुत्र के रहने की व्यवस्था सतासी राज के करनाई में कर दिया।
षिव रात्रि का पर्व था। उनवल नरेष की रानी भी षिवरात्रि का व्रत थी। वे पालकी पर सवार होकर कुछ अंग-रक्षकों के साथ भगवान मून्जेष्वरनाथ के दर्षन के लिए भौवापार गईं। किन्तु ,पालकी जब मन्दिर के सामने पहुंची और रानी पालकी से उतरकर दर्षन के लिए चलीं तो भौवापार के राजा राजभर के सिपाहियों ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया और कहा कि जब तक हमारी रानियां पूजा नहीं कर लेतीं तब तक कोई दूसरा मन्दिर के अन्दर नहीं जा रकता है। रानी ने इसे अपना घोर अपमान समझाा। वे तुरन्त बिना दर्षन किए कनराई वापिस लौट गईं और अपने पति उनवल नरेष के पास संदेषा भेजा कि या तो आप आकर हमें मूंॅंजेष्वरनाथ का दर्षन कराइये या कहिए तो मैं अपना व्रत ही भंग कर दॅंू।
श्रीनेत पहले से ही भौवापार पर कब्जा करने के ताक में थे। इस घटना ने आग में घी का काम किया। उनवल नरेष ने भौवापार पर आक्रमण कर दिया। सतासी राज की सेना भी उनवल नरेष की मदद में आ गई। दोनों राज्यों की सम्मिलित सेना के सामने राजभरों की सेना ठहर न सकी। राजभर बड़ी वीरता से लड़े ,किन्तु पराजित हुए। अधिकांष राजभर मारे गये। जो थोड़े से बचे वे लुक छिप कर सुदूर स्थानों पर चले गए।
इस प्रकार भौवापार से राजभर राज्य की समाप्ति हुई और उस पर श्रीनेतों का आधिपत्य कायम हो गया। किन्तु उस समय श्रीनेतों ने भौवापार को अपने किसी राज्य में नहीं मिलाया तथा उसे स्वतंत्र राज्य रखा और ग्रह षान्ति तक के लिए होरिलसिंह को उसका राजा बनाया गया। कुछ समय बाद सतासी नरेष विश्रामसिंह ने निपुत्र होने के कारण होरिलसिंह को गोद ले लिया। तब से भौवापार ‘‘सतासी राज’’ का अंग बन गया। होरिलसिंह उर्फ मंगलसिंह का षासनकाल 1296 ईस्वी से 1346 ईस्वी था।
(संदर्भ पुस्तक-गोरखपुर परिक्ष्ेात्र का इतिहास (1200 ई. से 1857 ई.) ,खण्ड प्रथम, षीर्षक-भौवा राज्य पर विजय पृष्ठ 32-33 ,लेखक- डॅा. दानपालसिंह)
शक्ति-स्वरूपा महारानी वल्लरी देवी
(प्रस्तुति-श्री रामचंद्र राव ,ग्राम-खैराबाद ,पो-परषुरामपुर (पिपराइच) जिला-गोरखपुर उ.प्र.)
11 वीं सदी के नायक वीर शिरोंमणि सम्राट महाराजा सुहेलदेव की राजमहिषी का नाम वल्लरी देवी था। महारानी वल्लरी देवी के जीवन वृतान्त के विषय में इतिहासविदों ने अपनी लेखनी मौन रखी है। लेखक श्री यदुनाथप्रसाद श्रीवास्तव एडवोकेट की पुस्तक ‘‘भाले सुल्तान’’ ही एकमात्र ऐसा अभिलेख प्राप्त हुआ है जो उनके जीवन परिचय पर कम ,उनके अदम्य साहस और शौर्य पर ज्यादा प्रकाश डालती है। पुस्तक ‘‘भाले सुल्तान’’ का सारांष आपके सामने प्रस्तुत है।
11 वीं सदी में जब महमूद गजनवी एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण किया तो उस समय भारत के तमाम राजा आपसी वैमनष्य के कारण आपस में लड़ते भिड़ते कमजोर हो चुके थे। अतः महमूद गजनवी के आक्रमण से कुछ राजा हारे और हार कर अपने राज्य से बेदखल हुए तो वहीं कुछ राजा सत्ता की लालच में अधीनता स्वीकार किया या मुस्लिम धर्म स्वीकार करके अपनी जान बचाई। उसी समय अवध क्ष्ेात्र में एक क्षत्रिय राजा का छोटा सा राज्य था। महमूद गजनवी ने उनके राज्य पर आक्रमण किया। क्षत्रिय राजा बड़ी बहादुरी के साथ अपनी छोटी सेना सहित मुकाबला किया, परन्तु महमूद गजनवी की विषाल सेना के सामने राजा की सेना टिक न सकी और राजा को भागकर जंगल की षरण लेनी पड़ी। जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण की ओर अपना कदम बढ़ाया तो देवों के देव महादेव मन्दिर की रक्षार्थ भारत भर के हिन्दू राजाओं को युद्ध में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया गया। यह क्षत्रिय राजा अपनी हार का बदला महमूद गजनवी से चुकाना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी छोटी सी सेना साथ को लेकर सोमनाथ की तरफ प्रस्थान किये।सोमनाथ प्रस्थान के पहले राजा ने अपनी एक मात्र 5 वर्षीय राजकुमारी बल्लरी को अपने धार्मिक गुरु अयेाध्या के ऋषि महेष्वरानन्द को सौंप गये। जाते समय ऋषि महेष्वरानन्द को कह गये ,पता नहीं हम युद्ध से आये या न आये, यह बच्ची अब आप की बच्ची है। इसकी देखभाल और षादी का दायित्व मैं आप पर छोड़ता हूं। वह बच्ची अयेाध्या में ऋषि महेष्वरानन्द के आश्रम में रहने लगी। वह क्षत्रिय राजा सोमनाथ मन्दिर की रक्षा में लड़ते हुए मारे गये। समय बीतता गया। धीरे-धीरे राजकुमारी की उम्र 16 वर्ष की हो गयी।महर्षि महेश्वरानन्द अपने आश्रम में ही राजकुमारी को बौद्धिक ,धार्मिक षिक्षा के साथ-साथ अस्त्र-षस्त्र चलाने की भी शिक्षा दिये।ऋषि महेष्वरानन्द के कुशल मार्गदर्शन में राजकुमारी तीर ,धनुष चलाने ,भाला फेंकने ,घुड़सवारी तथा अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाने में प्रवीण हो गयी। महेश्वरानन्द जी श्रावस्ती सम्राट सुहेलदेव के भी धार्मिक गुरु थे।
महमूद गजनवी के मरने के बाद उसका भंाजा सैयद सालार मसौद गाजी ने भारत पर आक्रमण किया। वह भारत के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके लूटता पाटता जबरन उन्हें मुस्लिम बनाते हुए अयेाध्या में आकर अपना डेरा डाला। वहीं से उसके सैनिक अयेाध्या के चारों तरफ घूम घूम कर लूट पाट तथा मुस्लिम धर्म का प्रचार करने लगे। सैयद सालार मसौद गाजी के अयेाध्या आने का समाचार सुनकर अयेाध्या का राजा, जो कायस्थ था अयेाध्या छोड़कर भाग खड़ा हुआ। सैयद सालार मसौद का फरमान जारी हुआ-आज सूर्या डूबने के पहले कमसे कम एक हजार काफिरों (हिन्दुओं) की चोटियां हमारे परचम में लग जायें और इन काफिरों के सिर धड़ से अलग कर दिये जायें। काबुल में ये चोटियां इस बात की सबूत देंगी कि उसने कितने बे-ईमान बेदीन काफिरों के खून से अपनी तलवार को नहलाया और तब वह सही मायने में गाजी कहलायेगा। सारे अयेाध्या शहर में कत्ले आम से हाहाकार मच गया।
अयेाध्या के दक्षिण दिशा में कुशपुर (वर्तमान सुल्तानपुर) में एक भर राजा की राजधानी थी। इतिहासविदों ने राजा के नाम का जिक्र नहीं किया है। (परन्तु किंवदन्तियों में राजा का नाम शिवेन्द्र बताया जाता है।) पुस्तक भाले सुल्तान में राजकुमार का नाम सिंहवन का उल्लेख किया गया है। कुशपुर महिपति के अन्तर्गत गजनेर गढ़ी ,इष गढ़ी तथा तलहटी गढ़ी भी था। इन गढ़ियों के राजा ,भर राजा कुशपुर के अधीन थे। इष गढ़ी के राजा रामशरन थे। रामशरन बहुत ही विलासी शासक थे।उनके पास 21 रानियां थीं। गजनेर गढ़ी तथा तलहटी गढ़ी के राजाओं का नाम अज्ञात है।परन्तु इन तीनों गढ़ियों के शासक भर थे। इसका उल्लेख मिलता है। गजनेर गढ़ी के राजकुमार कन्तुर का नाम भाले सुल्तान में उल्लिखित है। इस गढ़ी तीनों तरफ से गोमती से घिरा हुआ था। इस गढ़ी में चारों तरफ ऊंचे ऊंचे टीले थे जो वर्तमान में भी मौजूद हैं। इन्हीं टीलों पर पुराना परकोटा बना हुआ था।यह गढ़ी भरों की गढ़ी थी। एक दिन गौरवर्ण लम्बी सफेद दाढ़ी,लम्बा जटाजूट तथा रक्त-वर्ण आंखों वाला एक सन्यासी आया। सन्यासी केवल जल ग्रहण करता था।पिछले तीन दिनों से जल के अतिरिक्त अन्न गृहण नहीं किया था। धर्म में आस्था रखने वाले भर श्रद्धालु हमेशा सन्यासी को घेरे रहते थे। सन्यासी दान दक्षिणा से हमेषा दूर रहते थे। उनके तपस्वी जीवन की इस गढ़ में घर घर चर्चा थी। इस तपस्वी की चर्चा राजमहल के अन्दर तक पहुंची। राजा की रानियां भी इस तपस्वी से मिलने के लिए आतुर हो उठीं क्योंकि यह जन जन में चर्चा थी कि सन्यासी जो भी कह देते हैं वह अवश्य पूरा हो जाता है। उनका बचन खाली नहीं जाता। एक अपरिचित औरत ने महारानी से सम्पर्क किया और बताया कि मेरा पति पहले मुझे बहुत तंग करता था और हमारी सौत को ज्यादा मानता था परन्तु सन्यासी के आशीर्वाद से अब मेरा पति मुझे बहुत मानता है,सौत से मुक्ति मिल गई ,फिर नारी स्वभाव जागृत हो उठा। महारानी के साथ मिलकर अन्य रानियां भी सन्यासी से मिलकर चरण रज लेकर आशीर्वाद पाने की जिद करने लगीं। राजसी घोड़ा आया। राजा घोड़े पर सवार हुए ,उधर इक्कीस रानियों की भी डोली सज गईं।सभी महात्मा के पास पहुंचे।छल ,कपट ,लोभ ,ईष्र्या-भाव से रहित महात्मा के दर्षन करके सभी धन्य हो गए।घन्टों बैठने के बाद महात्मा ने अपनी आंखें खोलीं और मुखरित हुए-आपकी रानियां भाग्यशाली हैं ,पुण्यशीला भी।एक रानी की तरफ इशारा करते हुए बोले कि ये विषेष भाग्यशाली है। पुनः अपनी दृष्टि राजा रामसरन पर डालते हुये बोला-इस समय तुम्हारी बैसवाड़े के राजपूत राय विराड़देव से बहुत बनती है। परन्तु याद रखो वह तुमसे धोखा करेगा। वह घोड़ा बेचने के बहाने तुम्हारे गढ़ी की गुप्त सूचनायें गुप्तचरों से प्राप्त कर रहा है। राजा रामसरन महात्मा के चरणों में गिर पड़े। महात्मा जी मैं बहुत ही भयभीत हूं ,मेरी रक्षा करें।
मैं राजपूतों से झगड़े में नहीं उलझना चाहता।मुझे बैसवाड़े के राजपूतों पर विजय का कोई उपाय बताइयें।
महात्मा रानियों और राजभरों को मनचाहा वरदान देकर राजा रामसरन से अकेले में बात करने लगे। महात्मा ने बताया कि तुर्क सेना बैसवाड़े पर आक्रमण करके तहस नहस कर देगी। यह सुनकर राजा रामसरन बहुत घबरा गये। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि वे स्वयं बैसवाड़े को जीते और उसे अपने राज्य में षामिल करलें। परन्तु बैसवाड़े में तुर्की सेना के उपस्थिति मात्र से उनकी रूह कांप उठी। उन्होंने महात्मा को साष्टांग प्रणाम करते हुये कहा कि महात्मा जी ऐसा कोई विकल्प निकालें कि राय बिराड़देव पर हमें ही विजय मिले तुर्कों की आवष्यकता न पड़े।
महात्मा ने बताया कि मैं मन्त्रों द्वारा सोधी हुई एक औषधि आपके महल में अपने शिष्य से भिजवा दूंगा।यह औषधि अपनी गढ़ी के सभी कुंओं में सन्ध्या समय डलवा दिया जाय।दूसरे दिन सूर्योदय के पहले सभी राजभर कुंए के पानी का जलपान करें परन्तु औरतों को पानी पीना वर्जित है। इस जल के प्रभाव से बिराड़देव क्या कोई भी आप लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकता और आपकी सारी मनोकामना पूरी हो जायेगी। कुछ समयोपरान्त महात्मा अकेले रह गए। उसी समय उनका षिष्य एक औषधि लाकर राजा को प्रदान किया। संध्या के समय गढ़ी के समस्त कुओं में औषधि डाल दी गई। खुषी में सभी ने नशे का सेवन किया और सुबह होने का इन्तजार होने लगा। सुबह जल पीने वालों की भीड़ सी लग गई। कुंए से शुद्ध जल निकाला गया। राजा रामषरन एवं उनके परिवार के लोग जल पीने ही जा रहे थे कि उसी समय एक गुप्तचर आया। आते ही राजा एवं सभी लोगों को जल पीने से मना किया। गुप्तचर ने बताया कि वह महात्मा नहीं बल्कि तुर्कों का गुप्तचर था। सैयद सालार मसौद गाजी के आदेष से यहां आया था। कुंए में औषधि नहीं अपितु जहर डलवाया गया है। जो भी जल गृहण करेगा मृत्यु को वरण करेगा। राजा ने तुरन्त कुंए के जल को एक कुत्ते को पिलवाया। पानी पीते ही कुत्ता मर गया। राजवैद्य ने भी कुंए के जल की जांच की ,जांच में जल में जहर पाया गया। सारी गढ़ी तुर्कों के भय से आक्रांत हो उठी। उसी समय एक द्वारपाल आकर बताया कि रात में द्वारपालों की हत्या कर दी गई और रात में ही छद्मवेशी महात्मा गढ़ी छोड़कर अन्तध्र्यान हो गया है। उसी समय एक घुड़सवार ने आकर बताया कि आज की रात तलहटी गढ़ी पर तुर्कों ने आक्रमण करके कब्जा कर लिया है और हजारों भर सैनिक मारे गए हैं। सभी भर सैनिक अपने अपने घोड़ों पर सवार होकर गढ़ी के चारों तरफ दौड़ पड़े। इषगढ़ी और तलहटी गढ़ी को मिलाने वाला लगभग दो सौ साल पुराना नदी पर बना पुल आग के हवाले कर दिया गया ताकि इषगढ़ी पर आक्रमण का रास्ता बन्द हो जाय। तुर्क सेनापति मुहम्मद बकर तलहटी में खूब लूटपाट मचाया। वह गजनी में डकैती करता था। जब उसे मालुम हुआ कि सैयद सालार की सेना लूट-पाट तथा धर्म प्रचार के लिए भारत जा रही है तो वह भी सेना में भरती हो गया। तलहटी गढ़ी में लूटपाट के बाद गढ़ी के दक्षिण तीनों टीलों के मध्य एक सुरक्षित स्थान पर अपना खेमा डाला। एक रात राय बिराड़देव से उनकी मुठभेड़ हो गई। मुठभेड़ में मुहम्मद बकर और मौला हज्जाम मारे गए।
राजभर शासक राम का गोरखपुर में शासन (7 वीं सदी ई. पू.)
( लेखक-ः श्री रामचन्द्र राव ग्राम-खैराबाद ,पोस्ट-परषुरामपुर जिला-गोरखपुर उ.प्र. 273152)
गोरखपुर जनपद को हिमालय की तलहटी में बसने के कारण तराई कहा गया है। गोरखपुर का वर्तमान विस्तार 26.5 से 27.29 तक उत्तरी अक्षंाश तथा 83.4 से 84.26 अक्षांश पूर्वी देशान्तर तक है। वर्तमान समय में गोरखपुर जनपद के उत्तर में जनपद महाराजगंज ,दक्षिण में सरयू नदी (घाघरा) ,पश्चिम में खलीलाबाद तथा पूरब में जनपद देवरिया व कुशीनगर जनपद स्थित हैं। परन्तु सन् 1857 के पहले उत्तर में नेपाल, दक्षिण में आजमगढ़,पश्चिम में गोण्डा तथा पूरब में बिहार प्रान्त पड़ता था। प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय के अनुसार वास्तव में गोरखपुर का प्राचीन नाम रामग्राम था। बौद्ध साहित्य महापरिनिव्वाणसुत्त के अनुसार रामग्राम रोहिणी नदी के पूरब में नागवंशीय कोलिय गणतंत्र की राजधानी थी। राजधानी होने के कारण गढ़ कहा जाना स्वाभाविक ही था। नागवंशीय काशी नरेश राम की राजधानी होने के कारण इसका नाम रामगढ़ पड़ा। मध्यकाल में इस गढ़ का पतन हुआ बताया जाता है। आज मात्र एक गाँव के रूप में रामगढ़ ताल के किनारे रामग्राम (रामपुर) स्थित है। बगल में स्थित विषाल रामगढ़ ताल आज भी देखा जा सकता है।
आधुनिक गोरखपुर प्राचीन रामग्राम/रामगढ़ के स्थान पर बसा हुआ है। रामगढ़ ताल इस बात का द्योतक है। ध्यान देने की बात है कि नाम रामगढ़ है रामताल नहीं। अतः स्पष्ट है कि इसके किनारे किसी समय एक गढ़ (राजधानी वाला षहर) था। (पुस्तक-गोरखपुर जनपद और उनकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृ. 69-70 ,षीर्षक ,रामग्राम की स्थिति लेखक-राजबली पाण्डेय)
गोरखपुर नाम पड़ने का कारण-ः रामग्राम का नाम बदलकर गोरखपुर नाम पड़ने का एक मात्र कारण प्रसिद्ध षैव-मतावलम्बी कनफटा योगी गोरखनाथ जी का यहाँ पर समाधि लेना है। जिस स्थान पर उन्होंने समाधि ली थी ,उसके अगल बगल के क्षेत्र को गोरखनाथ कहा जाने लगा और कालान्तर में गोरखनाथ के नाम पर गोरखपुर नाम पड़ गया। गोरखपुर के विस्तार के बाद पूरा ष्षहर ही गोरखपुर कहा जाने लगा। जिसके अन्दर रामग्राम/रामगढ़ भी आता है। गोरखपुर मुख्य ष्षहर के पूरब दिषा में एक रामगढ़ ताल है। यह ताल अत्यंत प्राचीन है।इसका पाष्र्व प्राकृतिक छटाओं से परिपूर्ण है। यह ताल गोरखपुर से देवरिया मार्ग पर कूड़ाघाट के दक्षिण लगभग दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। आज इस ताल में कमल के फूल ,जल-कुम्भी तथा मछलियाँ बहुत मात्रा में पायी जाती हैं। इस ताल को उत्तरप्रदेष के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरबहादुरसिंह विकसित करके बौद्ध तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। परन्तु बीच में ही उनका स्वर्गवास हो गया और यह परियोजना अधूरी रह गयी। वर्तमान मुख्य मंत्री सुश्री मायावती जी इस परियोजना को पूरा करने के प्रति प्रयत्नषील हैं और इस पर कार्य जारी भी है।
रामगढ़ से बने रामगढ़ताल का इतिहास-ः रामगढ़ नाम ही इस बात का द्योतक है कि यहाँ पर कभी किसी राम नामक राजा का दुर्ग था। राजा राम की राजधानी होने के कारण इसका नाम रामगढ़ पड़ा। काषी (बनारस) नरेष राम स्वयं एक प्रतापी राजा थे। वे धनधान्य से परिपूर्ण थे। कुछ कारण वष यहाँ आकर बस गये। जिसका वर्णन आगे किया जायेगा। काषी नरेष राम ने अपनी पूर्व राजधानी काषी जिसके राजा उनके बड़े पुत्र थे के सहयोग से रामगढ़ के चारों तरफ एक विस्तृत भू-भाग पर अपना आधिपत्य जमाया तथा अपने आप को वहाँ का राजा घोषित किया। इस रामगढ़ में एक से एक गगन चुम्बी इमारतों की भरमार थी। राजा राम का दुर्ग चारों तरफ से चहारदीवारियों से घिरा हुआ था। किले की देखरेख हेतु चारों तरफ से सैनिक तैयार रहते थे। रामगढ़ रोहीन एवं राप्ती नदी के तट पर होने के कारण व्यापारिक केन्द्र भी था। समय गुजरता गया कि एक दिन रात्रि में पूरा ष्षहर धरा में विलीन हो गया। सायंकाल जहाँ गगन चुम्बी इमारतें दिखाई दे रही थीं सुबह वहाँ ताल दिखाई देने लगा। रामगढ़ के ताल होने के सम्बंध में दो किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं-ः
(1) गोरखपुर नगर के दक्षिण पूर्व दिषा में यह ताल स्थित है। जनता में यह जन-श्रुति प्रचलित है कि प्राचीन काल में इस स्थान पर विषाल जनाकीर्ण नगर था। जो किसी ऋषि के श्राप से धँस गया और उसमें पानी भर जाने के कारण ताल बन गया। (पुस्तक-ःगोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास ,षीर्षक-रामगढ़ताल पृष्ठ 12 ,लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय)
(2) दूसरी किम्बदन्ती है कि रामगढ़ में बहुत ज्यादा अत्याचार बढ़ गया था। जिसकी लाठी उसकी भैंस चरितार्थ था। नगर में अत्याचार बढ़ता गया। अन्ततः एक दिन ऊपर वाले की बक्र दृष्टि पड़ी और पूरा नगर धरा में प्रवेष कर गया और नगर के स्थान पर ताल बन गया। किम्बदन्ती है कि एक दिन सायंकाल एक बिल्ली रामगढ़ राजधानी से अपने बच्चों को बारी बारी से रामगढ़ ष्षहर से बाहर ले जा रही थी। कुछ बुजुर्गों ने यह देखकर अनहोनी होने की आषंका व्यक्त की। परन्तु किसी को इतनी बड़ी घटना होने की संभावना नहीं थी। उसी रात पूरा रामगढ़ ष्षहर पृथ्वी के आगोष में समा गया। नगर के स्थान पर विषाल ताल बन गया ,जो रामगढ़ से बदलकर रामगढ़ ताल कहा जाने लगा।
मुझे पहली किम्बदन्ती पूर्वाग्रहों से ग्रसित कपोल कल्पित लगती ,तथा दूसरी किम्बदन्ती विष्वसनीय प्रतीत होती है। क्योंकि वास्तव में पृथ्वी के अन्दर जब कोई हलचल होती है तो सर्वप्रथम जानवरों एवं पक्षियों को इसकी जानकारी हो जाती है। सम्भव है कि भूकम्प की हल्की तीव्रता से भूकम्प आने की जानकारी बिल्ली को हो गई हो और बच्चों सहित ष्षहर से बाहर चली गयी हो। रात्रि में ष्षहर धराषायी ही नहीं बल्कि धरा में प्रवेष कर गया हो। आज भी भूकम्प से हुए विनाष लीला का जापान उदाहरण है।
काषी नरेष राम का रामगढ़ (गोरखपुर) पर षासन कब और कैसे ?-ः इस सम्बंध में प्रसिद्ध इतिहासकार श्री दिवाकरप्रसाद तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘‘गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास पृष्ठ 80 व 81 ष्षीर्षक ‘‘रामग्राम के कोलिय’’ ,तथा प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय की पुस्तक ‘‘गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास’’ पृष्ठ 60 से 67 षीर्षक ‘‘कपिलवस्तु के षाक्य’’ तथा बौद्ध ग्रन्थ दिघनिकाय में एक रोचक कहानी का वर्णन है कृप्या अवलोकन करें।
काषी में नागवंषीय षासक राम का षासन था। राम को कुष्ट रोग हो गया। राजा राजकुल की स्त्रियों तथा नाच-गाना करने वाली सुन्दर नर्तकियों से तिरस्कृत होने पर अपने जीवन से उदासीन होकर खिन्नता में अपने बड़े पुत्र को षासन सौंपकर हिमालय की तरफ चले आये। जंगल में एक बड़े पेड़ के कोदड़ में कुटी बनाकर रहते हुए फल-फूल से अपना जीवन निर्वहन करने लगे। जड़ी बूटी के सेवन से कुछ समयोपरान्त उनका कुष्ट रोग ठीक हो गया। बौद्ध ग्रन्थ दिघनिकाय के अनुसार षाक्य लोग ओक्काक (इक्ष्वाकु) को अपना पूर्वज मानते हैं। राजा ओक्काक (इक्ष्वाकु) की पाँच रानियाँ थीं। बड़ी रानी के चार पुत्र ओक्कामुख ,करकण्ड ,हन्त्थिनिक ,और सिनीपुर तथा पाँच कन्यायें प्रिया ,सुप्पिया ,आनन्दा ,विजिता और विजितसेना थीं। इन बच्चों को जन्म देने के बाद बड़ी रानी का स्वर्गवास हो गया। तब राजा ने एक अत्यन्त सुन्दर राजकुमारी से विवाह किया और उसी के पुत्र को राजा बनाने का वर दिया। उस रानी से जन्तु नामक पुत्र पैदा हुआ। कुछ वर्षों बाद रानी ने अपने पुत्र को राजा बनाने तथा सौतेले बच्चों को देष निकासी का वर माँगा। राजा ओक्काक ने वैसा ही किया। ये निर्वासित राजकुमार अपनी बहनों के साथ हिमालय की तलहटी में कमलसागर के किनारे षाक्य उपवन (सागौन वन) को काटकर अपना निवास बनाये और उनका वंष षाक्य वंष कहलाया। कपिल मुनि के आश्रम में अपनी राजधानी बनाकर उसका नाम कपिलवस्तु रखा। इन राजकुमारों ने रक्त षुद्धता की दृष्टि से अपनी बड़ी बहन पिया को साक्षी मानकर षेष बहनों से षादी कर लिया। चारों राजकुमार सुखी दाम्पत्य जीवन व्यतीत कर रहे थे कि बड़ी बहन पिया को कुष्ट रोग हो गया। उसका अंग कोविलार फूल की तरह दिखाई देने लगा। राजकुमारों तथा उनकी पत्नियों को पिया के साथ रहने से कुष्ट रोग हो जाने का भय सताने लगा। एक दिन चारों भाई योजनानुसार अपनी बड़ी बहन को रथ पर बैठाकर षिकार खेलने के बहाने जंगल में ले गये। एक कमल वावली खोद कर पृथ्वी में एक भूमिगत कक्ष बनाया। उसमें अपनी बड़ी बहन को बैठा दिया। उसके खाने पीने का सामान रखकर ऊपर से मिट्टी से ढंक दिया और कक्ष का द्वार बन्द कर दिया। दरवाजे पर मिट्टी का धूह खड़ा करके वापिस चले आये। एक दिन राजा राम आग जलाकर बैठे हुए थे। उसी समय एक बाघ मनुष्य का गंध पाकर उस बावली के तरफ गया। उस भूमिगत कक्ष को अपने पंजों से खोदने लगा। यह देखकर राजकुमारी भय वष चिल्लाने लगी। राजा राम सुनसान जंगल में लड़की का आवाज सुनकर उधर दौड़े। हाथ में आग लेकर आ रहे आदमी को देखकर तथा उसकी कड़क आवाज से वह बाघ भाग खड़ा हुआ। उस स्थान पर पहुँचकर राजा ने पूछा-
राम-ः कौन ?
राजकुमारी-ः देव एक स्त्री।
राम-ः तुम किस जाति की हो ?
राजकुमारी-ः मैं इक्ष्वाकुवंषी हूँ भद्र।
राम-ः बाहर आओ।
राजकुमारी-ः मैं बाहर नहीं आ सकती।
राम-ः क्यों ?राजकुमारी-ः मुझे कुष्ट रोग है।
सारी वार्ता के बाद राम ने बताया कि मैं भी नागवंषीय क्षत्रिय हूँ। उस बावली में सीढ़ी लगाकर राजकुमारी को बाहर निकाले। राजकुमारी को अपने कुटी पर लाये। राम ने उस राजकुमारी को वही औषधि दिया जिसके सेवन से वे स्वयं ठीक हुए थे। उस दवा के सेवन से चन्द दिनों में राजकुमारी भी कुष्ट रोग से मुक्ति पा गई। दोनों दाम्पत्य जीवन यापन करने लगे। राजकुमारी से प्रथम बार में दो ,दूसरी बार में दो ,इस प्रकार सोलह बार में कुल बत्तीस बच्चों ने जन्म लिया। एक दिन काषी (बनारस) का एक रतन पारखी हिमालय की तलहटी में रत्नों की खोज कर रहा था। अकस्मात काषी नरेष राम से उसकी मुलाकात हो गई। वह रत्न पारखी राजा के साथ एक स्त्री और बत्तीस बच्चों को देखकर पूछा-राजन मैं भलीभाँति आपको जानता पहचानता हूँ। परन्तु यह स्त्री एवं बच्चों को देखकर मैं चकित हूँ। राजा राम ने उसे सारा बृतान्त बताया। एक दूसरे के समाचार का आदान प्रदान किया। उस रत्न पारखी ने वापिस आकर राजा के बड़े पुत्र जो उस समय काषी का राजा था को सारा वृतान्त बताया। बड़े पुत्र ने अपने पिता को वापिस लाने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ प्रस्थान किया। राजा से मिलकर काषी वापिस चलने का आग्रह किया। परन्तु राजा ने वापिस जाने से इन्कार कर दिया। राजा ने कहा कि हमने बहुत राज्य किया और कहा कि कोल (बैर) के वृक्षों को साफ करके हम लोगों को रहने के लिए एक नगर बसा दो। राजा के पुत्र ने वैसा ही किया। कोल वृक्षों को काटकर बसने के कारण उस नगर को कोल नगर तथा उसी रास्ते से व्याघ्र आते जाते थे इसलिए उस स्थान को व्याघ्र पंजा भी कहा गया। कालान्तर में कोल नगर ही आज का कोलियाँग्राम कहा जाने लगा। जो आज भी रोहीन नदी के तट पर बसा हुआ है। उस नगर के बसाने के बाद बड़े राजकुमार वापिस चले गये। बड़े होने पर इन राजकुमारों ने अपने षाक्यवंषी मामा की पुत्रियों से विवाह किया। कोल वृक्षों को काटकर वहाँ बसने के कारण ये कोलियवंषी कहलाए और इस प्रकार कोलिय वंष की उत्त्पत्ति हुई।
जनपद महाराजपुर के लक्ष्मीपुर ब्लाक में स्थित बनरसिया कला गाँव के बगल में 888 एकड़ क्षेत्र में कई टीले ,स्तूप ,छोटा सागर, बड़ा सागर नामक पुष्करणियाँ (ताल) हैं। सन् 1922 में पुरातत्व विभाग को खुदाई में यह स्तूप मिले हैं। यह स्थान रोहिणी नदी के कुछ दूरी पर पष्चिमी किनारे पर स्थित है। यहाँ के स्तूप ईंटों के हैं। जनश्रुति है कि कोलिय राज्य के संस्थापक राजा राम के बनारस वासी होने के कारण इस स्थान का नाम बनरसिया कला पड़ा। बनरसिया कला गाँव के बुढ़िया माई के स्थान (महामाया का जन्म स्थल) पर चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा व षिवलिंग का पूजन अत्यंत प्राचीन काल से किया जा रहा है। यहाँ षिवरात्रि के अवसर पर मेला लगता है। उल्लेखनीय है कि नागवंषीय कोलिय षिव के आराधक थे। (पुस्तक-भारत के प्रमुख बौद्ध केन्द्र पृष्ठ 179-180 लेखक-डाॅ. दानपालसिंह)।
राजा राम का बनरसियाकला में भी उनका एक गढ़ था। बनरसिया कला के पूरब उत्तर दिषा में चैक के पास जंगल में आज भी कोढ़िया जंगल विद्यमान है। राजा राम और उनकी पत्नि पिया के उसी जंगल में बसने तथा उसी जंगल में जड़ी बूटी के सेवन से कुष्ट रोग ठीक होने के कारण उस जंगल का नाम कोढ़िया जंगल पड़ा।
षाक्यवंष और कोलियवंष की उत्त्पत्ति की यह मनगढ़ंत कहानी इतिहास की दूकान चलाने वालों की कपोल कल्पित कहानी लगती है। यह वंष निर्धारण षुद्ध रूप से जाति परिवत्र्तन से सम्बंधित प्रकरण प्रतीत होता है। मुझे विष्वास है कि नागों ने अपने पिता राम और उनकी पत्नि पिया (जिसका वंष अज्ञात था तथा जंगल में मिली थी।) से पैदा हुए बच्चों को राम की मृत्यु के बाद अपने जाति व परिवार में स्वीकार न किया हो अर्थात जाति बहिष्कृत कर दिया हो। तब इन बच्चों ने अपने दम पर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत किया और ब्राह्मणों से मिलकर अपने को कोलियवंषी घोषित किया। चूंकि षाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु का जिक्र रामायण में नहीं है जिससे इनके इक्ष्वाकुवंषीय होने पर संदेह होना स्वाभाविक है। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार मनु से लेकर महाभारत तक 94 पीढ़ी तथा उसी पीढ़ी में महाभारत के बाद 23 वीं पीढ़ी पर षाक्य नाम के एक राजा के नाम का उल्लेख वंषावली में हुआ है। जो मनुष्य थे न कि वृक्ष। अतः इस षाक्य राजा को षाक्य वंष से जोड़ना संभव नहीं है। क्योंकि इतिहासकारों के अनुसार षाक्य वन काटकर बसने के कारण षाक्यवंषी तथा कोलवन को काटकर बसने के कारण कोलियवंषी कहलाए।
(1) डाॅ. राजबली पाण्डेय ने कोलियवंष व षाक्यवंष की उत्त्पत्ति पर स्वयं संदेह व्यक्त किया है-ः‘‘कोलिय वंष की उत्त्पत्ति की कहानी और बौद्ध साहित्य महापरिनिर्वाणसुत्त तथा दिघनिकाय में लिखा गया है। इसमें इतिहास तथा कल्पना का विचित्र मिश्रण दिखाई देता है।’’ (पुस्तक-ः गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ-65 लेखक-राजबली पाण्डेय)।
(2) यद्यपि इतिहासकारों ने षाक्यों को इक्ष्वाकुवंषी होना बताया है परन्तु हिन्दुओं के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ बाल्मीकि कृत रामायण तथा तुलसीकृत रामचरित मानस में कहीं भी षाक्यों का जिक्र नहीं है। (पुस्तक-ः अयोध्या का इतिहास पृष्ठ-7 लेखक-अवधवासी लाल सीताराम व पुस्तक-ः राप्ती तट का इतिहास पृष्ठ-56 लेखक-डाॅ. दानपालसिंह)
काषी नरेष राम की नई राजधानी रामगढ़ का विस्तार-ः षाक्य राज के पूरब में उत्तर से दक्षिण तक नागवंषीय षासक राम का राज्य था। षाक्य राज्य और कोलिय राज्य के बीच में रोहिणी नदी सीमा थी। बुद्ध के अवषेषों पर निर्मित रामग्राम स्तूप की पूजा नाग करते थे। ये नाग निर्विवाद रूप से रामपुर के नागवंषियों के परिचायक हैं। इनका राज्य गोरखपुर के सदर तहसील के दक्षिणी भाग तथा बाँसगाँव के पष्चिमी भाग भाग में विस्तृत था। काषी के नागवंषी राजा ने अपना राज्य अपने बड़े पुत्र को सौंपकर स्वयं वर्तमान गोरखपुर के आसपास अपना निवेष बनाया। बाद में उनके साथ रहने के लिए बहुत से नागवंषी सरयू पार करके यहाँ आ बसे। बौद्ध धर्म के प्रचार से अधिकांष नागवंषी प्रभावित होकर बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये। थोड़े से ही लोग ब्राह्मण धर्म के अनुयायी रह गये थे। नागवंषियों का गणराज्य भी मगध गणराज्य के उदय होने पर नष्ट हो गया किन्तु नागवंषी जीवित रहे। (पुस्तक-गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 296 लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय)। चूंकि वर्तमान जनपद महाराजगंज के नौतनवा तहसील में स्थित बनरसियाकला जिसे बनारस के नागवंषी षासक राम ने बसाया था। यहाँ पर उनका एक गढ़ (किला) था। बनारस के राजा राम के नाम पर दत्रउस षहर का नाम बनरसिया कला पड़ा था। बनरसिया कला गाँव के पूर्वोत्तर दिषा में एक ऊँचा टीला है जहाँ पर आज भी पुराने ईंट तितर वितर पड़े हुए हैं। वहाँ के लोग उस टीले को किला बताते हैं और आम जनता उसे बनरसगढ़ कहती है। कोढ़िया जंगल जो षहर महाराजगंज से लगभग पन्द्रह किलोमीटर उत्तर चैक के पास स्थित है, यहीं पर नागवंषी षासक राम और षाक्यवंषी पत्नि पिया ने आवास बनाया था। यहीं पर जड़ी बूटी के सेवन से दोनों का कोढ़ ठीक हुआ था। इससे स्पष्ट है कि नागवंषी षासक राम के राज्य का विस्तार उत्तर में नेपाल देष की सीमा तक था। बनरसिया कला में ही बुद्ध की माता महामाया का मायका था। महामाया भी कोलियवंष की राजकुमारी थीं।
गोरखपुर विष्वविद्यालय द्वारा डाॅ. षिवराजसिंह से सन् 1963-64 में जनपद महाराजगंज के मड़ियाभार स्थित किले के विषय में षोधकार्य करवाया। डाॅ. षिवराजसिंह ने मड़ियाभार को प्राचीन कोलियनगर के रूप में चिन्हित किया है। वर्तमान में मड़ियाभार के समीप एक बड़े नगर के ध्वंषावषेष भी मौजूद हैं। स्थानीय किंवदन्ती में भी यहाँ प्राचीन नगर या स्तूप होने के संकेत करती है। इसी के समीप रामनगर नामक एक ग्राम का निवेष भी है। (पुस्तक- गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास पृ. 84 लेखक-दिवाकर तिवारी )
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि मड़ियाभार में भी राजा राम का एक गढ़ था।
काषी के नागवंषी षासक राम क्या आधुनिक भर/राजभर थे ? इस सम्बंध में कुछ धार्मिक ग्रन्थों और इतिहासकारों के विचारों का अवलोकन करें-ः
(1) महाभारत के अध्याय ‘‘आदि पर्व’’ के षीर्षक ‘‘खाण्डव वन की दाह कथा’’ के अनुसार खाण्छव वन नागवंषियों का निवास था। वहाँ उनके छोटे छोटे राज्य थे। अजफन तथा श्रीकृष्ण उनके राज्य को अपने आधीन करना चाहते थे। परन्तु नागों को उनकी आधीनता स्वीकार नहीं थी। उस समय तक्षक नाग ,वासुकि नाग आदि प्रमुख नाग षासक थे। अर्जुन व श्रीकृष्ण ने नागों द्वारा उनकी आधीनता स्वीकार न करने पर क्रुद्ध होकर उन्हें समूल नष्ट करने हेतु खाण्डव वन में आग लगा दिया ,जिसमें नागों के साथ साथ तमाम निर्दोष जीव जन्तुओं का सामूहिक संहार हुआ। जिन्दा जलते नागों के करुण क्रन्दन तथा सामूहिक चीत्कार से सारा व्योम काँप् उठा। जोे नाग अपने निवास पर नहीं थे या अन्यत्र गये हुए थे केवल वही बच पाये। इस अग्निकाण्ड से नाग धन सम्पदा एवं घर विहीन होकर दीन हीन दषा में दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गये। अर्जुन व श्रीकृष्ण के मारे जाने के भय से बचे हुए नाग चोरी व डकैती करके अपना जीवन यापन करने को मजबूर हो गये। अस अग्निकाण्ड ने अर्जुन व श्रीकृष्ण को नागों का स्थायी दुष्मन बना दिया। एक बार महाभारत के महान धनुर्धर अर्जुन श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर जा रहे थे। नागों ने मौका पाकर अजर्फन को परास्त करके श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लूट कर अपना बदला चुका लिया। अर्जुन के ण्क मात्र धनुर्धर होने पर प्रष्न-चिन्ह लगा दिया। इस घटना से क्षुब्ध होकर अजर्फन ने कुछ ही दिनों में अपना प्राण त्याग दिये ।उन वीर नागों को जिन्होंने अर्जुन को परास्त करके उनके साथ जा रही श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लूट लिया था को महाकवि तुलसीदास ने अपनी पुस्तक दोहावली में ‘‘भर’’ षब्द से निरूपित किया है।
‘‘बचन कहे अभिमान के ,पारथ पेखत सेतु। प्रभु तिय लूटत नीच भर ,जयन मीचु तिहि हेतु।।’’ उक्त दोहे का अनुवाद श्री हनुमानप्रसाद पोद्धार प्रकाष कल्याण गीता प्रेस गोरखपुर ने इस प्रकार किया है-ः‘‘एक समय श्रीरामचन्द्र जी कृत सेतुबंध रामेष्वरम् के पत्थरों को देखकर अर्जुन ने अपने को अद्वितीय महान धनुर्धर होने के अभिमान में श्रीकृष्ण से कहा कि इस सेतु को बाँधने में राम ने इतना प्रयत्न क्यों किया। मैं उस समय होता तो सारा पुल वाणों से बना दिया होता। इस अभिमान का परिणाम यह हुआ कि एक समय अर्जुन श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर जा रहे थे। रास्ते में लीच भरों ने अर्जुन को परास्त करके औरतों को लूट ले गये। इस अपमान सक अर्जुन का मरण हो गया। (नोट-ः चोरी व डकैती के कारण बाल्मिकी जैसे विद्वान ब्राह्मण को षूद्र कहा गया तो अपना राज्य छिन जाने के कारण दीन हीन दषा में रहने वाल भरों को जिन्होंने हिन्दुओं के आराध्यदेव श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लूट लिया था ,उन भरों के लिए तुलसीदास द्वारा नीच षब्द का प्रयोग करना स्वाभाविक ही था। तुलसीदास के उक्त दोहे से स्पष्ट है कि वर्तमान में भर या राजभर कही जाने वाली जाति पौराणिक काल में नाग कही जाती थी। अर्थात भर या राजभर नागवंषी हैं। यद्यपि पाण्डवों और नागों में वैवाहिक सम्बंध होते थे। कई नाग कन्याओं की षादी पाण्डव परिवार में हुई थी। फिर भी नागवंषी अपने समुदाय के सामूहिक संहार को नहीं भूल पाते थे। राजा परीक्षित को नागों ने मौका पाकर मार डाला ,जिससे क्रोधित होकर्र जनमेजय ने नागयज्ञ करके नागों को पकड़वा पकड़वा कर जिन्दा ही हवन कुण्ड में डलवा दिया।
(2) भारत के विभिन्न भागों में सन् 150 से 240 ईस्वी तक नाग राजाओं का राज्य रहा। इन नागवंषी राजाओं में षेषनाग प्रमुख थै। इनकी वंष परम्परा के नौ राजाओं को नवनाग या भारषिव कहा जाता था। कान्तितपुर ,मथुरा इनकी प्रमुख राजधानियाँ रहीं हैं। वर्तमान मिर्जापुर ,सीधी ,बाँदा जिला में इनके कई किले खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं। परन्तु आज ये दलित माने जाते हैं ,जबकि नागवंष सूर्य वंष की एक षाखा मानी जाती है पौराणिक काल में ये बड़े बड़े साम्राज्यों के स्वामी रहे हैं। (पुस्तक-‘‘आदिवासी या जनजाति नहीं ,ये हैं मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानी’’ पृष्ठ 39, षीर्षक ‘‘भर या राजभर या भारषिव’’ लेखक-ःरामफलसिंह ‘‘रामजी भाई’’)।
(3) काषी के ऊपर और आसपास के सभी प्रान्तों पर कुषाण साम्राज्य स्थापित था। उनको नष्ट करके अपने पराक्रम से भारषिवों ने गंगा के प्रदेष पर अपना अधिकार जमाया और गंगा जल से उनका अभिषेक हुआ। स्व. काषीप्रसाद जैसवाल क ेमत में भारषिवों ने काषी के दषाष्वमेध घाट पर ही दस अष्वमेध यज्ञ किया था। (-ःपृस्तक-गोरखपुर और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 165 लेखक- डाॅ. राजबली पाण्डेय) नोट-ः नागवंषी राजवंष ने अपने कंधे पर षिवलिंग का भार वहन कर षिव को परितृष्ट करने के कारण भारषिव कहलाया। (डाॅ. काषीप्रसाद जैसवाल पुस्तक-अन्धकार युगीन भारत)।
(4) युक्त प्रान्त के पूर्वी जनपदों (विषेषकर गोरखपुर जनपद में) और बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड में यह अनुश्रुति प्रचलित है कि आधुनिक राजपूतों ने भरों को हराकर इन प्रान्तों पर अपना अधिकार जमाया था। वास्तव में ये भर नागवंषी भारषिवों के वंषज थै। (पुस्तक-ःगोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 165 लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय एवं पुस्तक-गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास पृष्ठ 131 लेखक-दिवाकरप्रसाद तिवारी)।
प्राचीन कोलियों की वर्तमान पहचान-ः प्राचीन कोलिय जिनकी उत्त्पत्ति नागवंषीय नरेष राम और षाक्यवंषी राजकुमारी के संयोग से हुई थी ,उनको कोलियों की उत्त्पत्ति के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय ने अपनी पुस्तक में बौद्ध ग्रन्थ दिघनिकाय में वर्णित कहानी को मूलतः दुहराया है और वर्तमान में कोलियों के वंषजों की पहिचान किया है।
(1) सबसे पहले काषी के साथ कपिलवस्तु के यााक्यों के सम्बंध से नागवंषी गोरखपुर में आये और उन्होंने आधुनिक गोरखपुर के पास कोलियाँ के राम जनपद की स्थापना की। (पुस्तक- गोरखपुर जनपद व उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 284 लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय)।
(2) कोलियवंष ,षाक्यवंष की कन्या तथा काषी के नाग षासक राम के सम्बंध से रामग्राम (राम जनपद) में पैदा हुआ। (पुस्तक-तदैव पृष्ठ 68)।
(3) गोरखपुर में बीस हजार ऐसे सैंथवार हैं जो अपने को नागवंषी कहते हैं। परन्तु पहले ही देखा गया है कि राम जनपद का कोलियवंष नागवंषीय क्षत्रिय था। (पुस्तक-ःतदैव पृष्ठ 154)।
(4) राम जनपद का कोलियवंष नागवंषीय क्षत्रिय था। जहाँ कोलिय राष्ट्र था ,वहीं सैंथवार नागवंषियों की संख्या अधिक है। अतः यह स्वाभाविक परिणाम निकाला जा सकता है कि ये प्राचीन नागवंषी कोलियों के पूर्वज हैं। (तदैव पृष्ठ 154)।
(5) नकहनियाँ वंष जिनका निवास क्षेत्र उस भाग में है जहाँ प्राचीनकाल में नागवंषीय कोलियों का जनपद था ,इसलिए नकहनियाँ सैंथवार क्षत्रियों का मूलवंष नाग और प्राचीन जनपद राम जनपद है। ( तदैव पृष्ठ 322)। अतः डाॅ. राजबली पाण्डेय के अनुसार वर्तमान सैंथवार ही प्राचीन कोलिय हैं।
काषी नरेष राम का गोरखपुर में षासन काल का निर्धारण-ः चूंकि षाक्यवंष के प्रथम पुरुष ओक्कामुख और उनके भाइयों का उल्लेख रामायण में नहीं है और न तो उनकी राजधानी कपिलवस्तु का वर्णन है, रामायाण में कोलिय वंष का भी वर्णन नहीं है। इससे स्पष्ट है कि सतयुग ,त्रेता व द्वापर में इन दोनों वंषों की उत्त्पत्ति नहीं हुई थी। इन दोनों वंषों को इक्ष्वाकुवंष से जोड़ना इतिहासकारों की मिलीभगत लगती है।
महात्मा बुद्ध की माता महामाया कोलियवंष की राजकुमारी थी। इससे स्पष्ट होता है कि बुद्ध के जन्म के समय कोलियवंष का अभ्युदय हो चुका था। अर्थात कोलियवंष की उत्त्पत्ति बुद्ध के जन्म 563 ई.पू. के पहले 7 वीं षताब्दि ई.पू. माना जा सकता है। परन्तु सैंथवार जाति जो अपने को कोलियवंषी बताते हैं उनके उत्पत्ति के विषय में सन्देह व्यक्त करते हुए अनेक इतिहासकारों ने कहा है कि सैंथवार जाति में सम्मिलित राजपूत जातियों का कुर्सीनामा 18 पीढ़ी से ज्यादा नहीं मिलता है। इससे तो यही प्रतीत होता है कि कोलियों की उत्त्पत्ति सातवीं सदी हो सकती है। मेरे विचार से अगर बुद्ध की माता महामाया कोलियवंषी राजकुमारी थीं तो यह भी सही है कि काषी नरेष राम का गोरखपुर में षासनकाल सातवीं षताब्दि ई. पू. में रहा है।
नागवंषी कोलियों की ज्यादा आबादी पूर्वी उत्तरप्रदेष तथा बिहार के पष्चिमी भाग में थी। बौद्धधर्म में दीक्षित होने के कारण बुद्ध द्वारा बताए गये नियमों के पालन तथा समय समय पर समूह में एकत्र होकर बैठक करने वाले संस्थागारों से सम्बंधित लोगों को संस्थागारिक कहा जाने लगा जिसका अपभृन्ष संस्थावार या सैंथवार नाम प्रचलित हो गया। (पुस्तक- क्षत्रिय राजवंष पृष्ठ 385 लेखक-डाॅ. रघुनाथचंद्र/डाॅ. प्रदीप राव)
भोगी से योगी बने, भर राजा भर्तृहरि (7 वीं सदी)
लेखक - श्री रामचन्द्र राव, ग्राम - खैरावाद पो.परषुरामपुर, जिला-गोरखपुर (उ.प्र.) मो. 9453303481
जीवन परिचय - आज भारत का कौन सा गाॅंव या परिवार है जो राजा भर्तृहरि को नहीं जानता। भर राजा भर्तृहरि एक ऐतिहासिक पुरूष थे। आम जनता मैं इन्हें भरथरी के नाम से जाना जाता है राजा भर्तृहरि के जीवन चरित्र के विषय में तमाम जनश्रुतियाॅ प्रचलित है। मुख्य रूप से गाॅंव-गाॅव में घूमने वाले योगी आज भी उनकी जीवन गाथा को जीवित किये हुए हैं। वे अपने योगी गीतों में उनकी जीवन गाथा गाते पाये जाते हैं। पुस्तक भर्तृहरिषतक रूपान्तरकार जी, विवेक मोहन व पुस्तक नाथ सिद्व चरितमृत प्रस्तुत कर्ता श्री रामलाल श्रीवास्तव के आधार पर उनके जीवन पर प्रकाष डालने का प्रयत्न किया जा रहा है।
प्रबन्ध चिन्तामणि (1304 ई.) व विक्रम चरित में उल्लेख है कि भानु विजयमुनि के विक्रम प्रबंधरास के अनुसार कंचनपुर के राजा हेमरथ थे। उनकी पत्नी का नाम हेममाला था। हेमरथ के पुत्री को एक पुत्र हुआ जिसका नाम गन्धर्वसेन उर्फ चन्द्रसेन था। गन्धर्वसेन बहुत ही सुन्दर थे। उनके आकर्षक मुख मण्डल को देखकर युवतियां उनको देखती ही रह जाती थी। किन्ही कारणों से राजा ने उन्हे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। गन्धर्व सेन बन में चले गये और घोर तपस्या करके योग सिद्वि प्राप्त की। एक दिन गन्धर्वसेन हेमबर्धन नगर में पहुंचे हेमबर्धन नगर के राजा रत्नसेन और उनकी पत्नी रत्नावली नें गन्धर्वसेन के आचार व्यवहार तथा प्रभा मण्डल को देखकर अपनी पुत्री का विवाह गन्धर्वसेन से कर दिया। बाद में गन्धर्वसेन मालवा के सम्राट हुए। 108 राजा और अधिराजा उनके अधीन थे। गन्धर्वसेन की दो पत्नियां थी।
1. राजा रत्नसेन की पुत्री रूप सुन्दर उर्फ घीमती। जिससे भर्तृहरि पैदा हुए।
2. राजा ताम्रसेन की पुत्री महेन्द्रलेखा उर्फ श्रीमती पदमावती। जिससे विक्रम पैदा हुए।
ष्षुरू में राजा के द्वारा मारे जाने के भय से रानी पदमावती के इषारे पर दासी मालिनी ने विक्रम का पालन पोषण किया। क्योंकि ज्योतिषियों ने राजा गन्धर्वसेन को बताया कि पदमावती का पुत्र ही राजा होगा। जबकि वह भर्तृहरि से छोटा तथा सौतेला भाई था।
(अ)पुस्तक भर्तृहरिषतक अनुवादकर्ता श्री विवेक मोहन के अनुसार राजा भर्तृहरि की दो रानियाॅ थीं। बड़ी रानी का नाम अनंगसेना तथा छोटी रानी का नाम पिगंला उर्फ सामदेवी था। अनुधुति है कि योगी गोपीचंद राजा भर्तृहरि के भाॅन्जे थे और भर्तृहरि के बहन का नाम मयनावती था।
(ब) पुस्तक नाथ सिद्ध चरितामृत पृ. 187 के अनुसार रानी पिंगला ही उनकी एक मात्र रानी थी। षेष सभी पट रानियाॅ थी। रानियों और पटरानियों के अतिरिक्त अपने रूप लावण्य और सौन्दर्य के लिए प्रसिद्व गणिका रूपलेखा का भोग विलास में डूबे राजा भर्तृहरि के चंचल हृदय क्षेत्र पर एकाधिकार था वे आये दिन अपनी मान मर्यादा की उपेक्षा करते हुए गणिका रूप लेखा के यहाॅं दिखायी दे जाते थे। मलिक मुहम्मद जापसों की पुस्तक पद्मावत, जोगी खण्ड 6 के अनुसार राजा भर्तृहरि के पास 1600 रानियाॅ थी। कृपया अवलोकन करें।
‘‘ राजा भरथरी सुना जो ज्ञानी, जेहि के घर सोलह सौ रानी।।
राजा भर्तृहरि के जाति के विषय में डाॅ. सरित किषोरी ने अपनी‘‘ पुस्तक वाराणसी के स्थाननामों का सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 4 पर उल्लेख किया है।
(1) राजभर शासक इन्दु भर (इन्दुपुर देवरिया) 645 ई. से 702 ई. तक
(2) इन्दुपुर की कालिका भवानी
(3) भर जाति के नाम पर भारत का नामकरण
(4) राजभर शासक मित्रसेन (भौवापार गोरखपुर 1252 ई. से 1278 ई.
(5) षक्ति-स्वरूपा महारानी वल्लरी देवी
(6) राजभर शासक राम का गोरखपुर में शासन (7 वीं सदी ई.पू.)
(7) भोगी से योगी बने भर राजा भर्तªहरि ( 7 वीं सदी )
(8) राजा सोहनाग (दूसरी सदी- सोहनाग देवरिया)
(9) राजा शिवविलास- 8वीं सदी (मझौली राज देवरिया)
(10) साम्प्रदायिक सद्भावना के प्रतीक थे -महाराजा सुहेलदेव
(11)राजभर राजा रुद्रसेन का पतन (चैथी शताब्दी)
(12)
(1) राजभर शासक इन्दू भर (इन्दूपुर देवरिया )
(645 ईस्वी से 702 ईस्वी तक)
(लेखक-ःश्री रामचन्द्र राव, ग्राम-ःखैराबाद, पोस्ट-ः पिपराइच (परशुरामपुर), जिला-ः गोरखपुर उ.प्र.)
जिला देवरिया मुख्यालय के पश्चिम गौरी बाजार एक रेल्वे स्टेशन है ! गौरी बाजार से रुद्रपुर मार्ग पर किलोमीटर 4 पर सड़क के पश्चिम इन्दूपुर ग्राम है ! इन्दूपुर गांव ऐतिहासिक गांव है ! गांव के दक्षिण कालिका भवानी का विशाल मन्दिर है ! मन्दिर के दक्षिण पश्चिम दिशा में मन्दिर के पास ही बिखरे हुए पुराने ईंटों का ढेर आज भी मौजूद है ! जिसके अवलोकन से लगता है कि यहां पर बहुत पहले किसी राजा का गढ़ रहा होगा ! किम्वदन्ती है कि विक्रमी संवत् 745 अर्थात सन 688 में यहां पर इन्दू भर नामक राजा का शासन था ! राजा इन्दू भर यहां पर एक स्वतंत्र शासक के रूप में षासन कर रहे थे ! राजा इन्दू का राज्य उत्तर दिषा में इन्दूपुर से 16 किलोमीटर तक तथा दक्षिण में 7 किलोमीटर तक पूरब में देवरिया तथा पश्चिम में चैराचैरी तक विस्तृत था ! आज भी यह जनश्रुति प्रचलित है कि इन्दूपुर को राजभर शासक इन्दू ने बसाया था और उन्हीं के नाम पर इसका नाम इन्दूपुर पड़ा ! लोग कहते हैं कि इन्दू भर के पूर्वजों के समय से ही यहां पर राजभरों का शासन रहा है ! राजा इन्दू के समय में इन्दूपुर के दक्षिण रुद्रपुर में राजा लवंगदेवा का शासन था ! राजा लवंगदेव अयोध्या के राजा दीर्घबाहु के 52 वीं पीढ़ी में पैदा हुए थे । राजा लवंगदेव के समय लगभग सम्पूर्ण उत्तर भारत में राजा हर्ष का ष्षासन था !राजा हर्ष बौद्ध धर्म के अनुयायी थे । रुद्रपुर के राजा लवंगदेव का उस समय गोरखपुर के रामगढ़ के पास रामग्राम में जहां पहले बौद्ध विहार था वहीं पर उनकी एक सैनिक छावनी थी ! एक बार विलासी बौद्ध भिक्षुओं ने कुछ युवतियों को जबरन बौद्ध भिक्षुणी बनाने हेतु इसी बौद्ध विहार में कैद कर रखा था । वैदिक धर्मी राजा लवंगदेव को जब इसकी जानकारी हुई तो उन्होंने उन युवतियों को छुड़ाने के लिए सैनिकों को भेजा ! उनकी सेना ने उन बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला और युवतियों को छुड़ा दिया ! यह सुनकर बौद्धधर्मी राजा हर्ष की क्रोधाग्नि भभक उठी ! उसने अपने सेनापति अरुणाश्व उर्फ अर्जुन को राजा लवंगदेव को उसके किये की सजा देने के लिए सेना के साथ रुद्रपुर भेजा ! अरुणाश्व ने मयूरगढ़ (राजधानी) डोमनगढ़ व रामगढ़ आदि इस क्षेत्र के कई गढ़ों को जीतते हुए रुद्रपुर पहुंचा ! उसने रुद्रपुर के सकुनकोट को चारों तरफ से घेर लिया और युद्ध में राजा लवंगदेव को मार डाला ! राजा लवंगदेव के मर जाने के बाद हाहाकार मच गया ! उस समय राजा लवंगदेव के बच्चे अभी छोटे थे ! राजा लवंगदेव का सेनापति जिसका नाम भी अर्जुन था तीनों राजकुमारों महिमाशाह, महिलोचनशाह और चन्द्रभानशाह को साथ लेकर पश्चिम की तरफ भाग खड़ा हुआ ! राजा हर्ष के सेनापति ने राजा हर्ष के निर्देशानुसार रुद्रपुर के राज्य को कई भागों में बांटकर छोटे छोटे राजाओं को वितरित कर दिया । जो निम्नांनुसार था-- (1) तप्पा उमरा तथा तप्पा बटुका इन्दू भर को (2) उसके आसपास के क्षेत्र को एक पवार ठाकुर को (3) गोरखपुर तथा डोमनगढ़ कोट डोमन कटार राजा को (4) सकुनकोट मझौली के विसेन ठाकुर को (5) भौवापार एक राजभर शासक को (6) तथा कटहरा तथा लेहुड़ा एक बंजारा सरदार को दिया !
इस घटना को श्री अश्वनी द्विवेदी ने इस प्रकार उल्लेख किया है-‘‘ राजा बृजभान के 51 पीढ़ी में राजा लवंगदेव सिंहासन पर बैइे ! उस समय हर्ष सम्पूर्ण उत्तर भारत का सम्राट था ! वह बौद्ध धर्म का अनुयायी था ! विलासी बौद्ध भिक्षुओं ने रामगढ़ (गोरखपुर) के निकटवर्ती अपने रामग्राम नामक विहार में कुछ कन्याओं को बलात् बौद्ध भिक्षणी बनाने के नियत से बन्द कर दिया । उस समय रामगढ़ में राजा लवंगदेव की फौजी छावनी थी ! लवंगदेव की सेना ने आक्रमण करके बौद्ध भिक्षुओं को मार डाला और उनके बौद्ध विहार को जला दिया ! यह सुनकर हर्ष ने लवंगदेव को दण्ड देने के लिए अरुणाश्व के नेतृत्व में एक सेना भेजी ! उन्होंने सबसे पहले डोमिनगढ़ को घेरा उसके बाद रामगढ़ को और मयूरगढ़ वर्तमान ग्राम (राजधानी) को जीतते हुए शकुनकोट को घेर लिया ! अरुणाश्व उर्फ अर्जुन के सैनिकों ने धोखे से लवंगदेव को मार डाला ! उसके मरते ही किले में हाहाकार मच गया ! किले को अधिकार में कर लेनं के पश्चात अर्जुन ने राज्य को कई भागों में बांट दिया ! (1) तप्पा उमरा व बटुका इन्दू भर को (2) उसके आसपास का इलाका एक पवार ठाकुर को (3) गोरखपुर तथा डोमिनगढ़ कोट को डोम कटार राजा को (4) शकुनकोट मझौली के विशेन ठाकुर को (5) भौवापार राजभर राजा को (6) तप्पा करहरा तथा लेहड़ा एक बंजारा सरदार को सौंप दिया !(समाचारपत्र-- जनसंदेश टाइम्स ,1 जनवरी 2012 पृष्ठ 4, षीर्षक सूर्यवंशी राजा वशिष्ठसेन ने बसाया था रुद्रपुर नगर लेखक -अश्वनी द्विवेदी) राजा इन्दू को अपने राज्य के साथ दो और तप्पा मिल जाने के से उनका राज्य विस्तृत हो गया ! राजा इन्दू के यश में उत्तरोत्तर वृद्धि होने लगी ।
सन 647 ईस्वी में राजा हर्ष का देहान्त हो गया ! राजा हर्ष के मरते ही पूरे उत्तर भारत में अराजकता की लहर दौड़ गई। जिन राजाओं की रियासतें चली गई थीं वे उसे पाने के लिए प्रयत्नशील होने लगे ! छोटे छोटे राजा राज्य विस्तार को लेकर आपस में लड़ने लगे !उधर राजा लवंगदेव का सेनापति अर्जुन जो निःसन्तान था तीनों रातकुमारों को लेकर थानेश्वर पहुंचा था एक छोटे राजा को परास्त करके अपनी सत्ता कायम की । तीनों राजकुमार कुशल सेनापति का सानिध्य पाकर उसके कुषल मार्गदर्शन में अति शीघ्र एक परिपक्व रण योद्धा बन गये ! सन 688 में टिहरी गढ़वाल में अर्जुन के सेनापति के रूप में कई लड़ाइयां लड़ी और विजयश्री भी मिली ! राजा अर्नुन ने उसी समय उन्हें श्रीनेत घोषित किया । सन 688 में अर्जुन ने टिहरी गढ़वाल के श्रीनगर में एक राजधानी कायम की और महिमाशाह को वहां का राजा घोषित किया । 7 वरं सदी के प्रारम्भ में आन्तरिक अशान्ति का दौर चला ! हिन्दू और बौद्ध आपस में लड़ने लगे ! ऐसी परिस्थिति में राजाओं के राज्य का प्रभावित होना स्वाभाविक ही था ! उसी समय सैन्य शक्ति सशक्त हो जाने पर महिमाशाह को अपने पैतृक राज्य रुद्रपुर की याद आने लगी ! महिमाशाह ने अपने दोनों भाइयों को रुद्रपुर की रियासत पुनः वापस लेने हेतु प्रशिक्षित घुड़सवारों के साथ एक सैन्यदल रुद्रपुर को भेजा । सर्वप्रथम रुद्रपुर पर आक्रमण किया ! इस अप्रत्याशित आक्रमण से रुद्रपुर की रियासत पर कब्जा जमाये विश्वसेन राजकुमार घबड़ा गया और रात्रि के समय रुद्रपुर को छोड़कर सरयू नदी की तरफ भागकर अपना जान बचाया ! रुद्रपुर पर कब्जा करने के पश्चात इन्दूपुर पर आक्रमण किया ! उस समय इन्दूपुर पर राजभर शासक इन्दू का शासन था ! राजा इन्दू ने बु’िद्धमानी से काम लिया ! महिलोचन शाह से युद्ध न करके आपस में समझौता कर लिया ! समझौते के अनुसार राजा इन्दू को इन्दूपुर से उत्तर 16 किलोमीटर तथा दक्षिण में 7 किलोमीटर पष्चिम में तरकुलहां तथा पूरब में देवरिया तक इलाका इन्दू भर को मिला ! इस घटना को श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त ने निम्नलिखित प्रकार से उल्लेख किया है-ः
‘‘ उत्तर भारत की अशान्ति व्यवसथा देखकर महिमाशाह ने जो उस समय गढ़वाल के श्रीनगर में शासन कर रहे थे अपने दोनों भाइयों महिलोचनशाह और चन्द्रभानशाह को एक प्रशिक्षित घुड़सवार सेना की टुकड़ी के साथ अपने पैतृक राज्य रुद्रपुर पर पुनः अधिकार करने के लिए भेजा । महिलाचनशाह अपने सैनिकों के साथ गोरखपुर आये ! आते ही सबसे पहले उन्होंने रुद्रपुर पर आक्रमण किया ! मझौली का विश्वसेन राजकुमार जो उस समय रुद्रपुर पर अपना अधिकार जमाये बैठा था श्रीनेतों के अप्रत्याशित आक्रमण से घबरा गया ! वह मध्य रात्रि में बिना लडे ही चुपके से सरयू नदी के कछार में भाग गया ! रुद्रपुर के उत्तर का इलाका उस समय इन्दू भर के आधीन था ! इन्दू भर चालाक व दूरदर्षी था ! वह समझ गया कि श्रीनेतों का सामना करना उसके वष के बाहर है ! इसलिए उसने बिना यु’द्ध किये ही अपना इलाका महिलोचनशाह को दे दिया ! महिलोचनशाह ने इन्दू भर के इस व्यवहार से प्रसन्न होकर उसे गुजारे के लिए रुद्रपुर से ढाई कोस उत्तर पर 5 कोस का इलाका दिया ! मौर्य ठाकुर ने भी जिसके अधीन मयूर गढ़ था बिना लड़े ही गढ़ व इलाका राजा महिलोचनशाह को सौंप दिया ! किन्तु डोमिनगढ़ के डोम कटारों तथा भौआपार के राजभरों ने बिना युद्ध किए अपना इलाका देना अस्वीकार कर दिया ! (समाचारपत्र;- दैनिक जागरण गोरखपुर 9 सितम्बर 1997 पृष्ठ 5 ष्शीर्षक अतीत का आईना , लेखक -अयोध्याप्रसाद गुप्त ), तब से इन्दूपुर में राजा इन्दू भर का षासन अनवरत सन् 702 तक चलता रहा ! सन 702 ईस्वी में इन्दू भर का देहान्त हो गया ! जनश्रुति है कि इन्दूपुर में राजा इन्दू भर के पहले उनके पूर्वजों तथा उनकी मृत्यु के बाद उनके वंशजों का शासन रहा है । राजा इन्दू भर के वंशजों में वर्तमान समय में श्री रामकेवल, श्री रामबृक्ष और बहीर उर्फ सर्कस पुलगण, शिवपूजन आदि मौजूद हैं , ये लोग वर्तमान इन्दूपुर गांव के भर टोलिया में रहते हैं ! आज इनकी आर्थिक स्थिति दयनीय है ! राजा इन्दू के कुछ वंशज फाजिलनगर कुशीनगर में जोर बस गये हैं ! राजा इन्दू के विषय में विस्तृत जानकारी के लिए शोधकार्य की आवश्यकता है !
राजा इन्दू का शासनकाल-ः राजा हर्ष के सेनापति अरुणाश्व ने राजा लवंगदेव को मार कर रुद्रपुर राज्य के तथा उमरा व बटुका राजा इन्दू को दिया था ! राजा हर्ष की मृत्यु सन 647 ईस्वी में हुई थी ,जिससे स्पष्ट है कि राजा इन्दू भर का शासन सन 647 के पूर्व अर्थात सन 645 ईस्वी अवश्य रहा होगा ! श्री अयोध्याप्रसाद गुप्त के अनुसार राजा लवंगदेव के तीनों पुत्रों महिमाशाह, महिलोचनशाह, तथा चन्द्रभानशाह ने विक्रम संवत 745 अर्थात सन 688 ईस्वी में टेहरी गढ़वाल के श्रीनगर में अपनी सत्ता कायम की थी ! कमसे कम दस या बारह साल तक अपनी सैन्य संगठन मजबूत करने के प्ष्चात ही अपने पैतृक राज्य रुद्रपुर पर आक्रमण किया होगा ! अतः उनका रुद्रपुर पर आक्रमण का काल 707 ईस्वी हो सकता है ! जब महिलोचनशाह ने इन्दूपुर पर आक्रमण किया उस समय राजा इन्दू भर ने युद्ध न करके महिलोचनशाह से समझौता कर लिया था ! इस प्रकार मेरे विचार से इन्दूपुर पर राजा इन्दू का शासनकाल 645 से 702 ईस्वी तक हो सकता है ! प्रसिद्ध इतिहासकार एम.बी. राजभर के अनुसार 17 0ीं दसी तक इन्दूपुर पर राजा इन्दू के वंशजों का षासन रहा है !
इन्दूपुर की कालिका भवानी
(लेखक-ः श्री रामचन्द्र राव ,ग्राम खैराबाद, पोस्ट-ःपरषुरामपुर जिला-ः गोरखपुर उ.प्र.)
छेवरिया जनपद में गौरी बाजार से दक्षिण रुद्रपुर माग्र पर गौरी बाजार से 4 किलोमीटर पर इन्दूपुर गांव स्थित है ! गांव के दक्षिण मुख्य माग्र से पष्चिम लगभग एक किलोमीटर पर एक प्राचीन इन्दूपुर के कालिका भवानी का मन्दिर हे ! यह मन्दिर लगभग 3 एकड़ भूमि में विस्तृत है ! इन्दूपुर के कालिका भवानी का मन्दिर प्राचीनता ,पवित्रता तथा महात्मय के लिए देवरिया जनपद में विख्यात है ! मुख्य मन्दिर के दक्षिण पष्चिम कोण पर भैरों बाबा की प्राचीन मूत्रि है और वहीं बगल में एक प्राचीन बट वृक्ष है मन्दिर के पूर्वोत्तर कोण पर हनुमान जी की मूत्रि स्थापित है ! मन्दिर के पृष्ठ भाग अर्थात पष्चिम में प्राचीन मन्दिर है जिसमें देवी जी की पिण्डी बनी हुई है और वहीं बगल में तीन बड़ी बड़ी हथनियां सीमेन्ट की बनी हुई हैं ! चूंकि कालिका भवानी की सवारी हाथी है इसीलिए उनकी सवारी के प्रतीक के रूप में श्रद्धालुओं ने हाथियों का निर्माण करवाया है !मन्दिर के पष्मिोत्तर दिषा में पहले एक तालाब था ! परन्तु वर्तमान में वह तालाब पक्का और उसके चारों तरफ सीढ़ी बनवा दिया गया है ! तालाब के पष्चिमी तट पर एक पंक्ति में चार तथा तथा तालाब के पूर्वी तट पर एक पंक्ति में चार तथा तालाब कें के मध्य एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया गया है ! तालाब के मध्य का मन्दिर अभी निर्माणाधीन है । ये सभी मन्दिर पूर्वाभिमुख हैं ! ज्यादातर मन्दिरों में षंकर व पार्वती की मूरत रखी गई । कुछ मन्दिर का गर्भगृह अभी खाली पड़ा है । इन्दूपुर के कालिका भवानी के प्राचीन मन्दिर जिसमें माता जी की पिण्डी है और हथनियां हैं उसे राजा इन्दू भर ने बनवाया था ! स्नान हेतु बगल में एक तालाब खुदवाया था ! राजा इन्दू भर ने ही इस गांव को बसाया था और यहीं पर उनकी राजधानी थी एजिसके कारण इस गांव का नाम उनके नाम पर इन्दूपुर पड़ा और मन्दिर का नाम इन्दूपुर की कालिका भवानी मन्दिर पड़ा ! यहां जनश्रुति प्रचलित है कि राजा इन्दू काली मां के परम भक्त थे ! इस मन्दिर में सुबह षाम पूजा अर्चना करना उनका नित्य का नियम था ! लोग कहते हैं कि एक बार राजा इन्दू भर तीरथ के नियत से कलकत्ता गये हुए थे ! कलकत्तावाली कालिका भवानी का दर्षन पाकर राजा के मन में बहुत षान्ति मिली !राजा इन्दू ने कलकत्ता की कालिका भवानी के मन्दिर की भव्यता पवित्रता तथारमणीयता और मन्दिर का प्राकृतिक सौंदर्य देखकर वहीं मन्दिर में महीनों रह गये ! महीनों माता जी के मन्दिर में घंटों ध्यान मग्न रहते थे और प्रतिदिन कलकत्ता वाली कालिका भवानी को अपने राज्य चलने का अनुनय विनय करने लगे ! लोग कहते हैं कि माता जी की मूरत ळाले ही काली बनाई जाती है परन्तु माता जी का दिल अपने भक्तों के प्रति हमषा ही स्वच्छ रहा है ! एक रात कालिका भवानी ने राजा को स्वप्न में दर्षन दिया और कहा कि मैं आपके भक्ति-भाव से सन्तुष्ट हूं तथा आपके राज्य में चलने को तैयार हूं ! परन्तु मेरी षर्त यह है कि मैं आपकी कुलदेवी के रूप् में आपके गढ़ के करीब रहूंगी ! ध्यान रहे मेरे मन्दिर की देखभाल व सेवा टहल का कार्य आपके राजभर परिवार के लोग ही करेंगे । अन्य के द्वारा मेरी पिण्डी/मूर्ति को छूना तक मुझे पसन्द नहीं है ! जिस दिन तेरा या मेरे मन्दिर की उपेक्षा की गई उस दिन आपके परिवार का अनिष्ट हो जायेगा और राज्य का पतन भी हो जायेगा ! राजा इन्दू ने यह सोचकर कि जिसके ऊपर कालिका भवानी का वरदहस्त हो उसका कोई क्या बिगाड़ पायेगा माताजी की षर्त को स्वीकार कर लिया ! राजा ने कलकत्ता की कालिका भवानी के निर्देषानुसार कार्य किया और वहां से पिण्डी लाकर अपने गढ़ के चहारदीवारी के मध्य कालिका भवानी की मन्.त्रोच्चार के साथ पिण्डी स्थापित की तथा कालिका भवानी का एक भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया ! बगल में एक तालाब खुदवाया ! कालिका भवानी मां राजा इन्दू के परिवार में कुलदेवी के रूप में पूजी जाने लगी ! सातवीं सदी से लेकर आज तक यह देवी राजभरों की कुलदेवी के रूप में ूपजी जा रही है ! जब तक यहां राजभरों का षासन था किले के चहारदीवारी के अन्दर मन्दिर होने के कारण केवल राजपरिवार के लोग ही मन्दिर में पूजा करते थे ,इन्दुपुर से राजभरों के सत्तापतन के बाद यहां के क्षे; की जनता भी इस मन्दिर में पूजा अर्चना करने लगी ! परन्तु आज भी मन्दिर में पुजारी का कार्य राजा इन्दू भर के वंषज ही करते हैं! यद्यपि आज यहां कोई किला नहीं है ! परन्तु, पुराने ईंटों के ढेर यत्र तत्र ुैले हुए हैं ,जो यहां कभी किसी निर्मित भवन/किला होने की तरफ इषारा करते हैं ! इस मन्दिर में भक्तों की मनोकामना पूरी होने के कारण यह मन्दिर श्रद्धालुओं की अगाध श्रद्धा का केन्द्र बना हुआ है ! कहते हैं कि मनोवांछित मनोकामना पूरी करने वाली ममतामयी कालिका भवानी के मन्दिर में सच्चे मन से अर्ज करने वाले भक्त कभी निराष नहीं लौटते हैं । जिन जिन प्रतिष्ठित लोगों की मनोकामना इस देवी मां के दया दृष्टि से पूरी हुई है वे लोग इस मन्दिर के परिसर में अपना अलग अलग मन्दिर का निर्माण करवाये हैं । इन मनमोहक मन्दिरों की संख्या 9 है । कालिका भवानी मां का मन्दिर तथा बगल में 9 अत्यन्त सुन्दर मनभावन मन्दिर परिसर की रमणीयता एवं प्राकृतिक सौंदर्य ने मन्दिर के आकर्षण में चार चांद लगा दिए हैं !
किंम्वदन्ती है कि पुराना मन्दिर जीर्णःषीर्ण हो जाने पर जब नये मन्दिर का निर्माण करवाया जा राि था ,उसी समय पुराने मन्दिर में कुछ लकड़ी का कार्य भी चल रहा था । लकड़ी का कार्य गणेष लोहार निवासी वसदेवा कर रह थे ! संयेग से कांटी ठोंकते समय गनेष लोहार का हाथ माता जी की मूर्ति से छू गया ! उसी समय गनेष लोहार के हाथ में कई जगहों पर कुछ खरोंच जैसे चिन्ह खिाई देने लगा ,तथा उस खरोंच वाले स्थान से खून की बूंदें टपकने लगीं ! गनेष लोहार तथा अन्य उपस्थित लोग यह आष्चर्यचकित करने वाली घटना देखकर अनहोनी की आषंका से घबड़ा गये ! यह खबर जंगल में आग की तरह पूरे क्षेत्र में फैल गई ! मन्दिर में श्रद्धालुओं का तांता लग गया ! सभी लोग पूजा अर्चन कर देवी को मनाने में लग गये ! मन्दिर के परिसर में माता जी के यषोगान तथा भजन कीर्तन से आकाष गुंजायमान हो गया ! परन्तु खून का टपकना बन्द नहीं हुआ ! तंत्र-मंत्र के जानकार विद्वत्जनों तथा काली मां के सेवकों (सोखा) ने बताया कि इन्दूपुर की कालिका भवानी राजभरों की कुलदेवी है अतः यदि राजा इन्दू भर के वंषज या कोई राजभर आकर माता जी को मनाये तो माता जी की क्रोधाग्नि षान्त होगी ! अन्यथा कुछ भी अनिष्ट हो सकता है । साथ ही यह भी स्पष्ट हो गया है कि माता जी किसी अन्य व्यक्ति द्वारा अपनी मूरत छू जाना पसन्द नहीं कर रहीं हैं । मन्दिर के पष्चिम एक भरटालिया टोला है । यह इन्दूपुर ग्राम सभा का एक टोला है । यहां आज भी राजा इन्दू के वंषज मौजूद हैं । उनके पूर्वज तो इन्दूपुर के राजा थे, परन्तु आज उनके वंषजों की आर्थिक स्थिति दयनीय है । राजा इन्दू के वंषजों को बुलाया गया । वे माता जी के सामने सुबह से षाम तक हाथ जोड़े विनती करते रहे । अन्ततः अपने भक्तों की पुकार ,अनुनय विनय तथा अपने भक्तों पर सदा ही दया की वृष्टि करने वाली मां कालिका भवानी का ह्रदय द्रवित हो गया और गनेष लोहार के हाथ से खून टपकना बन्द हो गया । क्षेत्र की जनता ने संतोष की सांस लिया । उपस्थित जनसमूह द्वारा देवी के जयकारों से व्योम गंज उठा । तब से इन्दुपुर की कालिका भवानी के यष में उत्तरोत्तर वृद्धि होती गई ! कुछ वर्षों बाद क्षेत्रीय जनता तथा कुछ संभ्रान्तों के सहयोग से पुराने मन्दिर के पूरब से सटे ही दूसरे भव्य मन्दिर का निर्माण करवाया गया । माता की मूर्ति/पिण्डी को नये मंदिर में स्थापित करना था। इस कार्य का सम्पादन सुविख्यात बाबा रामदास जी कर रहे थे । कहते हैं कि कुछ लालची प्रवृत्ति के लोगों मन्दिर की सम्पत्ति और चढ़ावे को लेकर मन में लालच आ गया । वहीं कुछ सम्भ्रान्त लोग इस मन्दिर के स्वामित्व को अपने वर्ग के लोगों को सौंपना चाह रहे थे । अन्दर अन्दर खिचड़ी पकने लगी ! परन्तु जिस समय पुराने मन्दिर से माता जी की मूर्ति/पिण्डी उठाकर नये मन्दिर में लाकर स्थापित करने की बात आई तो उस समय गनेष लोहार के साथ घटित घ्टना की याद आते ही अनहोनी की आषंका से किसी की भी हिम्मत मूर्ति /पिण्डी छूने की नहीं हुई । मूर्ति स्थापना का मुहूर्त 10 बजकर 15 मिनट पर निर्धारित था ,परन्तु किसी ने मूर्ति /पिण्डी उठाकर नये मन्दिर में ले जाने की बात तो दूर उसे छूने तक का साहस नहीं किया ! तुहूर्त बीता जा रहा था ! अन्त में थक हारकर राजा इन्दू भर के वंषजों को बुलाने को कहा गया । इस समय राजा इन्दू के वंषज रामकेवल, रामबृक्ष व वहीर उर्फ सरकास आदि घर पर मौजूद थे । परन्तु साजिष के तहत उनको नहीं बुलाया गया था । स्थानीय संभ्रान्तों का मंदिप में बढ़ते प्रभाव के कारण ये लोग उस दिन नहीं आये थे । तीनों भाई मन्दिर पर उपस्थित हुए । वहीर उर्फ सर्कस ने पहले कालिका भवानी का हाथ जोड़कर स्मरण किया और अनुनय विनय के प्ष्चात मूर्ति/पिण्डी को उठाकर बाबा रामदास के निर्देषानुसार मन्दिर की पांच बार परिक्रमा करके विधिवत वेद मन्त्रों के उच्चारण के मध्य मन्दिर के गर्भगृह में मूर्ति /पिण्डी स्थापित कर दिया । कालिका भवानी के जयकारों से गगन गूंज उठा और भक्तों में खुषी की लहर दौड़ गई । फिर भी स्थानीय संभ्रान्तों ने एक नागा बाबा को यहां का महन्थ बना दिया । नागा बाबा पर ‘‘मन ना रंगाये बाबा रंगाय लिए चोला-- चरितार्थ हुआ । नागा बाबा कुछ वर्षों बाद अपने असली रूप में प्रकट हुए और मन्दिर तथा मन्दिर परिसर की भूमि अपने नाम पर कराने के लिए तहसील के लेखपाल के पास पहुंच गये । इस मन्दिर के प्रति श्र’द्धावान लेखपाल ने इस षणयंत्र से ग्राम इन्दूपुर के सम्भ्रान्तों तथा प्रधान को अवगत कराया । क्षेत्रीय जनता तथा सम्भ्रान्त लागों के हस्तक्षेप से नागा बाबा अपने नापाक मकसद में सफल नहीं हुए । इस मन्दिर में जो चढ़ावा आता है वह राजा इन्दू भर के वंषज रामकेवल, रामबृक्ष तथा बहीर उर्फ सर्कस को मिलता है और जो चढावा बाबा के गद्दी पर चढ़ता है वह नागा बाबा लेते हैं । समय समय पर रामकेवल ,रामबृक्ष व बहीर उर्फ सर्कस इस मन्दिर के पुजारी का कार्य करते हैं और नागा बाबा इस गद्दी के महन्थ का कार्य करते हैं । यहां आज भी प्रत्येक सोमवार व षुक्रवार को श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है । रामनवमीं में नौ दिन तथा अन्तिम दिन विषाल मेला लगता है । लोग बतो हैं िकइस क्षेत्र के श्री प्रमोदसिंह विधायक का चुनाव लड़ रहे थे ,उन्होंने इन्दूपुर की कालिका भवानी के मन्दिर में मनौती माना कि अगर हम विधायक चुन लिए जाते हैं तो माताजी के मन्दिर का जीर्णोद्धार करायेंगे । इन्दूपुर की कालिका भवानी का श्री प्रमोदसिंह पर कृपा-दृष्टि हुई और वे चुनाव जीत गये । श्री प्रमोदसिंह विधायक चुन लिए जाने पर सपरिवार सर्वप्रथम माताजी के मन्दिर में आकर माताजी का दर्षन किए फिर लखनऊ जाकर षपथ ग्रहण किया। श्री प्रमोदसिंह 9 लाख 96 हजार की लागत से इस मन्दिर का जीर्णोद्धार कराये जो वहां पर लगे षिलालेख से स्पष्ट है । यह है राजभर षासक इन्दू के कुलदेवी इन्दूपुर की कालिका भवानी का इतिहास ।
भर जाति के नाम पर भारत का नामकरण
लेखक-रामचन्द्रराव ग्राम-खैराबाद,पोस्ट-परषुराम, पिपराइच जनपद गोरखपुर ,उ.प्र. किसी भी स्थान के नामकरण के पीछे कोई न कोई ठोस आधार अवष्य होता है जिसके आधार पर मनुष्य किसी भी स्थान, गांव, षहर. प्रदेष व देष का नामकरण करता आया है। धीरे धीरे नियत नाम जन मानस में व्यापक रूप से प्रचारित प्रसारित हो जाता है। कालान्तर में उन नामों में बोलचाल की भाषा या भाषा अषुद्धि के कारण धार्मिक सोच के अनुरूप सुधार भी होता रहा है।
1-जैसे मेरे बगल के गांव परषुरामपुर को ही लिया जाये। मेरे बचपन में इस गांव को पसरमापुर कहते थे। आज भी कुछ बुजुर्ग बातचीत में पसरमापुर कह ही देते हैं।परन्तु गत 30-35 वर्षो ंसे रामचरित मानस में चर्चित यमदग्नि के पुत्र परषुराम के नाम पर धार्मिक सोच व भाषा षुद्धि के फलस्वरूप पसरमापुर को परषुरामपुर कहा जाने लगा। पत्राचार में आते जाते अब सरकारी रिकार्ड में भी परषुरामपुर हो गया है।
2- इसी प्रकार राजा लाखन भर के द्वारा बसाया गया, लाखनपुरी से बने लखनऊ नगर को धार्मिक सोच के कारण रामायण के राम के भ्राता लक्ष्मण के द्वारा बसाया लिखा गया। जबकि, लक्षमण ने राम की सेवा के अतिरिक्त कभी षासन किया नहीं, फिर लक्षमण के द्वारा लखनऊ बसाने का कोई औचित्य ही नहीं हैं।
3-मुस्लिम षासक आजमखां द्वारा तमसा नदी के तट पर एक किला बनवाकर एक नगर बसाया गयां उस नगर का नाम आजमखां ने अपने नाम पर आजमगढ़ रखा। परन्तु पौराणिक सोच से ओत-प्रोत राष्ट्रीय स्वयं सेवक संघ द्वारा अपने पत्रिकाओं में आर्यमगढ़ लिखा जा रहा है। परन्तु अभी जन मानस में प्रचलन नहीं हो पाया है।
4-खलील के द्वारा बसाया गया खलीलाबाद को वर्तमान मुख्यमंत्री उ.प्र. सुश्री मायावती ने सन्त कबीर नगर एवं भदोही जो कभी भरदोही अर्थात भरों का गढ़ था, भरदोही से बने भदोही को सन्त रविदास नगर बना दिया ,जो आज प्रचलन में है।
5-इसी प्रकार लडा़कू भर जाति के नाम पर भरराइच, भर्राइच से बने बहराइच नगर को पौराणिक सोच के लोगों ने कहा कि ब्रह्माने यहां तपस्या किया और यहीं पर एक यज्ञ किया था अतः,उनके नाम पर इस नगर का नाम ब्रह्माइच से बहराइच पड़ा। परन्तु बहराइच की जनता ने इस कपोल कल्पना को नकार दिया। पूर्वाग्रहों से ग्रसित लोग बार बार भारत के गांव, नगर, व देष के नामकरण को धर्म से जोड़ने की कोषिष की है।
इस प्रकार प्रायः देखने व पढ़ने को मिलता है कि व्यक्ति विष्ेाष के नाम पर गांव, नगर का नामकरण हुआ है परन्तु,व्यक्ति विषेष के नाम पर किसी देष का नामकरण नहीं पाया जाता। भारत देष के नामकरण के मामले में धर्म के नाम पर वास्तविकता पर पर्दा डाल कर कपोल कल्पित कहानी के आधार पर भारत के नामकरण के विषय में भारतीय जनमानस को दिग्भ्रमित किया गया है। आर्यों के इस देष में आने के पहले ही भरत जनों के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ चुका था। आर्यों ने इस देष पर आक्रमण करके भीषण संग्राम के बाद अपनी कूटनीति से इस देष पर कब्जा करके आर्यावर्त में षामिल कर लिया। उस समय कुछ भरत जन दक्षिण व पूरब की तरफ पलायन कर गए।षेष भरत जन को दास ही नहीं बनाया बल्कि उनके साहित्यों को जला कर खाक कर दिया। षेष भरत जन को दास बनाकर पठन पाठन से भी वंचित कर दिया, ताकि वे भरत जन न षिक्षित बनेंगे, न संगठित होंगे और न तो संगठित होकर अपने राज्य के लिए पुनः लड़ाई लड़ेंगे।आर्यों ने सर्व प्रथम इस भू-भाग का भी आर्यावर्त नाम देना चाहा ,परन्तु यह नाम साहित्यों तक ही सीमित रहा। यहां के मूल निवासियों ने आर्यावर्त नाम स्वीकार नहीं किया और भारत ही कहते रहे। बाद में मजबूर होकर आर्यों ने आर्यावर्त के इस क्षेत्र को भारत खण्ड कहा। स्मरण रहे कि आर्यावर्त में पहले ईरान, ईराक, अरब, अफगानिस्तान, पाकिस्तान आदि षामिल थे, बाद में भारत भी षामिल हो गया। अन्त में पौराणिक महापुरुषों के नाम पर इस देष का नामकरण जोड़कर भारत के नामकरण के इतिहास का आर्यीकरण की साजिष की गई। परन्तु मतैक्य न होने के कारण स्वयं ही भारत के नामकरण पर विवाद पैदा कर लिया। एक तरफ व्यास रचित महाभारत के आदि पर्व में वर्णित दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष के नामकरण की बात कही गई ं जिसे भारतीय जन मानस ने अक्षरषः स्वीकार भी कर लिया हे। दूसरी तरफ व्यास ने भागवत पुराण में ऋग्वैदिक ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष के नामकरण को लिख कर राजा दुष्यंत के पुत्र भरत के नाम पर भारतवर्ष के नामकरण को तथ्यहीन बताकर खारिज कर दिया है। कृपया अवलोकन करें-
प्रियंबदो नाम सूतो मनोःं स्वायंभुवस्य ह।
तस्याग्नीधस्ततो नाभि ऋषभष्च सुतस्ततः।।
अवतीर्ण पुत्र षतं तस्यासी द्रहयपारगम्।
तेषां वै भरतो ज्येष्ठो नारायण परायणः।
विख्यातं वर्षमेतधन्नाम्ना भारतमुन्तप्रभ। ;भागवत पुराण
अर्थ-स्वयंभु के पुत्र मनु, मनु के पुत्र प्रियंबदा ;प्रियव्रत, प्रियंबदा के पुत्र आग्निध्र, आग्निध्र के नाभि, नाभि के और ऋषभ के सौ पुत्र हुए।ऋषभ, ज्येष्ठ पुत्र भरत , जो नारायण का भक्त था, उसी के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा।
अलग अलग साहित्यकारों ने मनगढ़न्त तथ्यों के आधार पर भारत के नामकरण के बिषय में लिखकर भारतीय जनमानस को दिग्भ्रमित करने के षणयंत्र का साहस क्यों किया? इसका एकमात्र जवाब है हमारी धर्मान्धता। उन्हें विष्वास था कि ये कूप मण्डूक लोग जब कर्म काण्ड में महाब्राह्मण को रजाई, गद्दा, चारपाई, आदि देते हैं। स्वयं अपने आखों के सामने देखते हैं कि सारा सामान महाब्राह्मण अपने घर ले जाते हैं। फिर भी इन्हें धर्म के नाम पर अटूट विष्वास है कि वह सारा सामान स्वर्ग में उनके स्वर्गीय पिता को मिल जाएगा। तो ऐसे आंख के अन्धे, नाम नयनसुख लोगों को धर्म के नाम पर कुछ भी मनवाया जा सकता है और पौराणिक सोच के कारण हमने माना भी।
नागा बाहुल्य क्षेत्र को नागालैण्ड, पंजाबी बाहुल्य क्षेत्र को पंजाब, मराठी बाहुल्य क्षेत्र को मराठा,आर्यों के बाहुल्य क्षेत्र को आर्यावर्त,बुन्देलों के क्षेत्र को बुन्देलखण्ड, बघेलों के क्षेत्र को बघेलखण्ड, भरतजनों के बाहुल्य क्षेत्र को भरत खण्ड, फिर भारत कहा गया। विष्व में कहीं भी किसी व्यक्ति विषेष के नाम पर देष या प्रदेष का नाम नहीं रखा गया है। परन्तु भारत के नामकरण के मामले में हमने धर्म के नाम पर सत्य व असत्य पर विचार किए वगैर मनगढ़न्त नामकरण को स्वीकार कर लिया है।
भरत जनों का इतिहास अमर है और अमर रहेगा,जब तक भारत देष रहेगा। सत्य पर कुछ समय के लिए पर्दा डाला जा सकता है,परन्तु समाप्त नहीं किया जा सकता। भारत को कभी आर्यावर्त, कभी हिन्दुस्तान तो कभी इण्डिया नाम देकर भरत जनों के गौरवषाली इतिहास को समाप्त करने का षणयंत्र किया गया। परन्तु भारत नाम मील का पत्थर साबित हुआ। भारतवर्ष नामकरण के बिषय में कुछ इतिहासकारों के विचारों का अवलोकन करें-
1-इस देष का नाम भारत हो जाने के पीछे दो कथाएं जुड़ी हैं। एक हैं राजा दुष्यन्त के मेधावी पुत्र भरत की और दूसरी है जैन ऋषभदेव के पुत्र भरत की जिनके सम्राट बनने पर प्रजा के आग्रह पर इस देष का नाम भारतवर्ष रखा गया। हम सबकी भी यही धारणाएं हैं। इन्हीं दो कथाओं का उल्लेख कर हम प्रष्न कर्ताओं की जिज्ञासा षान्त करते आए हैं। भारत देष का नाम भारत कैसे पड़ा, कभी भी हमने गम्भीर होकर षोध कार्य नही ंकिया। इन दो पौराणिक पात्रों ने हमें इतना बांध दिया कि हम पौराणिक पूर्वाग्रहों के षिकार हो गए। प्रदेषों देषों के नामकरण के सिद्धान्तों व नियमों पर हमने ध्यान नहीं दिया। व्यक्तियों के नाम पर गांव, नगर, विषिष्ठ स्थान आदि के नाम होते हैं,देष का नहीं। मुम्बा देवी के नाम पर मुम्बई, इला के नाम पर इलाहाबाद, जाबालि ऋषि के नाम पर जाबालिपुरम् ;जबलपुर, राजा मानिक के नाम पर मानिकपुर, राजा बन्दारस के नाम पर बनारस आदि। जाति समूहों के नाम पर, मुहल्लों, गांवों, व नगरों के नाम हो सकते हैं। जैसे षिवहरे जाति के नाम पर सिहोरा, नागजाति के नाम पर नागपुर इत्यादि। प्रदेष अथवा देष का नामकरण जाति ;जाति समूहों ,भाषा, भौगालिक संरचना, आदि के आधार पर होते हैं, कभी भी व्यक्ति के नाम पर नहीं। अर्थात देष का नाम व्यक्ति-वाचक नहीं समूह वाचक होता है। आप हमारे प्रदेष व देष के नामकरण के सम्बंध में इन्हीं सिद्धान्तों को आधार बना कर सोचिए। विष्व के देषों के नामकरण के सम्बंध में भी सोचिए कि उनका नामकरण व्यक्ति विषेष के नाम पर हुआ है अथवा जाति, भाषा, भौगोलिक संरचना आदि सिद्धान्तों के आधार पर। आइये हम विचार करंे कि हमारे देष का नाम भारत क्यों ? यदि पुराणकारों ने दुष्यंत पुत्र भरत और जैन ऋषभदेव के पुत्र भरत के नाम से भारत देष के नामकरण होने का उल्लेख कर भी दिया है तो इसका अर्थ्र यह नहीं है कि उन्होंने जो लिख दिया है सही लिखा है। सही तौ यह है कि भरतों ;भरत तृत्सुगण के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा है। भरत जाति ;भरत जाति समूह का उल्लेख ऋगवेद में है । इस भरत जाति के समूह के मुखिया राजा सुदास थे। ऋगवेद में वर्णित दास राज्ञ युद्ध से सभी विद्वान परिचित हैं। भरत जाति बहुत प्रतापी थी, और उस जाति के नाम पर हमारे देष का नाम
भारत पड़ा।; भारत देष का नामकरण और हमारे पूर्वाग्रह- बहुजन विकास पाक्षिक ,बी/105, पंजाबी बस्ती बलजीतनगर, नई दिल्ली, अंक 1 सितम्बर 2009 पृश्ठ 2,
2-विष्व विख्यात महापण्डित राहुल सांकृत्यायन ने भी इसी तथ्य की पुष्टि की है। भरत जाति के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ा। कृपया अवलोकन करें-
जीता राजभर जाति के थे। कौन सी राजभर जाति ? ईसा से पायः दो हजार वर्ष पूर्व,जब आर्य भारत में आए, तब हजारों वर्ष पूर्वजो जाति सभ्यता के उच्च षिखर पर पहुंच चुकी थी। जिसने सुख व स्वच्छतायुक्त हजारों भव्य प्रासादों वाले सुदृढ़ नगर बसाए थे । जिनके जहाज समुद्र में दूर दूर तक यात्रा करते थे,वही जाति। व्यसन निमग्न पाकर आर्यों ने उनके सैकड़ों नगरों को ध्वस्त किया, तो भी उनके नाम की छाप आज भारत देष के नाम में है, वही भरत जाति या राजभर जाति। ;पुस्तक-सतमी के बच्चे -षीर्षक -डीह बाबा, लेखक-महापण्डित राहुल सांकृत्यायन
3-महापण्डित राहुल सांकृत्यायन के उपरोक्त विचारों का समर्थन करते हुए इतिहासकार रामदयाल वर्मा ने अपना विचार व्यक्त किया है, कृपया अवलोकन करें- पुराविद् राहुल सांकृत्यायन ने अपनी पुस्तक सतमी के बच्चे में कहा है कि-भारत वर्ष का नाम भर जाति की देन है, षायद यह सत्य ही है, क्योंकि पुराणों का जन्म गुप्ता ;चन्द्रगुप्त लोगों के बाद ही हुआ है। जिसमें षकुन्तला सुत भरत का उल्लेख मिलता है। ;पुस्तक-ःबिखरा राजवंष, षीर्षक- भर राजवंष, लेखक-रामदयाल वर्मा
4-सरस्वती और यमुना के बीच इनकी ;भरतजन सघन आबादी थी। आपसी अनबन के कारण आर्यों में दो दल हो गए और जंग षुरू हो गई। ऋगवेद में इसे दासराज्ञ कहा गया है। इस युद्ध में प्राचीन आदिवासियों ने आर्यों के एक दल के साथ मिलकर युद्ध किया, अन्त में विजय भरत नाम की एक षाखा की हुई। आर्यों की भरत षाखा के नाम पर हमारे देष का नाम भारत और उसमें रहने वालों का नाम भारतीय पड़ा। ;पुस्तक-इतिहास मन्थन गीता पृष्ठ 9,10, लेखक-बलदेवप्रसादसिंह गोरखा ष्
5-हिन्दू धर्मानुयायी कहते है कि भारत देष का नाम आर्यों के प्राचीन सम्राट दुष्यन्त के पुत्र भरत के नाम पर पड़ा। वेदों में भारत अथवा भारतवर्ष का नाम नहीं मिलता। आर्यावर्त नाम अवष्य मिलता है। रामायण में भारत का नाम नहीं मिलता, यद्यपि राम के भाई भरत का नाम उल्लेख है।......अतः आर्य सम्राट भरत के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ने का मत सही नहीं जान पड़ता। अप्सरा नर्तकी सुन्दरी मेनका के नृत्य और रूप लावण्य से मुग्ध हो विष्वामित्र के सम्भोग से उत्पन्न षकुन्तला के साथ राजा दुष्यन्त द्वारा बलात्कार से उत्पन्न भरत के नाम पर इस देष का नाम भारत पड़ना अषोभनीय है। मेरे विचार से भारत नाम भर व आरख के सम्मिलित नाम से मिल कर बना है। भऱ आरख से भारख और फिर भारत पड़ा। एक समय था जब भर और आरख जातियां सम्पूर्ण देष पर राज्य करती थीं।
;पुस्तक-चरमराती सामाजिक व्यवस्था, षीर्षक-भारत का नामकरण, पृष्ठ 10, लेखक-बलवन्त राय एम.ए.,एल.एल.बी.,पी.सी.एस.,सेवा निवृत
6-ऋगवेद में वर्णित भरत जाति के नाम पर भारत के नामकरण पर एक और इतिहासकार के विचार का अवलोकन करें-अनेक प्रमाणों के आधार पर हम इस निष्कर्ष पर पहुंचते हैं कि भरत जाति इस देष की मूल निवासी थी। इस जाति को आर्यों से ही नहीं अनार्यों से भी युद्ध करना पड़ा । इस बहादुर जाति के प्रबल षासक सुदास को अकेले सभी 30 राजाओं से युद्ध करना पड़ा ,जिनके नाम हैं-ः
1-षिन्यु, 2-तुर्वस, 3-द्रुह्यु, 4-कवष, 5-पुरु, 6-अनु, 7-भेद, 8-षंबर, 9-वैकर्ण, 10-अन्य वैकर्ण, 11-यदु, 12-मत्स्य, 13-पवथ, 14-भालन, 15-अलोना, 16- विषानिन, 17-अज, 18-षिव, 19-षिग्रु, 20-यक्ष्यु, 21-यद्धमादी, 22-यादव, 23-देवक मान्यमना, 24-चापमना, 25-सुतुक, 26-उचथ, 27-श्रुत, 28-बुद्ध,29-मन्यु, 30-पृथु
उक्त सभी आर्य व अनार्य राजाओं को पराजित कर के विषाल साम्राज्य स्थापित कर अपने साम्राज्य का नाम उसने भारतवर्ष रखा।इसी भरत जाति को भर जाति भी कालान्तर में कहा गया, जिसे अनेक इतिहासकारों ने स्वीकार किया है।;पुस्तक-भर/राजभर साम्राज्य, षीर्षक भारत का नाम करण ,पृश्ठ 15.16 लेखक -एम.बी. राजभर
7-इस देष में ईसा के 3500 वर्ष पूर्व भरत जाति का साम्राज्य होना और भरत जाति बाहुल्य क्षेत्र के कारण इस देष का नाम भारत पड़ने की तरफ प्रसिद्ध इतिहासकार/साहित्यकार श्री गजानन माधव मुक्ति बोध की पुस्तक भारत का इतिहास व संस्कृति भी इषारा करती है-
आर्य जाति की दूसरी एक षाखा ईसा के 3500वर्ष पूर्व भारत के दरवाजे पर आ खड़ी हुई। उसके अष्वारोही वीरों ने पष्चिमोत्तर ;बलूचिस्तान, अफगानिस्तान आर्येतर सभ्यता के केन्द्र्रों को नष्ट किया। क्रमषः ये आर्य सप्त सिन्धु पंजाब के प्रदेष में अपने उपनिवेष स्थापित करने लगे।ये आर्य जातियां एक नहीं अनेक समूहों और प्रभावों में आईं। ;पुस्तक-भारत का इतिहास व संस्कृति षीर्षक ऋगवैदिक युग पृष्ठ 24 लेखक गजानन माधव मुक्तिबोध भारत के पष्चिमोत्तर प्रदेष से आते ही आर्यजनों को भिन्न धर्म ,भिन्न सामाजिक व्यवस्था ,भिन्न आचार विचार वाले ऐसी सभ्यता का सामना करना पड़ा जो कि पहले से ही उस प्रदेष में जमी बैठी थी। परिणामतः संघर्ष अनिवार्य हो उठा। वह सभ्यता अधिक विकासषील होने से उनकी प्रतिरोध षक्ति भी अधिक थीं जिसके फलस्वरूप अधिकाधिक बैमनस्य और घृणा का वातावरण बनता गया।;तदैव-षीर्षक युद्ध क्रम पृष्ठ 10
आर्यजन आपस में लड़ते थे। आर्य जाति कई जत्थे में कबीले में बंटी हुई थी। उसमें पांच प्रमुख थे- यदु, तुर्वसु, अनु, द्रह्यु, और पुरु। यह स्वाभाविक ही था कि आर्यजन भूमि के लिए आपस में लड़ते थे। उस काल में पुरु जाति का बहुत प्रभाव था। किन्तु साथ ही उस समय भरत जन नाम की जाति भी बहुत महत्वाकांक्षी थी। पुरु आर्य कहलाते थे। आर्यजन अपने को षुद्ध रक्त वाला समझते थे। उन्होंने ही दास राज्यों को नष्ट किया होगा। इस बात का प्रमाण नहीं मिलता है कि उन आर्य जातियों के अपने अलग अलग राज्य हुआ करते थे । उनके प्रथक नेता अवष्य थे। ये नेता कभी राजा कहलाते थे।
इसके विपरीत भरतों का अपना एक वास्तविक राजा था ं उसका राज्य यमुना के पूर्व में था। इस राज्य में पष्चिमोत्तर प्रदेष से भागे हुए आए हिमालय के आंचल में रहने वाली यक्ष, गन्धर्व, आदि जातियां भी थी।ं ये जातियां बहुत पहलेे से यहां रह रही थीं।
भरत जाति का राजा सुदास था। सुदास ने आर्येतर जातियों का भी एक संघ बना लिया था। उसका नेतृत्व मेड़ नामक एक आर्येतर पुरुष के पास था। सुदास भरत जाति का राजा था न कि नेता। इसके विपरीत पष्चिम की ओर के आर्य अभी नेता ही थे। पुरु जाति ने भी आर्य जाति का एक संघ ;पुरु, तुर्वस, अनु, द्रह्यु, और यदु बनाया था।........। आर्येतर जन दोनों तरफ से लड़ें राजा सुदास की विजय हुई। पुरुजनों का प्रधान्य समाप्त हुआ। सुदास अपनी इस सफलता से सार्व भौम नरेष बन गया। उसने जीते हुए राज्यों को अपने राज्य में नहीं मिलाया। वरन अपना आधिपत्य स्वीकार करने के लिए उनसे कर बसूल करता रहा। अधिपति की यह भावना आगे चलकर सम्राट की कल्पना में बदल गई। ;तदैव पृष्ठ 25.26
उपरोक्त युद्ध में ऋगवेद 7.2.33 के अनुसार भरत वंषी राजा सुदास ने पुरु राजा की अध्यक्षता में गठित 10 राजाओं के संघ को परास्त किया।
इस प्रकार भरत जाति अर्थात वर्तमान भर जाति के राजा सुदास ने अपने को सम्राट घोषित किया और भरत जनों के विषाल भू भाग का नाम भारतवर्ष रखा।
8- भर षब्द जिसका पर्यायवाची है; पुस्तक-निघन्टु तथा निरुक्ति ,पृश्154, लेखक डा. लक्षमण स्वरूप अर्थात भर षब्द संग्राम, युद्ध, वीरता का पूर्णतः पर्याय एवं परिचायक है। इसीलिए कहा गया है कि भर इति संग्राम नामः। व्याकरण दर्षन के आधार पर संस्कृत भाषा के ऋ धातु से भरड़े अर्थ विस्तार में धारण ,भरण पोषण, पालन आदि विविध अथों का विकास धि धातु से हुआ। धृ धातु का नाभिक विन्दु भर भरत है। देष का नाम भारत भी भर धातु से उत्पन्न हैं ;भारतवर्ष का नामकरण प्रथम भाग पृष्ठ 3, लेखक- कुंवर बहादुर कौषिक
9-डाॅ. वासुदेवषरण अग्रवाल के अनुसार तथा प्रचलित अनुश्रुति है कि भरतजन वीर योद्धा थे अथवा वारिमी के समय प्राचीन भरतजन की कोई टुकड़ी संघ के रूप में संगठित हो गई थी। भरतजन के नायक नरेष सुदास-षिवोदास ने दास-राज्ञ युद्ध में दस राजाओं को पराजित कर अपनी वीरता का परिचय दिया था।; उपरोक्त पृष्ठ 6। भारत देष के नामकरण में भरतों की वीरता का विषेष योगदान है। षिव जैसी षक्ति एवं गति भरत वीरों में विद्यमान थी। ;तदैव पृष्ठ 6 जन षब्द का संबंध निष्चित रूप से दिक्,काल, वंष से है। जन षब्द संस्कृत भाषा के जनने से व्युत्पन्न है। भरत भूमि से उत्पन्न जन भरतजन का बोधक है। यह भरत जन जिस भूमि पर उत्पन्न हुआ उसे भारत कहा गया। ;तदैव पृष्ठ 12।
10- भरत या भर जाति आर्यों के भारत आगमन के हजारों वर्ष पूर्व इस देष पर षासन कर चुकी है। सिन्धु घाटी की सभ्यता इसी जाति की सभ्यता थी। इसी भरत या भर जाति के नाम पर ही इस देष का नाम भारत रखा गयाा। ;बहुजन समाज की दषा एवं दिषा पृष्ठ 44, लेखक-फौजदार प्रसाद उर्फ बहुजन दास
तमाम इतिहासकारों ने इसे स्वीकार किया है कि यही भरत जाति कालान्तर में भर जाति के नाम से जानी जाने लगी।
हरिवंष पुराण अध्याय 33 पृष्ठ 53 को लक्ष्य बनाते हुए सर हेनरी एम इलियटने कहा है कि भरत वंष भर जाति से संबंधित है ।
इन तमाम साक्ष्यों से स्पष्ट है कि भारत का नामकरण पौराणिक भरत के नाम से नहीं बल्कि भरत जनों के नाम से भारतवर्ष हुआ है।
राजभर षासक मित्रसेन (भौवापार गोरखपुर)
(1252 ई. से 1278 ई.)
(लेखक-श्री रामचन्द्र राव ,ग्रा-खैराबाद ,पो-परषुरामपुर ,जिला-गोरखपुर उ.प्र.)
गोरखपुर के इतिहास में राजभर षासकों के विषय में भारतीय इतिहासकारों के उपेक्षित रवैये से राजभर षासकों का नाम ,षासनकाल व उनकी राजधानी आदि के विषय की जानकारी करना अॅंधेरे में सुई तलाषने के समान है। लगभग सभी इतिहासकारों ने अपनी पुस्तकों में राजभर षासकों और क्षत्रिय षासकों के बीच युद्ध होने तथा परास्त होकर षासन से बेदखल होने का उल्लेख किया है परन्तु विजेता क्षत्रिय षासक का नाम लिखने में जहाॅं उत्साह दिखाया है वहीं राजभर षासक का नाम लिखने में इतिहासकारों की लेखनी मौन हो गई है ,ऐसा क्यों ? निष्चितरूप से दावे के साथ कहा जा सकता है कि अपने इतिहास की दूकान चलाने वाले इतिहासकारों ने इतिहास लेखन में एक तरफ उपेक्षित रवैया अपनाकर एक वर्ग के गौरवषाली इतिहास को विस्मृत करने का प्रयत्न किया है तो दूसरी तरफ कपोल कल्पित कहानियों को गढ़कर महिमा मण्डित करने का कार्य किया है। बल्कि राजभर षासकों का नाम वर्तमान क्षत्रियों की वंषावली में जोड़ लिए जाने की संभावनाओं से इंकार नहीं किया जा सकता है। अंग्रेज इतिहासकारों तथा कुछ भारतीय इतिहासकारों के अभिलेखों के अवलोकन तथा जनश्रुतियों के आधार पर गोरखपुर जनपद में रामगढ़ ,कोलियां ,भौआपार ,षिवपुर गगहां ,सोहगौरा ,सरुआर ,धुरियापार में राजभर षासकों का षासन होना पाया गया है और षोध जारी है। षोध कार्य करके राजभर षासकों के विस्मृत इतिहास को स्मृति में लाने का प्रयास जारी है। यहाॅं मात्र राजभर षासक मित्रसेन (भौवापार) के विषय में अब तक प्राप्त विवरण का उल्लेख किया जा रहा है।
गोरखपुर जनपद के अंतर्गत भौवापार गाॅंव धार्मिक एवं ऐतिहासिक दृष्टि से बहुत ही महत्वपूर्ण स्थान है। यह स्थान गोरखपुर से दक्षिण गोरखपुर से वाराणसी राष्ट्रीय मार्ग परलगभग 15 किलोमीटर पर स्थित है। किम्बदन्ती है कि श्रीनेत्र क्षत्रियों के षासन के पूर्व भौवापार में राजभर षासक मित्रसेन का षासन था। इस क्ष्ेापत्र पर मुस्लिम षासकों का आक्रमण कभी कभी हुआ करता था ,जिन्हें राजभर सैनिक अपनी सैन्य कुषलता से रणभूमि छोड़कर भागने के लिए मजबूर कर देते थे। राजा मित्रसेन के राज्य पर श्रीनेत क्षत्रियों की हमेषा गिद्ध दृष्टि लगी रहती थी । समय समय पर राजा मित्रसेन के राज्य पर आक्रमण किया करते थे ,परन्तु सफलता नहीं मिलती थी। राजा मित्रसेन का भौवापार में एक सुदृढ़ दुर्ग था। राजा मित्रसेन ने भौवापार में एक विषाल षिव मन्दिर का निर्माण कराया था। राजा मित्रसेन षिव जी के परम भक्त थे। इस षिव मन्दिर में पूजा अर्चन के बाद ही अन्न व जल ग्रहण करते थे। षिव के षिव लिंग को कन्ध्ेा पर वहन करने के कारण ही नहीं बल्कि छोटे छोटे षिव लिंग को गले में माला की तरह पहनने के कारण भारषिव कहलाते थे। यद्यपि भौवापार में राजभर षासक का षासन होना कई विद्वान इतिहासकार पुरातत्ववेत्ता व षोधकत्र्ताओं ने स्वीकार किया है ,परन्तु अपने लेख में राजभर षासक का नाम उनके परिवार व उनका षासनकाल लिखने से परहेज किया गया है। राजभर षासक को पराजित करके भौवापार में श्रीनेत क्षत्रियों का षासन कायम करने वाले राजा विजयभानसिंह का नाम तो इतिहासकारों ने लिखा है परन्तु पराजित राजभर षासक का नाम व युद्ध के समय का उल्लेख न करके अपने ऐतिहासिक कृति को रहस्यमय और सन्देहास्पद बना दिया है। नागभारषिव राजभरों के मुख्य देवता देवों के देव महादेव रहे हैं। राजभर आज भी षिव को अपना सर्वस्व मानते हैं। एक जनश्रुति के अनुसार भौवापार के राजभर षासक के षासन काल में एक बार कुछ मजदूर मूॅंज(सरपत) की झाड़ी खोद कर कृषि कार्य के निमित्त खेत तैयार कर रहे थे। तभी एक मजदूर का फावड़ा एक पत्थर से टकरा गया। मजदूरों ने उस पत्थर के चारों तरफ से मिट्टी निकाला तो अन्दर का दृष्य देखकर आष्चर्य में पड़ गये। क्योंकि वह साधारण पत्थर नहीं बल्कि देवों के देव भगवान षिव जी का एक दुर्लभ षिवलिंग था। कहते हैं कि जिस स्थान पर फावड़े से चोट लगा था उस स्थान से दूध की धारा बह रही थी। यह अलौकिक दृष्य देखकर श्रृद्धालु कौतूहलवष षिव जी का दर्षन करने उमड़ पड़े। श्रृद्धालुओं का तांता लग गया। इसकी सूचना राजा को दी गई। राजा मित्रसेन ने अपने आराध्य देव के लिंग को पाकर धन्य धन्य हो गये। पहले तो राजा ने उस दुर्लभ षिव लिंग को उचित स्थान पर ले जाकर स्थापित करना चाहा परन्तु षिव जी को जो स्थान पसंद था वहाॅं से उन्हें कौन हटा सकता है। षिव लिंग को हटाकर दूसरे स्थान पर स्थापित करने की राजा की मंषा पूरी न हो सकी। राजा ने मजदूरों को उचित पारिश्रमिक दिया और उसी स्थान पर भगवान षिव का गगनचुम्बी विषाल मन्दिर का निर्माण करवाया। भगवान भूतनाथ के अत्यन्त प्राचीन उस षिव लिंग को उस विषाल मन्दिर के गर्भ गृह में स्थान दिया गया। राजा ने मन्दिर के बगल में जलाषय का निर्माण कराकर उसके चारों तरफ फलदार बृक्षों को लगवाया। मन्दिर की देखरेख व पूजा अर्चन के लिए पुजारी नियुक्त किए गए। मन्दिर के चारों तरफ की जमीन मन्दिर के नाम कर दी गई।
किम्बदन्ती है कि चॅंूकि षिव लिंग मॅंूज(सरपत) की झाड़ी में मिला था इसलिए उन्हें मून्जेष्वरनाथ कहा जाने लगा। वर्तमान में यह मन्दिर मॅंूजेष्वरनाथ मन्दिर के नाम से विख्यात है। यहाॅं प्रतिवर्ष षिव रात्रि और दषहरा को बहुत बड़ा मेला लगता है। इस मेले को राजा मित्रसेन ने अपने षासन काल में विस्तृत रूप दिया था। दूसरी किम्बदन्ती है कि इस मन्दिर का निर्माण सत्तासी राज नरेष मॅंूज के द्वारा कराया गया था। इसलिए इस मन्दिर का नाम मून्जेष्वरनाथ पड़ा। चॅूंकि सत्तासी राज के संस्थापक भगवानसिंह के वषावली में राजा मून्ज का नाम नहीं है अतः यह दूसरी किम्बदन्ती कपोल कल्पित एवं सत्य से परे लगती है।वास्तव में उस मन्दिर का निर्माण राजभर षासक ने ही कराया था। इस मन्दिर में सर्वप्रथम राजभर षासक के परिवार के लोग दर्षन व पूजा अर्चन करते थे। उसके बाद ही अन्य लोग दर्षन दर्षन करते थे। इसी मन्दिर में षिव जी के दर्षन को लेकर उनवल नरेष विजयभानसिंह और राजभर षासक मित्रसेन के मध्य युद्ध हुआ। युद्ध में राजभर षासक मित्रसेन को पराजित करके विजयभानसिंह ने भौवापार में श्रीनेतों का षासन कायम कराया।
उक्त घटना को इतिहासकार डॅा. दानपालसिंह ने अपनी पुस्तक में राजभर षासक का नाम व युद्ध के समय का उल्लेख किये वगैर इस प्रकार से उल्लेख किया है-ः
भौवापार राज्य पर विजय-ः भौवापार व उसके आसपास का इलाका राजभर राजा के अधीन था। श्रीनेत भौवापार पर अधिकार करना वाहते थे।किन्तु युद्ध का कोई उचित कारण नहीं मिलता था। संयोग से एक ऐसी घटना घट गई जिससे आक्रमण करने का उचित बहाना मिल गया। उनवल राजा विजयभानसिंह के द्वितीय पुत्र होरिलसिंह का जन्म अभुक्त मूल नक्षत्र में हुआ। हिन्दू धर्मषास्त्र के अनुसार इस नक्षत्र में जन्मे षिषु की रुलाई सुनना पिता के लिए अनिष्टकर माना जाता है। अतः दनवल नरेष ने रानी तथा पुत्र के रहने की व्यवस्था सतासी राज के करनाई में कर दिया।
षिव रात्रि का पर्व था। उनवल नरेष की रानी भी षिवरात्रि का व्रत थी। वे पालकी पर सवार होकर कुछ अंग-रक्षकों के साथ भगवान मून्जेष्वरनाथ के दर्षन के लिए भौवापार गईं। किन्तु ,पालकी जब मन्दिर के सामने पहुंची और रानी पालकी से उतरकर दर्षन के लिए चलीं तो भौवापार के राजा राजभर के सिपाहियों ने उन्हें अन्दर जाने से रोक दिया और कहा कि जब तक हमारी रानियां पूजा नहीं कर लेतीं तब तक कोई दूसरा मन्दिर के अन्दर नहीं जा रकता है। रानी ने इसे अपना घोर अपमान समझाा। वे तुरन्त बिना दर्षन किए कनराई वापिस लौट गईं और अपने पति उनवल नरेष के पास संदेषा भेजा कि या तो आप आकर हमें मूंॅंजेष्वरनाथ का दर्षन कराइये या कहिए तो मैं अपना व्रत ही भंग कर दॅंू।
श्रीनेत पहले से ही भौवापार पर कब्जा करने के ताक में थे। इस घटना ने आग में घी का काम किया। उनवल नरेष ने भौवापार पर आक्रमण कर दिया। सतासी राज की सेना भी उनवल नरेष की मदद में आ गई। दोनों राज्यों की सम्मिलित सेना के सामने राजभरों की सेना ठहर न सकी। राजभर बड़ी वीरता से लड़े ,किन्तु पराजित हुए। अधिकांष राजभर मारे गये। जो थोड़े से बचे वे लुक छिप कर सुदूर स्थानों पर चले गए।
इस प्रकार भौवापार से राजभर राज्य की समाप्ति हुई और उस पर श्रीनेतों का आधिपत्य कायम हो गया। किन्तु उस समय श्रीनेतों ने भौवापार को अपने किसी राज्य में नहीं मिलाया तथा उसे स्वतंत्र राज्य रखा और ग्रह षान्ति तक के लिए होरिलसिंह को उसका राजा बनाया गया। कुछ समय बाद सतासी नरेष विश्रामसिंह ने निपुत्र होने के कारण होरिलसिंह को गोद ले लिया। तब से भौवापार ‘‘सतासी राज’’ का अंग बन गया। होरिलसिंह उर्फ मंगलसिंह का षासनकाल 1296 ईस्वी से 1346 ईस्वी था।
(संदर्भ पुस्तक-गोरखपुर परिक्ष्ेात्र का इतिहास (1200 ई. से 1857 ई.) ,खण्ड प्रथम, षीर्षक-भौवा राज्य पर विजय पृष्ठ 32-33 ,लेखक- डॅा. दानपालसिंह)
शक्ति-स्वरूपा महारानी वल्लरी देवी
(प्रस्तुति-श्री रामचंद्र राव ,ग्राम-खैराबाद ,पो-परषुरामपुर (पिपराइच) जिला-गोरखपुर उ.प्र.)
11 वीं सदी के नायक वीर शिरोंमणि सम्राट महाराजा सुहेलदेव की राजमहिषी का नाम वल्लरी देवी था। महारानी वल्लरी देवी के जीवन वृतान्त के विषय में इतिहासविदों ने अपनी लेखनी मौन रखी है। लेखक श्री यदुनाथप्रसाद श्रीवास्तव एडवोकेट की पुस्तक ‘‘भाले सुल्तान’’ ही एकमात्र ऐसा अभिलेख प्राप्त हुआ है जो उनके जीवन परिचय पर कम ,उनके अदम्य साहस और शौर्य पर ज्यादा प्रकाश डालती है। पुस्तक ‘‘भाले सुल्तान’’ का सारांष आपके सामने प्रस्तुत है।
11 वीं सदी में जब महमूद गजनवी एक विशाल सेना के साथ भारत पर आक्रमण किया तो उस समय भारत के तमाम राजा आपसी वैमनष्य के कारण आपस में लड़ते भिड़ते कमजोर हो चुके थे। अतः महमूद गजनवी के आक्रमण से कुछ राजा हारे और हार कर अपने राज्य से बेदखल हुए तो वहीं कुछ राजा सत्ता की लालच में अधीनता स्वीकार किया या मुस्लिम धर्म स्वीकार करके अपनी जान बचाई। उसी समय अवध क्ष्ेात्र में एक क्षत्रिय राजा का छोटा सा राज्य था। महमूद गजनवी ने उनके राज्य पर आक्रमण किया। क्षत्रिय राजा बड़ी बहादुरी के साथ अपनी छोटी सेना सहित मुकाबला किया, परन्तु महमूद गजनवी की विषाल सेना के सामने राजा की सेना टिक न सकी और राजा को भागकर जंगल की षरण लेनी पड़ी। जब महमूद गजनवी ने सोमनाथ मन्दिर पर आक्रमण की ओर अपना कदम बढ़ाया तो देवों के देव महादेव मन्दिर की रक्षार्थ भारत भर के हिन्दू राजाओं को युद्ध में भाग लेने हेतु आमंत्रित किया गया। यह क्षत्रिय राजा अपनी हार का बदला महमूद गजनवी से चुकाना चाहते थे। अतः उन्होंने अपनी छोटी सी सेना साथ को लेकर सोमनाथ की तरफ प्रस्थान किये।सोमनाथ प्रस्थान के पहले राजा ने अपनी एक मात्र 5 वर्षीय राजकुमारी बल्लरी को अपने धार्मिक गुरु अयेाध्या के ऋषि महेष्वरानन्द को सौंप गये। जाते समय ऋषि महेष्वरानन्द को कह गये ,पता नहीं हम युद्ध से आये या न आये, यह बच्ची अब आप की बच्ची है। इसकी देखभाल और षादी का दायित्व मैं आप पर छोड़ता हूं। वह बच्ची अयेाध्या में ऋषि महेष्वरानन्द के आश्रम में रहने लगी। वह क्षत्रिय राजा सोमनाथ मन्दिर की रक्षा में लड़ते हुए मारे गये। समय बीतता गया। धीरे-धीरे राजकुमारी की उम्र 16 वर्ष की हो गयी।महर्षि महेश्वरानन्द अपने आश्रम में ही राजकुमारी को बौद्धिक ,धार्मिक षिक्षा के साथ-साथ अस्त्र-षस्त्र चलाने की भी शिक्षा दिये।ऋषि महेष्वरानन्द के कुशल मार्गदर्शन में राजकुमारी तीर ,धनुष चलाने ,भाला फेंकने ,घुड़सवारी तथा अन्य अस्त्र-शस्त्र चलाने में प्रवीण हो गयी। महेश्वरानन्द जी श्रावस्ती सम्राट सुहेलदेव के भी धार्मिक गुरु थे।
महमूद गजनवी के मरने के बाद उसका भंाजा सैयद सालार मसौद गाजी ने भारत पर आक्रमण किया। वह भारत के हिन्दू राजाओं पर आक्रमण करके लूटता पाटता जबरन उन्हें मुस्लिम बनाते हुए अयेाध्या में आकर अपना डेरा डाला। वहीं से उसके सैनिक अयेाध्या के चारों तरफ घूम घूम कर लूट पाट तथा मुस्लिम धर्म का प्रचार करने लगे। सैयद सालार मसौद गाजी के अयेाध्या आने का समाचार सुनकर अयेाध्या का राजा, जो कायस्थ था अयेाध्या छोड़कर भाग खड़ा हुआ। सैयद सालार मसौद का फरमान जारी हुआ-आज सूर्या डूबने के पहले कमसे कम एक हजार काफिरों (हिन्दुओं) की चोटियां हमारे परचम में लग जायें और इन काफिरों के सिर धड़ से अलग कर दिये जायें। काबुल में ये चोटियां इस बात की सबूत देंगी कि उसने कितने बे-ईमान बेदीन काफिरों के खून से अपनी तलवार को नहलाया और तब वह सही मायने में गाजी कहलायेगा। सारे अयेाध्या शहर में कत्ले आम से हाहाकार मच गया।
अयेाध्या के दक्षिण दिशा में कुशपुर (वर्तमान सुल्तानपुर) में एक भर राजा की राजधानी थी। इतिहासविदों ने राजा के नाम का जिक्र नहीं किया है। (परन्तु किंवदन्तियों में राजा का नाम शिवेन्द्र बताया जाता है।) पुस्तक भाले सुल्तान में राजकुमार का नाम सिंहवन का उल्लेख किया गया है। कुशपुर महिपति के अन्तर्गत गजनेर गढ़ी ,इष गढ़ी तथा तलहटी गढ़ी भी था। इन गढ़ियों के राजा ,भर राजा कुशपुर के अधीन थे। इष गढ़ी के राजा रामशरन थे। रामशरन बहुत ही विलासी शासक थे।उनके पास 21 रानियां थीं। गजनेर गढ़ी तथा तलहटी गढ़ी के राजाओं का नाम अज्ञात है।परन्तु इन तीनों गढ़ियों के शासक भर थे। इसका उल्लेख मिलता है। गजनेर गढ़ी के राजकुमार कन्तुर का नाम भाले सुल्तान में उल्लिखित है। इस गढ़ी तीनों तरफ से गोमती से घिरा हुआ था। इस गढ़ी में चारों तरफ ऊंचे ऊंचे टीले थे जो वर्तमान में भी मौजूद हैं। इन्हीं टीलों पर पुराना परकोटा बना हुआ था।यह गढ़ी भरों की गढ़ी थी। एक दिन गौरवर्ण लम्बी सफेद दाढ़ी,लम्बा जटाजूट तथा रक्त-वर्ण आंखों वाला एक सन्यासी आया। सन्यासी केवल जल ग्रहण करता था।पिछले तीन दिनों से जल के अतिरिक्त अन्न गृहण नहीं किया था। धर्म में आस्था रखने वाले भर श्रद्धालु हमेशा सन्यासी को घेरे रहते थे। सन्यासी दान दक्षिणा से हमेषा दूर रहते थे। उनके तपस्वी जीवन की इस गढ़ में घर घर चर्चा थी। इस तपस्वी की चर्चा राजमहल के अन्दर तक पहुंची। राजा की रानियां भी इस तपस्वी से मिलने के लिए आतुर हो उठीं क्योंकि यह जन जन में चर्चा थी कि सन्यासी जो भी कह देते हैं वह अवश्य पूरा हो जाता है। उनका बचन खाली नहीं जाता। एक अपरिचित औरत ने महारानी से सम्पर्क किया और बताया कि मेरा पति पहले मुझे बहुत तंग करता था और हमारी सौत को ज्यादा मानता था परन्तु सन्यासी के आशीर्वाद से अब मेरा पति मुझे बहुत मानता है,सौत से मुक्ति मिल गई ,फिर नारी स्वभाव जागृत हो उठा। महारानी के साथ मिलकर अन्य रानियां भी सन्यासी से मिलकर चरण रज लेकर आशीर्वाद पाने की जिद करने लगीं। राजसी घोड़ा आया। राजा घोड़े पर सवार हुए ,उधर इक्कीस रानियों की भी डोली सज गईं।सभी महात्मा के पास पहुंचे।छल ,कपट ,लोभ ,ईष्र्या-भाव से रहित महात्मा के दर्षन करके सभी धन्य हो गए।घन्टों बैठने के बाद महात्मा ने अपनी आंखें खोलीं और मुखरित हुए-आपकी रानियां भाग्यशाली हैं ,पुण्यशीला भी।एक रानी की तरफ इशारा करते हुए बोले कि ये विषेष भाग्यशाली है। पुनः अपनी दृष्टि राजा रामसरन पर डालते हुये बोला-इस समय तुम्हारी बैसवाड़े के राजपूत राय विराड़देव से बहुत बनती है। परन्तु याद रखो वह तुमसे धोखा करेगा। वह घोड़ा बेचने के बहाने तुम्हारे गढ़ी की गुप्त सूचनायें गुप्तचरों से प्राप्त कर रहा है। राजा रामसरन महात्मा के चरणों में गिर पड़े। महात्मा जी मैं बहुत ही भयभीत हूं ,मेरी रक्षा करें।
मैं राजपूतों से झगड़े में नहीं उलझना चाहता।मुझे बैसवाड़े के राजपूतों पर विजय का कोई उपाय बताइयें।
महात्मा रानियों और राजभरों को मनचाहा वरदान देकर राजा रामसरन से अकेले में बात करने लगे। महात्मा ने बताया कि तुर्क सेना बैसवाड़े पर आक्रमण करके तहस नहस कर देगी। यह सुनकर राजा रामसरन बहुत घबरा गये। उनकी हार्दिक इच्छा थी कि वे स्वयं बैसवाड़े को जीते और उसे अपने राज्य में षामिल करलें। परन्तु बैसवाड़े में तुर्की सेना के उपस्थिति मात्र से उनकी रूह कांप उठी। उन्होंने महात्मा को साष्टांग प्रणाम करते हुये कहा कि महात्मा जी ऐसा कोई विकल्प निकालें कि राय बिराड़देव पर हमें ही विजय मिले तुर्कों की आवष्यकता न पड़े।
महात्मा ने बताया कि मैं मन्त्रों द्वारा सोधी हुई एक औषधि आपके महल में अपने शिष्य से भिजवा दूंगा।यह औषधि अपनी गढ़ी के सभी कुंओं में सन्ध्या समय डलवा दिया जाय।दूसरे दिन सूर्योदय के पहले सभी राजभर कुंए के पानी का जलपान करें परन्तु औरतों को पानी पीना वर्जित है। इस जल के प्रभाव से बिराड़देव क्या कोई भी आप लोगों का कुछ बिगाड़ नहीं सकता और आपकी सारी मनोकामना पूरी हो जायेगी। कुछ समयोपरान्त महात्मा अकेले रह गए। उसी समय उनका षिष्य एक औषधि लाकर राजा को प्रदान किया। संध्या के समय गढ़ी के समस्त कुओं में औषधि डाल दी गई। खुषी में सभी ने नशे का सेवन किया और सुबह होने का इन्तजार होने लगा। सुबह जल पीने वालों की भीड़ सी लग गई। कुंए से शुद्ध जल निकाला गया। राजा रामषरन एवं उनके परिवार के लोग जल पीने ही जा रहे थे कि उसी समय एक गुप्तचर आया। आते ही राजा एवं सभी लोगों को जल पीने से मना किया। गुप्तचर ने बताया कि वह महात्मा नहीं बल्कि तुर्कों का गुप्तचर था। सैयद सालार मसौद गाजी के आदेष से यहां आया था। कुंए में औषधि नहीं अपितु जहर डलवाया गया है। जो भी जल गृहण करेगा मृत्यु को वरण करेगा। राजा ने तुरन्त कुंए के जल को एक कुत्ते को पिलवाया। पानी पीते ही कुत्ता मर गया। राजवैद्य ने भी कुंए के जल की जांच की ,जांच में जल में जहर पाया गया। सारी गढ़ी तुर्कों के भय से आक्रांत हो उठी। उसी समय एक द्वारपाल आकर बताया कि रात में द्वारपालों की हत्या कर दी गई और रात में ही छद्मवेशी महात्मा गढ़ी छोड़कर अन्तध्र्यान हो गया है। उसी समय एक घुड़सवार ने आकर बताया कि आज की रात तलहटी गढ़ी पर तुर्कों ने आक्रमण करके कब्जा कर लिया है और हजारों भर सैनिक मारे गए हैं। सभी भर सैनिक अपने अपने घोड़ों पर सवार होकर गढ़ी के चारों तरफ दौड़ पड़े। इषगढ़ी और तलहटी गढ़ी को मिलाने वाला लगभग दो सौ साल पुराना नदी पर बना पुल आग के हवाले कर दिया गया ताकि इषगढ़ी पर आक्रमण का रास्ता बन्द हो जाय। तुर्क सेनापति मुहम्मद बकर तलहटी में खूब लूटपाट मचाया। वह गजनी में डकैती करता था। जब उसे मालुम हुआ कि सैयद सालार की सेना लूट-पाट तथा धर्म प्रचार के लिए भारत जा रही है तो वह भी सेना में भरती हो गया। तलहटी गढ़ी में लूटपाट के बाद गढ़ी के दक्षिण तीनों टीलों के मध्य एक सुरक्षित स्थान पर अपना खेमा डाला। एक रात राय बिराड़देव से उनकी मुठभेड़ हो गई। मुठभेड़ में मुहम्मद बकर और मौला हज्जाम मारे गए।
राजभर शासक राम का गोरखपुर में शासन (7 वीं सदी ई. पू.)
( लेखक-ः श्री रामचन्द्र राव ग्राम-खैराबाद ,पोस्ट-परषुरामपुर जिला-गोरखपुर उ.प्र. 273152)
गोरखपुर जनपद को हिमालय की तलहटी में बसने के कारण तराई कहा गया है। गोरखपुर का वर्तमान विस्तार 26.5 से 27.29 तक उत्तरी अक्षंाश तथा 83.4 से 84.26 अक्षांश पूर्वी देशान्तर तक है। वर्तमान समय में गोरखपुर जनपद के उत्तर में जनपद महाराजगंज ,दक्षिण में सरयू नदी (घाघरा) ,पश्चिम में खलीलाबाद तथा पूरब में जनपद देवरिया व कुशीनगर जनपद स्थित हैं। परन्तु सन् 1857 के पहले उत्तर में नेपाल, दक्षिण में आजमगढ़,पश्चिम में गोण्डा तथा पूरब में बिहार प्रान्त पड़ता था। प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय के अनुसार वास्तव में गोरखपुर का प्राचीन नाम रामग्राम था। बौद्ध साहित्य महापरिनिव्वाणसुत्त के अनुसार रामग्राम रोहिणी नदी के पूरब में नागवंशीय कोलिय गणतंत्र की राजधानी थी। राजधानी होने के कारण गढ़ कहा जाना स्वाभाविक ही था। नागवंशीय काशी नरेश राम की राजधानी होने के कारण इसका नाम रामगढ़ पड़ा। मध्यकाल में इस गढ़ का पतन हुआ बताया जाता है। आज मात्र एक गाँव के रूप में रामगढ़ ताल के किनारे रामग्राम (रामपुर) स्थित है। बगल में स्थित विषाल रामगढ़ ताल आज भी देखा जा सकता है।
आधुनिक गोरखपुर प्राचीन रामग्राम/रामगढ़ के स्थान पर बसा हुआ है। रामगढ़ ताल इस बात का द्योतक है। ध्यान देने की बात है कि नाम रामगढ़ है रामताल नहीं। अतः स्पष्ट है कि इसके किनारे किसी समय एक गढ़ (राजधानी वाला षहर) था। (पुस्तक-गोरखपुर जनपद और उनकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृ. 69-70 ,षीर्षक ,रामग्राम की स्थिति लेखक-राजबली पाण्डेय)
गोरखपुर नाम पड़ने का कारण-ः रामग्राम का नाम बदलकर गोरखपुर नाम पड़ने का एक मात्र कारण प्रसिद्ध षैव-मतावलम्बी कनफटा योगी गोरखनाथ जी का यहाँ पर समाधि लेना है। जिस स्थान पर उन्होंने समाधि ली थी ,उसके अगल बगल के क्षेत्र को गोरखनाथ कहा जाने लगा और कालान्तर में गोरखनाथ के नाम पर गोरखपुर नाम पड़ गया। गोरखपुर के विस्तार के बाद पूरा ष्षहर ही गोरखपुर कहा जाने लगा। जिसके अन्दर रामग्राम/रामगढ़ भी आता है। गोरखपुर मुख्य ष्षहर के पूरब दिषा में एक रामगढ़ ताल है। यह ताल अत्यंत प्राचीन है।इसका पाष्र्व प्राकृतिक छटाओं से परिपूर्ण है। यह ताल गोरखपुर से देवरिया मार्ग पर कूड़ाघाट के दक्षिण लगभग दस वर्ग किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। आज इस ताल में कमल के फूल ,जल-कुम्भी तथा मछलियाँ बहुत मात्रा में पायी जाती हैं। इस ताल को उत्तरप्रदेष के पूर्व मुख्यमंत्री स्व. वीरबहादुरसिंह विकसित करके बौद्ध तीर्थ के रूप में प्रतिष्ठित करना चाहते थे। परन्तु बीच में ही उनका स्वर्गवास हो गया और यह परियोजना अधूरी रह गयी। वर्तमान मुख्य मंत्री सुश्री मायावती जी इस परियोजना को पूरा करने के प्रति प्रयत्नषील हैं और इस पर कार्य जारी भी है।
रामगढ़ से बने रामगढ़ताल का इतिहास-ः रामगढ़ नाम ही इस बात का द्योतक है कि यहाँ पर कभी किसी राम नामक राजा का दुर्ग था। राजा राम की राजधानी होने के कारण इसका नाम रामगढ़ पड़ा। काषी (बनारस) नरेष राम स्वयं एक प्रतापी राजा थे। वे धनधान्य से परिपूर्ण थे। कुछ कारण वष यहाँ आकर बस गये। जिसका वर्णन आगे किया जायेगा। काषी नरेष राम ने अपनी पूर्व राजधानी काषी जिसके राजा उनके बड़े पुत्र थे के सहयोग से रामगढ़ के चारों तरफ एक विस्तृत भू-भाग पर अपना आधिपत्य जमाया तथा अपने आप को वहाँ का राजा घोषित किया। इस रामगढ़ में एक से एक गगन चुम्बी इमारतों की भरमार थी। राजा राम का दुर्ग चारों तरफ से चहारदीवारियों से घिरा हुआ था। किले की देखरेख हेतु चारों तरफ से सैनिक तैयार रहते थे। रामगढ़ रोहीन एवं राप्ती नदी के तट पर होने के कारण व्यापारिक केन्द्र भी था। समय गुजरता गया कि एक दिन रात्रि में पूरा ष्षहर धरा में विलीन हो गया। सायंकाल जहाँ गगन चुम्बी इमारतें दिखाई दे रही थीं सुबह वहाँ ताल दिखाई देने लगा। रामगढ़ के ताल होने के सम्बंध में दो किम्वदन्तियाँ प्रचलित हैं-ः
(1) गोरखपुर नगर के दक्षिण पूर्व दिषा में यह ताल स्थित है। जनता में यह जन-श्रुति प्रचलित है कि प्राचीन काल में इस स्थान पर विषाल जनाकीर्ण नगर था। जो किसी ऋषि के श्राप से धँस गया और उसमें पानी भर जाने के कारण ताल बन गया। (पुस्तक-ःगोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास ,षीर्षक-रामगढ़ताल पृष्ठ 12 ,लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय)
(2) दूसरी किम्बदन्ती है कि रामगढ़ में बहुत ज्यादा अत्याचार बढ़ गया था। जिसकी लाठी उसकी भैंस चरितार्थ था। नगर में अत्याचार बढ़ता गया। अन्ततः एक दिन ऊपर वाले की बक्र दृष्टि पड़ी और पूरा नगर धरा में प्रवेष कर गया और नगर के स्थान पर ताल बन गया। किम्बदन्ती है कि एक दिन सायंकाल एक बिल्ली रामगढ़ राजधानी से अपने बच्चों को बारी बारी से रामगढ़ ष्षहर से बाहर ले जा रही थी। कुछ बुजुर्गों ने यह देखकर अनहोनी होने की आषंका व्यक्त की। परन्तु किसी को इतनी बड़ी घटना होने की संभावना नहीं थी। उसी रात पूरा रामगढ़ ष्षहर पृथ्वी के आगोष में समा गया। नगर के स्थान पर विषाल ताल बन गया ,जो रामगढ़ से बदलकर रामगढ़ ताल कहा जाने लगा।
मुझे पहली किम्बदन्ती पूर्वाग्रहों से ग्रसित कपोल कल्पित लगती ,तथा दूसरी किम्बदन्ती विष्वसनीय प्रतीत होती है। क्योंकि वास्तव में पृथ्वी के अन्दर जब कोई हलचल होती है तो सर्वप्रथम जानवरों एवं पक्षियों को इसकी जानकारी हो जाती है। सम्भव है कि भूकम्प की हल्की तीव्रता से भूकम्प आने की जानकारी बिल्ली को हो गई हो और बच्चों सहित ष्षहर से बाहर चली गयी हो। रात्रि में ष्षहर धराषायी ही नहीं बल्कि धरा में प्रवेष कर गया हो। आज भी भूकम्प से हुए विनाष लीला का जापान उदाहरण है।
काषी नरेष राम का रामगढ़ (गोरखपुर) पर षासन कब और कैसे ?-ः इस सम्बंध में प्रसिद्ध इतिहासकार श्री दिवाकरप्रसाद तिवारी ने अपनी पुस्तक ‘‘गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास पृष्ठ 80 व 81 ष्षीर्षक ‘‘रामग्राम के कोलिय’’ ,तथा प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय की पुस्तक ‘‘गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास’’ पृष्ठ 60 से 67 षीर्षक ‘‘कपिलवस्तु के षाक्य’’ तथा बौद्ध ग्रन्थ दिघनिकाय में एक रोचक कहानी का वर्णन है कृप्या अवलोकन करें।
काषी में नागवंषीय षासक राम का षासन था। राम को कुष्ट रोग हो गया। राजा राजकुल की स्त्रियों तथा नाच-गाना करने वाली सुन्दर नर्तकियों से तिरस्कृत होने पर अपने जीवन से उदासीन होकर खिन्नता में अपने बड़े पुत्र को षासन सौंपकर हिमालय की तरफ चले आये। जंगल में एक बड़े पेड़ के कोदड़ में कुटी बनाकर रहते हुए फल-फूल से अपना जीवन निर्वहन करने लगे। जड़ी बूटी के सेवन से कुछ समयोपरान्त उनका कुष्ट रोग ठीक हो गया। बौद्ध ग्रन्थ दिघनिकाय के अनुसार षाक्य लोग ओक्काक (इक्ष्वाकु) को अपना पूर्वज मानते हैं। राजा ओक्काक (इक्ष्वाकु) की पाँच रानियाँ थीं। बड़ी रानी के चार पुत्र ओक्कामुख ,करकण्ड ,हन्त्थिनिक ,और सिनीपुर तथा पाँच कन्यायें प्रिया ,सुप्पिया ,आनन्दा ,विजिता और विजितसेना थीं। इन बच्चों को जन्म देने के बाद बड़ी रानी का स्वर्गवास हो गया। तब राजा ने एक अत्यन्त सुन्दर राजकुमारी से विवाह किया और उसी के पुत्र को राजा बनाने का वर दिया। उस रानी से जन्तु नामक पुत्र पैदा हुआ। कुछ वर्षों बाद रानी ने अपने पुत्र को राजा बनाने तथा सौतेले बच्चों को देष निकासी का वर माँगा। राजा ओक्काक ने वैसा ही किया। ये निर्वासित राजकुमार अपनी बहनों के साथ हिमालय की तलहटी में कमलसागर के किनारे षाक्य उपवन (सागौन वन) को काटकर अपना निवास बनाये और उनका वंष षाक्य वंष कहलाया। कपिल मुनि के आश्रम में अपनी राजधानी बनाकर उसका नाम कपिलवस्तु रखा। इन राजकुमारों ने रक्त षुद्धता की दृष्टि से अपनी बड़ी बहन पिया को साक्षी मानकर षेष बहनों से षादी कर लिया। चारों राजकुमार सुखी दाम्पत्य जीवन व्यतीत कर रहे थे कि बड़ी बहन पिया को कुष्ट रोग हो गया। उसका अंग कोविलार फूल की तरह दिखाई देने लगा। राजकुमारों तथा उनकी पत्नियों को पिया के साथ रहने से कुष्ट रोग हो जाने का भय सताने लगा। एक दिन चारों भाई योजनानुसार अपनी बड़ी बहन को रथ पर बैठाकर षिकार खेलने के बहाने जंगल में ले गये। एक कमल वावली खोद कर पृथ्वी में एक भूमिगत कक्ष बनाया। उसमें अपनी बड़ी बहन को बैठा दिया। उसके खाने पीने का सामान रखकर ऊपर से मिट्टी से ढंक दिया और कक्ष का द्वार बन्द कर दिया। दरवाजे पर मिट्टी का धूह खड़ा करके वापिस चले आये। एक दिन राजा राम आग जलाकर बैठे हुए थे। उसी समय एक बाघ मनुष्य का गंध पाकर उस बावली के तरफ गया। उस भूमिगत कक्ष को अपने पंजों से खोदने लगा। यह देखकर राजकुमारी भय वष चिल्लाने लगी। राजा राम सुनसान जंगल में लड़की का आवाज सुनकर उधर दौड़े। हाथ में आग लेकर आ रहे आदमी को देखकर तथा उसकी कड़क आवाज से वह बाघ भाग खड़ा हुआ। उस स्थान पर पहुँचकर राजा ने पूछा-
राम-ः कौन ?
राजकुमारी-ः देव एक स्त्री।
राम-ः तुम किस जाति की हो ?
राजकुमारी-ः मैं इक्ष्वाकुवंषी हूँ भद्र।
राम-ः बाहर आओ।
राजकुमारी-ः मैं बाहर नहीं आ सकती।
राम-ः क्यों ?राजकुमारी-ः मुझे कुष्ट रोग है।
सारी वार्ता के बाद राम ने बताया कि मैं भी नागवंषीय क्षत्रिय हूँ। उस बावली में सीढ़ी लगाकर राजकुमारी को बाहर निकाले। राजकुमारी को अपने कुटी पर लाये। राम ने उस राजकुमारी को वही औषधि दिया जिसके सेवन से वे स्वयं ठीक हुए थे। उस दवा के सेवन से चन्द दिनों में राजकुमारी भी कुष्ट रोग से मुक्ति पा गई। दोनों दाम्पत्य जीवन यापन करने लगे। राजकुमारी से प्रथम बार में दो ,दूसरी बार में दो ,इस प्रकार सोलह बार में कुल बत्तीस बच्चों ने जन्म लिया। एक दिन काषी (बनारस) का एक रतन पारखी हिमालय की तलहटी में रत्नों की खोज कर रहा था। अकस्मात काषी नरेष राम से उसकी मुलाकात हो गई। वह रत्न पारखी राजा के साथ एक स्त्री और बत्तीस बच्चों को देखकर पूछा-राजन मैं भलीभाँति आपको जानता पहचानता हूँ। परन्तु यह स्त्री एवं बच्चों को देखकर मैं चकित हूँ। राजा राम ने उसे सारा बृतान्त बताया। एक दूसरे के समाचार का आदान प्रदान किया। उस रत्न पारखी ने वापिस आकर राजा के बड़े पुत्र जो उस समय काषी का राजा था को सारा वृतान्त बताया। बड़े पुत्र ने अपने पिता को वापिस लाने हेतु चतुरंगिणी सेना के साथ प्रस्थान किया। राजा से मिलकर काषी वापिस चलने का आग्रह किया। परन्तु राजा ने वापिस जाने से इन्कार कर दिया। राजा ने कहा कि हमने बहुत राज्य किया और कहा कि कोल (बैर) के वृक्षों को साफ करके हम लोगों को रहने के लिए एक नगर बसा दो। राजा के पुत्र ने वैसा ही किया। कोल वृक्षों को काटकर बसने के कारण उस नगर को कोल नगर तथा उसी रास्ते से व्याघ्र आते जाते थे इसलिए उस स्थान को व्याघ्र पंजा भी कहा गया। कालान्तर में कोल नगर ही आज का कोलियाँग्राम कहा जाने लगा। जो आज भी रोहीन नदी के तट पर बसा हुआ है। उस नगर के बसाने के बाद बड़े राजकुमार वापिस चले गये। बड़े होने पर इन राजकुमारों ने अपने षाक्यवंषी मामा की पुत्रियों से विवाह किया। कोल वृक्षों को काटकर वहाँ बसने के कारण ये कोलियवंषी कहलाए और इस प्रकार कोलिय वंष की उत्त्पत्ति हुई।
जनपद महाराजपुर के लक्ष्मीपुर ब्लाक में स्थित बनरसिया कला गाँव के बगल में 888 एकड़ क्षेत्र में कई टीले ,स्तूप ,छोटा सागर, बड़ा सागर नामक पुष्करणियाँ (ताल) हैं। सन् 1922 में पुरातत्व विभाग को खुदाई में यह स्तूप मिले हैं। यह स्थान रोहिणी नदी के कुछ दूरी पर पष्चिमी किनारे पर स्थित है। यहाँ के स्तूप ईंटों के हैं। जनश्रुति है कि कोलिय राज्य के संस्थापक राजा राम के बनारस वासी होने के कारण इस स्थान का नाम बनरसिया कला पड़ा। बनरसिया कला गाँव के बुढ़िया माई के स्थान (महामाया का जन्म स्थल) पर चतुर्भुजी विष्णु की प्रतिमा व षिवलिंग का पूजन अत्यंत प्राचीन काल से किया जा रहा है। यहाँ षिवरात्रि के अवसर पर मेला लगता है। उल्लेखनीय है कि नागवंषीय कोलिय षिव के आराधक थे। (पुस्तक-भारत के प्रमुख बौद्ध केन्द्र पृष्ठ 179-180 लेखक-डाॅ. दानपालसिंह)।
राजा राम का बनरसियाकला में भी उनका एक गढ़ था। बनरसिया कला के पूरब उत्तर दिषा में चैक के पास जंगल में आज भी कोढ़िया जंगल विद्यमान है। राजा राम और उनकी पत्नि पिया के उसी जंगल में बसने तथा उसी जंगल में जड़ी बूटी के सेवन से कुष्ट रोग ठीक होने के कारण उस जंगल का नाम कोढ़िया जंगल पड़ा।
षाक्यवंष और कोलियवंष की उत्त्पत्ति की यह मनगढ़ंत कहानी इतिहास की दूकान चलाने वालों की कपोल कल्पित कहानी लगती है। यह वंष निर्धारण षुद्ध रूप से जाति परिवत्र्तन से सम्बंधित प्रकरण प्रतीत होता है। मुझे विष्वास है कि नागों ने अपने पिता राम और उनकी पत्नि पिया (जिसका वंष अज्ञात था तथा जंगल में मिली थी।) से पैदा हुए बच्चों को राम की मृत्यु के बाद अपने जाति व परिवार में स्वीकार न किया हो अर्थात जाति बहिष्कृत कर दिया हो। तब इन बच्चों ने अपने दम पर अपनी आर्थिक स्थिति मजबूत किया और ब्राह्मणों से मिलकर अपने को कोलियवंषी घोषित किया। चूंकि षाक्यों की राजधानी कपिलवस्तु का जिक्र रामायण में नहीं है जिससे इनके इक्ष्वाकुवंषीय होने पर संदेह होना स्वाभाविक है। श्रीमद्भागवत गीता के अनुसार मनु से लेकर महाभारत तक 94 पीढ़ी तथा उसी पीढ़ी में महाभारत के बाद 23 वीं पीढ़ी पर षाक्य नाम के एक राजा के नाम का उल्लेख वंषावली में हुआ है। जो मनुष्य थे न कि वृक्ष। अतः इस षाक्य राजा को षाक्य वंष से जोड़ना संभव नहीं है। क्योंकि इतिहासकारों के अनुसार षाक्य वन काटकर बसने के कारण षाक्यवंषी तथा कोलवन को काटकर बसने के कारण कोलियवंषी कहलाए।
(1) डाॅ. राजबली पाण्डेय ने कोलियवंष व षाक्यवंष की उत्त्पत्ति पर स्वयं संदेह व्यक्त किया है-ः‘‘कोलिय वंष की उत्त्पत्ति की कहानी और बौद्ध साहित्य महापरिनिर्वाणसुत्त तथा दिघनिकाय में लिखा गया है। इसमें इतिहास तथा कल्पना का विचित्र मिश्रण दिखाई देता है।’’ (पुस्तक-ः गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ-65 लेखक-राजबली पाण्डेय)।
(2) यद्यपि इतिहासकारों ने षाक्यों को इक्ष्वाकुवंषी होना बताया है परन्तु हिन्दुओं के प्रसिद्ध धार्मिक ग्रन्थ बाल्मीकि कृत रामायण तथा तुलसीकृत रामचरित मानस में कहीं भी षाक्यों का जिक्र नहीं है। (पुस्तक-ः अयोध्या का इतिहास पृष्ठ-7 लेखक-अवधवासी लाल सीताराम व पुस्तक-ः राप्ती तट का इतिहास पृष्ठ-56 लेखक-डाॅ. दानपालसिंह)
काषी नरेष राम की नई राजधानी रामगढ़ का विस्तार-ः षाक्य राज के पूरब में उत्तर से दक्षिण तक नागवंषीय षासक राम का राज्य था। षाक्य राज्य और कोलिय राज्य के बीच में रोहिणी नदी सीमा थी। बुद्ध के अवषेषों पर निर्मित रामग्राम स्तूप की पूजा नाग करते थे। ये नाग निर्विवाद रूप से रामपुर के नागवंषियों के परिचायक हैं। इनका राज्य गोरखपुर के सदर तहसील के दक्षिणी भाग तथा बाँसगाँव के पष्चिमी भाग भाग में विस्तृत था। काषी के नागवंषी राजा ने अपना राज्य अपने बड़े पुत्र को सौंपकर स्वयं वर्तमान गोरखपुर के आसपास अपना निवेष बनाया। बाद में उनके साथ रहने के लिए बहुत से नागवंषी सरयू पार करके यहाँ आ बसे। बौद्ध धर्म के प्रचार से अधिकांष नागवंषी प्रभावित होकर बौद्ध धर्म के अनुयायी हो गये। थोड़े से ही लोग ब्राह्मण धर्म के अनुयायी रह गये थे। नागवंषियों का गणराज्य भी मगध गणराज्य के उदय होने पर नष्ट हो गया किन्तु नागवंषी जीवित रहे। (पुस्तक-गोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 296 लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय)। चूंकि वर्तमान जनपद महाराजगंज के नौतनवा तहसील में स्थित बनरसियाकला जिसे बनारस के नागवंषी षासक राम ने बसाया था। यहाँ पर उनका एक गढ़ (किला) था। बनारस के राजा राम के नाम पर दत्रउस षहर का नाम बनरसिया कला पड़ा था। बनरसिया कला गाँव के पूर्वोत्तर दिषा में एक ऊँचा टीला है जहाँ पर आज भी पुराने ईंट तितर वितर पड़े हुए हैं। वहाँ के लोग उस टीले को किला बताते हैं और आम जनता उसे बनरसगढ़ कहती है। कोढ़िया जंगल जो षहर महाराजगंज से लगभग पन्द्रह किलोमीटर उत्तर चैक के पास स्थित है, यहीं पर नागवंषी षासक राम और षाक्यवंषी पत्नि पिया ने आवास बनाया था। यहीं पर जड़ी बूटी के सेवन से दोनों का कोढ़ ठीक हुआ था। इससे स्पष्ट है कि नागवंषी षासक राम के राज्य का विस्तार उत्तर में नेपाल देष की सीमा तक था। बनरसिया कला में ही बुद्ध की माता महामाया का मायका था। महामाया भी कोलियवंष की राजकुमारी थीं।
गोरखपुर विष्वविद्यालय द्वारा डाॅ. षिवराजसिंह से सन् 1963-64 में जनपद महाराजगंज के मड़ियाभार स्थित किले के विषय में षोधकार्य करवाया। डाॅ. षिवराजसिंह ने मड़ियाभार को प्राचीन कोलियनगर के रूप में चिन्हित किया है। वर्तमान में मड़ियाभार के समीप एक बड़े नगर के ध्वंषावषेष भी मौजूद हैं। स्थानीय किंवदन्ती में भी यहाँ प्राचीन नगर या स्तूप होने के संकेत करती है। इसी के समीप रामनगर नामक एक ग्राम का निवेष भी है। (पुस्तक- गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास पृ. 84 लेखक-दिवाकर तिवारी )
उपरोक्त विवरण से स्पष्ट है कि मड़ियाभार में भी राजा राम का एक गढ़ था।
काषी के नागवंषी षासक राम क्या आधुनिक भर/राजभर थे ? इस सम्बंध में कुछ धार्मिक ग्रन्थों और इतिहासकारों के विचारों का अवलोकन करें-ः
(1) महाभारत के अध्याय ‘‘आदि पर्व’’ के षीर्षक ‘‘खाण्डव वन की दाह कथा’’ के अनुसार खाण्छव वन नागवंषियों का निवास था। वहाँ उनके छोटे छोटे राज्य थे। अजफन तथा श्रीकृष्ण उनके राज्य को अपने आधीन करना चाहते थे। परन्तु नागों को उनकी आधीनता स्वीकार नहीं थी। उस समय तक्षक नाग ,वासुकि नाग आदि प्रमुख नाग षासक थे। अर्जुन व श्रीकृष्ण ने नागों द्वारा उनकी आधीनता स्वीकार न करने पर क्रुद्ध होकर उन्हें समूल नष्ट करने हेतु खाण्डव वन में आग लगा दिया ,जिसमें नागों के साथ साथ तमाम निर्दोष जीव जन्तुओं का सामूहिक संहार हुआ। जिन्दा जलते नागों के करुण क्रन्दन तथा सामूहिक चीत्कार से सारा व्योम काँप् उठा। जोे नाग अपने निवास पर नहीं थे या अन्यत्र गये हुए थे केवल वही बच पाये। इस अग्निकाण्ड से नाग धन सम्पदा एवं घर विहीन होकर दीन हीन दषा में दर दर की ठोकरें खाने को मजबूर हो गये। अर्जुन व श्रीकृष्ण के मारे जाने के भय से बचे हुए नाग चोरी व डकैती करके अपना जीवन यापन करने को मजबूर हो गये। अस अग्निकाण्ड ने अर्जुन व श्रीकृष्ण को नागों का स्थायी दुष्मन बना दिया। एक बार महाभारत के महान धनुर्धर अर्जुन श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर जा रहे थे। नागों ने मौका पाकर अजर्फन को परास्त करके श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लूट कर अपना बदला चुका लिया। अर्जुन के ण्क मात्र धनुर्धर होने पर प्रष्न-चिन्ह लगा दिया। इस घटना से क्षुब्ध होकर अजर्फन ने कुछ ही दिनों में अपना प्राण त्याग दिये ।उन वीर नागों को जिन्होंने अर्जुन को परास्त करके उनके साथ जा रही श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लूट लिया था को महाकवि तुलसीदास ने अपनी पुस्तक दोहावली में ‘‘भर’’ षब्द से निरूपित किया है।
‘‘बचन कहे अभिमान के ,पारथ पेखत सेतु। प्रभु तिय लूटत नीच भर ,जयन मीचु तिहि हेतु।।’’ उक्त दोहे का अनुवाद श्री हनुमानप्रसाद पोद्धार प्रकाष कल्याण गीता प्रेस गोरखपुर ने इस प्रकार किया है-ः‘‘एक समय श्रीरामचन्द्र जी कृत सेतुबंध रामेष्वरम् के पत्थरों को देखकर अर्जुन ने अपने को अद्वितीय महान धनुर्धर होने के अभिमान में श्रीकृष्ण से कहा कि इस सेतु को बाँधने में राम ने इतना प्रयत्न क्यों किया। मैं उस समय होता तो सारा पुल वाणों से बना दिया होता। इस अभिमान का परिणाम यह हुआ कि एक समय अर्जुन श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लेकर हस्तिनापुर जा रहे थे। रास्ते में लीच भरों ने अर्जुन को परास्त करके औरतों को लूट ले गये। इस अपमान सक अर्जुन का मरण हो गया। (नोट-ः चोरी व डकैती के कारण बाल्मिकी जैसे विद्वान ब्राह्मण को षूद्र कहा गया तो अपना राज्य छिन जाने के कारण दीन हीन दषा में रहने वाल भरों को जिन्होंने हिन्दुओं के आराध्यदेव श्रीकृष्ण के परिवार की स्त्रियों को लूट लिया था ,उन भरों के लिए तुलसीदास द्वारा नीच षब्द का प्रयोग करना स्वाभाविक ही था। तुलसीदास के उक्त दोहे से स्पष्ट है कि वर्तमान में भर या राजभर कही जाने वाली जाति पौराणिक काल में नाग कही जाती थी। अर्थात भर या राजभर नागवंषी हैं। यद्यपि पाण्डवों और नागों में वैवाहिक सम्बंध होते थे। कई नाग कन्याओं की षादी पाण्डव परिवार में हुई थी। फिर भी नागवंषी अपने समुदाय के सामूहिक संहार को नहीं भूल पाते थे। राजा परीक्षित को नागों ने मौका पाकर मार डाला ,जिससे क्रोधित होकर्र जनमेजय ने नागयज्ञ करके नागों को पकड़वा पकड़वा कर जिन्दा ही हवन कुण्ड में डलवा दिया।
(2) भारत के विभिन्न भागों में सन् 150 से 240 ईस्वी तक नाग राजाओं का राज्य रहा। इन नागवंषी राजाओं में षेषनाग प्रमुख थै। इनकी वंष परम्परा के नौ राजाओं को नवनाग या भारषिव कहा जाता था। कान्तितपुर ,मथुरा इनकी प्रमुख राजधानियाँ रहीं हैं। वर्तमान मिर्जापुर ,सीधी ,बाँदा जिला में इनके कई किले खण्डहर के रूप में विद्यमान हैं। परन्तु आज ये दलित माने जाते हैं ,जबकि नागवंष सूर्य वंष की एक षाखा मानी जाती है पौराणिक काल में ये बड़े बड़े साम्राज्यों के स्वामी रहे हैं। (पुस्तक-‘‘आदिवासी या जनजाति नहीं ,ये हैं मध्यकालीन स्वतंत्रता सेनानी’’ पृष्ठ 39, षीर्षक ‘‘भर या राजभर या भारषिव’’ लेखक-ःरामफलसिंह ‘‘रामजी भाई’’)।
(3) काषी के ऊपर और आसपास के सभी प्रान्तों पर कुषाण साम्राज्य स्थापित था। उनको नष्ट करके अपने पराक्रम से भारषिवों ने गंगा के प्रदेष पर अपना अधिकार जमाया और गंगा जल से उनका अभिषेक हुआ। स्व. काषीप्रसाद जैसवाल क ेमत में भारषिवों ने काषी के दषाष्वमेध घाट पर ही दस अष्वमेध यज्ञ किया था। (-ःपृस्तक-गोरखपुर और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 165 लेखक- डाॅ. राजबली पाण्डेय) नोट-ः नागवंषी राजवंष ने अपने कंधे पर षिवलिंग का भार वहन कर षिव को परितृष्ट करने के कारण भारषिव कहलाया। (डाॅ. काषीप्रसाद जैसवाल पुस्तक-अन्धकार युगीन भारत)।
(4) युक्त प्रान्त के पूर्वी जनपदों (विषेषकर गोरखपुर जनपद में) और बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड में यह अनुश्रुति प्रचलित है कि आधुनिक राजपूतों ने भरों को हराकर इन प्रान्तों पर अपना अधिकार जमाया था। वास्तव में ये भर नागवंषी भारषिवों के वंषज थै। (पुस्तक-ःगोरखपुर जनपद और उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 165 लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय एवं पुस्तक-गोरखपुर परिक्षेत्र का इतिहास पृष्ठ 131 लेखक-दिवाकरप्रसाद तिवारी)।
प्राचीन कोलियों की वर्तमान पहचान-ः प्राचीन कोलिय जिनकी उत्त्पत्ति नागवंषीय नरेष राम और षाक्यवंषी राजकुमारी के संयोग से हुई थी ,उनको कोलियों की उत्त्पत्ति के विषय में प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय ने अपनी पुस्तक में बौद्ध ग्रन्थ दिघनिकाय में वर्णित कहानी को मूलतः दुहराया है और वर्तमान में कोलियों के वंषजों की पहिचान किया है।
(1) सबसे पहले काषी के साथ कपिलवस्तु के यााक्यों के सम्बंध से नागवंषी गोरखपुर में आये और उन्होंने आधुनिक गोरखपुर के पास कोलियाँ के राम जनपद की स्थापना की। (पुस्तक- गोरखपुर जनपद व उसकी क्षत्रिय जातियों का इतिहास पृष्ठ 284 लेखक-डाॅ. राजबली पाण्डेय)।
(2) कोलियवंष ,षाक्यवंष की कन्या तथा काषी के नाग षासक राम के सम्बंध से रामग्राम (राम जनपद) में पैदा हुआ। (पुस्तक-तदैव पृष्ठ 68)।
(3) गोरखपुर में बीस हजार ऐसे सैंथवार हैं जो अपने को नागवंषी कहते हैं। परन्तु पहले ही देखा गया है कि राम जनपद का कोलियवंष नागवंषीय क्षत्रिय था। (पुस्तक-ःतदैव पृष्ठ 154)।
(4) राम जनपद का कोलियवंष नागवंषीय क्षत्रिय था। जहाँ कोलिय राष्ट्र था ,वहीं सैंथवार नागवंषियों की संख्या अधिक है। अतः यह स्वाभाविक परिणाम निकाला जा सकता है कि ये प्राचीन नागवंषी कोलियों के पूर्वज हैं। (तदैव पृष्ठ 154)।
(5) नकहनियाँ वंष जिनका निवास क्षेत्र उस भाग में है जहाँ प्राचीनकाल में नागवंषीय कोलियों का जनपद था ,इसलिए नकहनियाँ सैंथवार क्षत्रियों का मूलवंष नाग और प्राचीन जनपद राम जनपद है। ( तदैव पृष्ठ 322)। अतः डाॅ. राजबली पाण्डेय के अनुसार वर्तमान सैंथवार ही प्राचीन कोलिय हैं।
काषी नरेष राम का गोरखपुर में षासन काल का निर्धारण-ः चूंकि षाक्यवंष के प्रथम पुरुष ओक्कामुख और उनके भाइयों का उल्लेख रामायण में नहीं है और न तो उनकी राजधानी कपिलवस्तु का वर्णन है, रामायाण में कोलिय वंष का भी वर्णन नहीं है। इससे स्पष्ट है कि सतयुग ,त्रेता व द्वापर में इन दोनों वंषों की उत्त्पत्ति नहीं हुई थी। इन दोनों वंषों को इक्ष्वाकुवंष से जोड़ना इतिहासकारों की मिलीभगत लगती है।
महात्मा बुद्ध की माता महामाया कोलियवंष की राजकुमारी थी। इससे स्पष्ट होता है कि बुद्ध के जन्म के समय कोलियवंष का अभ्युदय हो चुका था। अर्थात कोलियवंष की उत्त्पत्ति बुद्ध के जन्म 563 ई.पू. के पहले 7 वीं षताब्दि ई.पू. माना जा सकता है। परन्तु सैंथवार जाति जो अपने को कोलियवंषी बताते हैं उनके उत्पत्ति के विषय में सन्देह व्यक्त करते हुए अनेक इतिहासकारों ने कहा है कि सैंथवार जाति में सम्मिलित राजपूत जातियों का कुर्सीनामा 18 पीढ़ी से ज्यादा नहीं मिलता है। इससे तो यही प्रतीत होता है कि कोलियों की उत्त्पत्ति सातवीं सदी हो सकती है। मेरे विचार से अगर बुद्ध की माता महामाया कोलियवंषी राजकुमारी थीं तो यह भी सही है कि काषी नरेष राम का गोरखपुर में षासनकाल सातवीं षताब्दि ई. पू. में रहा है।
नागवंषी कोलियों की ज्यादा आबादी पूर्वी उत्तरप्रदेष तथा बिहार के पष्चिमी भाग में थी। बौद्धधर्म में दीक्षित होने के कारण बुद्ध द्वारा बताए गये नियमों के पालन तथा समय समय पर समूह में एकत्र होकर बैठक करने वाले संस्थागारों से सम्बंधित लोगों को संस्थागारिक कहा जाने लगा जिसका अपभृन्ष संस्थावार या सैंथवार नाम प्रचलित हो गया। (पुस्तक- क्षत्रिय राजवंष पृष्ठ 385 लेखक-डाॅ. रघुनाथचंद्र/डाॅ. प्रदीप राव)
भोगी से योगी बने, भर राजा भर्तृहरि (7 वीं सदी)
लेखक - श्री रामचन्द्र राव, ग्राम - खैरावाद पो.परषुरामपुर, जिला-गोरखपुर (उ.प्र.) मो. 9453303481
जीवन परिचय - आज भारत का कौन सा गाॅंव या परिवार है जो राजा भर्तृहरि को नहीं जानता। भर राजा भर्तृहरि एक ऐतिहासिक पुरूष थे। आम जनता मैं इन्हें भरथरी के नाम से जाना जाता है राजा भर्तृहरि के जीवन चरित्र के विषय में तमाम जनश्रुतियाॅ प्रचलित है। मुख्य रूप से गाॅंव-गाॅव में घूमने वाले योगी आज भी उनकी जीवन गाथा को जीवित किये हुए हैं। वे अपने योगी गीतों में उनकी जीवन गाथा गाते पाये जाते हैं। पुस्तक भर्तृहरिषतक रूपान्तरकार जी, विवेक मोहन व पुस्तक नाथ सिद्व चरितमृत प्रस्तुत कर्ता श्री रामलाल श्रीवास्तव के आधार पर उनके जीवन पर प्रकाष डालने का प्रयत्न किया जा रहा है।
प्रबन्ध चिन्तामणि (1304 ई.) व विक्रम चरित में उल्लेख है कि भानु विजयमुनि के विक्रम प्रबंधरास के अनुसार कंचनपुर के राजा हेमरथ थे। उनकी पत्नी का नाम हेममाला था। हेमरथ के पुत्री को एक पुत्र हुआ जिसका नाम गन्धर्वसेन उर्फ चन्द्रसेन था। गन्धर्वसेन बहुत ही सुन्दर थे। उनके आकर्षक मुख मण्डल को देखकर युवतियां उनको देखती ही रह जाती थी। किन्ही कारणों से राजा ने उन्हे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। गन्धर्व सेन बन में चले गये और घोर तपस्या करके योग सिद्वि प्राप्त की। एक दिन गन्धर्वसेन हेमबर्धन नगर में पहुंचे हेमबर्धन नगर के राजा रत्नसेन और उनकी पत्नी रत्नावली नें गन्धर्वसेन के आचार व्यवहार तथा प्रभा मण्डल को देखकर अपनी पुत्री का विवाह गन्धर्वसेन से कर दिया। बाद में गन्धर्वसेन मालवा के सम्राट हुए। 108 राजा और अधिराजा उनके अधीन थे। गन्धर्वसेन की दो पत्नियां थी।
1. राजा रत्नसेन की पुत्री रूप सुन्दर उर्फ घीमती। जिससे भर्तृहरि पैदा हुए।
2. राजा ताम्रसेन की पुत्री महेन्द्रलेखा उर्फ श्रीमती पदमावती। जिससे विक्रम पैदा हुए।
ष्षुरू में राजा के द्वारा मारे जाने के भय से रानी पदमावती के इषारे पर दासी मालिनी ने विक्रम का पालन पोषण किया। क्योंकि ज्योतिषियों ने राजा गन्धर्वसेन को बताया कि पदमावती का पुत्र ही राजा होगा। जबकि वह भर्तृहरि से छोटा तथा सौतेला भाई था।
(अ)पुस्तक भर्तृहरिषतक अनुवादकर्ता श्री विवेक मोहन के अनुसार राजा भर्तृहरि की दो रानियाॅ थीं। बड़ी रानी का नाम अनंगसेना तथा छोटी रानी का नाम पिगंला उर्फ सामदेवी था। अनुधुति है कि योगी गोपीचंद राजा भर्तृहरि के भाॅन्जे थे और भर्तृहरि के बहन का नाम मयनावती था।
(ब) पुस्तक नाथ सिद्ध चरितामृत पृ. 187 के अनुसार रानी पिंगला ही उनकी एक मात्र रानी थी। षेष सभी पट रानियाॅ थी। रानियों और पटरानियों के अतिरिक्त अपने रूप लावण्य और सौन्दर्य के लिए प्रसिद्व गणिका रूपलेखा का भोग विलास में डूबे राजा भर्तृहरि के चंचल हृदय क्षेत्र पर एकाधिकार था वे आये दिन अपनी मान मर्यादा की उपेक्षा करते हुए गणिका रूप लेखा के यहाॅं दिखायी दे जाते थे। मलिक मुहम्मद जापसों की पुस्तक पद्मावत, जोगी खण्ड 6 के अनुसार राजा भर्तृहरि के पास 1600 रानियाॅ थी। कृपया अवलोकन करें।
‘‘ राजा भरथरी सुना जो ज्ञानी, जेहि के घर सोलह सौ रानी।।
राजा भर्तृहरि के जाति के विषय में डाॅ. सरित किषोरी ने अपनी‘‘ पुस्तक वाराणसी के स्थाननामों का सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 4 पर उल्लेख किया है।
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