मंगलवार, 14 अप्रैल 2015

Rajbhar samaj ka itihas part 2



भोगी से योगी बने, भर राजा भर्तृहरि (7 वीं सदी)

लेखक - श्री रामचन्द्र राव, ग्राम - खैरावाद पो.परषुरामपुर, जिला-गोरखपुर (उ.प्र.) मो. 9453303481

जीवन परिचय - आज भारत का कौन सा गाॅंव या परिवार है जो राजा भर्तृहरि को नहीं जानता। भर राजा भर्तृहरि एक ऐतिहासिक पुरूष थे। आम जनता मैं इन्हें भरथरी के नाम से जाना जाता है राजा भर्तृहरि के जीवन चरित्र के विषय में तमाम जनश्रुतियाॅ प्रचलित है। मुख्य रूप से गाॅंव-गाॅव में घूमने वाले योगी आज भी उनकी जीवन गाथा को जीवित किये हुए हैं। वे अपने योगी गीतों में उनकी जीवन गाथा गाते पाये जाते हैं। पुस्तक भर्तृहरिषतक रूपान्तरकार जी, विवेक मोहन व पुस्तक नाथ सिद्व चरितमृत प्रस्तुत कर्ता श्री रामलाल श्रीवास्तव के आधार पर उनके जीवन पर प्रकाष डालने का प्रयत्न किया जा रहा है।

   प्रबन्ध चिन्तामणि (1304 ई.) व विक्रम चरित में उल्लेख है कि भानु विजयमुनि के विक्रम प्रबंधरास के अनुसार कंचनपुर के राजा हेमरथ थे। उनकी पत्नी का नाम हेममाला था। हेमरथ के पुत्री को एक पुत्र हुआ जिसका नाम गन्धर्वसेन उर्फ चन्द्रसेन था। गन्धर्वसेन बहुत ही सुन्दर थे। उनके आकर्षक मुख मण्डल को देखकर युवतियां उनको देखती ही रह जाती थी। किन्ही कारणों से राजा ने उन्हे अपने राज्य से निर्वासित कर दिया। गन्धर्व सेन बन में चले गये और घोर तपस्या करके योग सिद्वि प्राप्त की। एक दिन गन्धर्वसेन हेमबर्धन नगर में पहुंचे हेमबर्धन नगर के राजा रत्नसेन और उनकी पत्नी रत्नावली नें गन्धर्वसेन के आचार व्यवहार तथा प्रभा मण्डल को देखकर अपनी पुत्री का विवाह गन्धर्वसेन से कर दिया। बाद में गन्धर्वसेन मालवा के सम्राट हुए। 108 राजा और अधिराजा उनके अधीन थे। गन्धर्वसेन की दो पत्नियां थी।

1. राजा रत्नसेन की पुत्री रूप सुन्दर उर्फ घीमती। जिससे भर्तृहरि पैदा हुए।

2. राजा ताम्रसेन की पुत्री महेन्द्रलेखा उर्फ श्रीमती पदमावती। जिससे विक्रम पैदा हुए।

   ष्षुरू में राजा के द्वारा मारे जाने के भय से रानी पदमावती के इषारे पर दासी मालिनी ने विक्रम का   पालन पोषण किया। क्योंकि ज्योतिषियों ने राजा गन्धर्वसेन को बताया कि पदमावती का पुत्र ही राजा होगा। जबकि वह भर्तृहरि से छोटा तथा सौतेला भाई था।

(अ)पुस्तक भर्तृहरिषतक अनुवादकर्ता श्री विवेक मोहन के अनुसार राजा भर्तृहरि की दो रानियाॅ थीं। बड़ी रानी का नाम अनंगसेना तथा छोटी रानी का नाम पिगंला उर्फ सामदेवी था। अनुधुति है कि योगी गोपीचंद राजा भर्तृहरि के भाॅन्जे थे और भर्तृहरि के बहन का नाम मयनावती था।

(ब)      पुस्तक नाथ सिद्ध चरितामृत पृ. 187 के अनुसार रानी पिंगला ही उनकी एक मात्र रानी थी। षेष सभी पट रानियाॅ थी। रानियों और पटरानियों के अतिरिक्त अपने रूप लावण्य और सौन्दर्य के लिए प्रसिद्व गणिका रूपलेखा का भोग विलास में डूबे राजा भर्तृहरि के चंचल हृदय क्षेत्र पर एकाधिकार था वे आये दिन अपनी मान मर्यादा की उपेक्षा करते हुए गणिका रूप लेखा के यहाॅं दिखायी दे जाते थे। मलिक मुहम्मद जापसों की पुस्तक पद्मावत, जोगी खण्ड 6 के अनुसार राजा भर्तृहरि के पास 1600 रानियाॅ थी। कृपया अवलोकन करें।

‘‘ राजा भरथरी सुना जो ज्ञानी, जेहि के घर सोलह सौ रानी।।

राजा भर्तृहरि के जाति के विषय में डाॅ. सरित किषोरी ने अपनी‘‘ पुस्तक वाराणसी के स्थाननामों का सांस्कृतिक अध्ययन पृ. 4 पर उल्लेख किया है।

   ‘‘ योगियों के कुल नायक भर्तृहरि को कई बार योगी गीतों में भर राजा या भरथर योगी के रूप में स्मरण किया जाता है। यहां गोरखनाथ के मठ विद्यमान है इसलिए उनका प्रभाव मण्डल अवष्य रहा होगा।

राजा भर्तृहरि का समय निर्धारण:-मालव देष के उज्जैन के षासक भर्तृहरि के षासन काल के निर्धारण में विद्वानों में मतभेद है। भर्तृहरि को विक्रमादित्य का भाई मान लिया जाय तो स्पष्ट है कि भर्तहरि ईसा से पूर्व हुए थे। क्योंकि विक्रमादित्य द्वारा चलाया गया विक्रमी सम्वत् ई. से 57 वर्ष पूर्व है जबकि चीनी यात्री इत्सिग(हवेंग सांग) ने  अपनी यात्रा विवरण में लिखा है। कि उसके भारत भ्रमण पर आने के 50 वर्श पूर्व भर्तृहरि की मृत्यु हुई थी। हवेंग सांग ने 7 वीं ई. के अन्त तथा 8 वीं ई. के षुरूआत में भारत भ्रमण किया था औरा नालन्दा भी गया था। इत्सिंग (हवेंग सांग ) के वर्णन के अनुसार भर्तृहरि का समय 651 ई प्रतीत होती है यद्यपि इत्सिंग ने भर्तृहरि को बौद्वमती होना बताया है। परंतु उनके रचित ग्रन्थों के पदों से षैवमती ही प्रतीत होते है और यही भारतीय जनमानस में आज भी प्रचलित है उनके मत मतान्तरों के अवलोकन से यह स्पष्ट है कि राजा भर्तृहरि का षासन काल 7 वीं सदी ही सत्य है। योगिराज गुरू गोरखनाथ राजा भर्तृहरि के योग गुरू थे। भर्तृहरि ने गुरू गोरखनाथ से दीक्षा  प्राप्त कर सिद्व कहलाने का सौभाग्य प्राप्त किया था।

राजा भर्तृहरि का षासन व जीवन षैली:-भर्तृहरि का जन्म मालवा देष में महाकालेष्वर की पवित्र भूमि में भगवती षिप्रा नदी के अंचल क्षेत्र में स्थित उज्जयनी में राजा गन्धर्वसेन के यहां हुआ था यद्यपि राजा गन्धर्वसेन षुरू में भर्तृहरि को ही राजा बनाना चाहते थे। परंतु भर्तृहरि के उच्छृंखल प्रवृति से तंग आकर बड़े पुत्र भर्तृहरि के होते हुए छोटे पुत्र विक्रम को राजगद्दी का भार सौंपना चाहते थे। परंतु विक्रम ने बड़े भाई के रहते हुए राजा बनना स्वीकार नहीं किया। अन्नतः भर्तृहरि को ही उज्जैन का षासक बनाना पड़ा। परंतु राजा गन्धर्वसेन ने मंत्री का पद अपने छोटे(सौतेले) पुत्र विक्रम को ही बनाया भर्तृहरि षासन सत्ता पाकर भोग विलास ऐषो आराम में आकण्ठ डूब गये। सदैव सुन्दरियों के बीच रहते हुए भर्तृहरि विलासी हो गये। उनके दूत हमेषा नई नई युवतियों के तलाष  में रहते थे। रनिवास में नित्य सुन्दरियों को लाने के लिए साम,दाम,दण्ड,भेद का सहारा लिया जाता था। राजा हमेषा अन्तःपुर में तमाम सुन्दरियों से घिरे रहते थे। लज्जाबष लाग दिन में अन्तःपुर में जाने से कतराते थे। परंतु राजा भर्तृहरि पर इसका कोई प्रभाव नहीं था। राजकाज से सम्बंधित सुझाव लेने हेतु विक्रम को राजा के पास जाना ही पड़ता था। परंतु जब भी अन्तःपुर में जाते वहां का दृष्य देखकर लज्जा से उनका सर झुक जाता था। कई बार राजा भर्तृहरि को विक्रम ने समझाने का प्रयत्न किया परंतु राजा के व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आया। अन्ततः विक्रम राजा भर्तृहरि से विद्रोह कर बैठे और राजा से वोले कि अगर आप अपनी आदत में सुधार नहीं लाते है तो मैं बाध्य होकर इस राज्य का त्याग करके चला जाऊॅंगा। राजा भर्तृहरि ने कहा कि यह सब बन्द नहीं होगा। तुम्हारी इच्छा है तो तुम कहीं भी जा सकते हो विक्रम का यह षब्द बाॅंण की तरह लगा और तुरन्त उज्जैन छोड़ कर बाहर चले गये। प्रजा को कोई देखने वाला नहीं रहा। जिसकी लाठी उसकी भैंस का बोलबाला हो गया। विक्रमादित्य के चले जाने के बाद राजा भोग विलास में डूबते ही चले गये। राजा भर्तृहरि को रूप यौवन से मतलब था। इसके लिए निम्न स्तर की सुन्दरियों से भी संपर्क रखने में परहेज नहीं रखते थे। रति क्रीड़ा में प्रवीण रूप लेखा नाम की वेष्या जो रूप यौवन की साक्षात अवतार थी, नगर के तमाम बड़े-बड़े सेठ उसके लिए पंक्तिवद्व रहते थे उस अधम रूपलेखा से भी संपर्क करने में भर्तृहरि को लज्जा नहीं आती थी। राजा होते हुए भी जब चाहते उसके घर तक चले जाते थे। और उसके रूप लावण्य का उपभोग करके वापस चले आते थे। दरवार के तमाम प्रभावषाली पुरूष भी रूप लेखा के लिए उपहार लिए दौडे चले आते थे। और अपना समय निर्धारित कर-कर चले जाते थे। राजा को प्रजा की कोई चिन्ता नहीं थी। चिन्ता थी तो केवल सुरा व सुन्दरियों की।

एक फल ने बनाया रसभोगी को योगी:-एक दिन अन्तःपुर में सुरा और सुन्दरियों का दौरा चल रहा था। नब यौवनायें सुन्दरियां अद्र्वनग्न होकर अपने उरोजों, कटि व जंघाओं के आकर्षण तथा अपने मादक व उत्तेजक व्यवहार से अन्तःपुर में मादकता पैदा कर भर्तृहरि को आकर्षित कर रही थीं। राजा कभी उनका उरोज मर्दन तो कभी उनके कटि व जंघाओं पर हाथ फेर रहे थे। अन्तःपुर में उपस्थित तमाम सुन्दरियाॅं राजा भर्तृहरि का स्पर्षमात्र पाने के लिए आतुर थी। जो उनका सानिध्य पा गयी अपने को धन्य मान रहीं थी। राजा भर्तृहरि की यह रास लीला चल ही रही थी उसी समय द्वारपाल आकर बोला महाराजाधिराज की जय हो।

लज्जा को भी लज्जित करने वाले भृर्तहरि सुन्दरियों के बीच बैठे ही बोले:- कहो क्या समाचार है?

द्वारपाल:-बाहर एक ब्रा­ह्मण आये हुए है जो आप से मिलना चाहते है।

राजा:- ठीक है अतिथिगृह में उन्हे बैठाओं मैं आ रहा हूॅं।

   यद्यपि राजा उन सुन्दरियों को छोड़कर जाना नहीं चाहते थे। परंतु राजकीय परम्पराओं के अनुरूप उन्हें ब्राह्मण से मिलना आवष्यक था। क्योंकि कोई भी ब्राह्मण आज तक राजा से मिले बगैर वापस नहीं गया था। अतः बाध्य होकर राजा अन्तःपुर से अतिथिगृह में आये। अतिथिगृह में ष्वेत केष व दाढ़ी उन्नत ललाट, गेरूआ वस्त्र धारी, तेजस्वी मुख मण्डल एक ब्राह्मण आसीन थे भर्तृहरि ने सर सुकाकर साधु के श्रीचरणों में नमन किया।

   ‘‘आयुष्मान भव, कह कर उस साधु ने हाथ उठाकर उन्हें  आषीर्वाद दिया। आदेष करें भगवन, आप का किस निमित आगमन हुआ है ? राजा बोले। साधु ने अपने अत्यंत गम्भीर और रोबीले स्वर में कहा - बस राजन, तुम्हारे दर्षन के लिए आये थे। तुम षतायु हो, तुम्हारा राज्य चिरकाल तक रहे, कहते हुए भर्तृहरि के हाथ में झोली से निकालकर एक फल दिया और बोले राजन, यह एक सिद्धफल है इसके खाने से मनुश्य की उम्र 100 वर्ष हो जाती है। वह सदैव जवान बना रहता है मेरे पास यह फल बहुत दिनों से पड़ा हुआ था। इसे मैंने इन्द्र के नन्दन बन से प्राप्त किया था। इस फल को खाओ और षतायु बनो। मैं तेरे राज्य में सौ वर्षो तक रहा हूॅं। अब षिव की तपस्या करने कैलाष पर्वत पर जा रहा हूॅं और यह फल तुम्हें दे रहा हूॅं। भर्तृहरि वह अद्भुत फल देखकर विस्मय में पड़ गये और प्रसन्न मुद्रा में साधु से कहा - महात्मन कहिए मैं आप की क्या सेवा करूॅ ?

सेवा, ! साधु ठठाकर हॅंस पड़े, अतिथि गृह में साधु का स्वर गूॅंज उठा। राजन, परमपिता परमेष्वर की छाया में रहने वाले इस साधु को तू क्या देगा। बस रहने दे, तेरा कल्याण हो, कहकर साधु उठे और चले गये। राजा भर्तृहरि साधु के मुखमण्डल और आभा को देखकर चकित रह गये और उन्हें पूर्ण विष्वास हो गया कि ये सिद्व पुरूष है। इनका दिया हुआ यह षतायु फल बेकार नहीं जायेगा। राजा प्रसन्नचित अपने अन्तःपुर को लौट पड़े अन्तःपुर में अर्द्धनग्न सुन्दरियाॅं राजा का इन्तजार कर रही थंी। अन्तःपुर के द्वार पर खड़े परिचारिका के कंधे पर हाथ फेरते हुए राजा ने कहा हे सुन्दरी, यह फल रानी अनंग सेना को दे दो और बता दो कि मैं आ रहा हूॅं। परिचायिका ने सर सर झुकाकर फल लिया और रानी के महल की तरफ चली गयी। रानी अनंगसेना का नाम राजा भर्तृहरि के मुख से सुनते ही उपस्थित सुन्दरियां रानी अनंगसेन से ईष्र्या से जल भुन गयीं। रानी अनंग सेना राजा को प्राण से भी प्यारी थी। दूसरे नम्बर पर रानी पिंगला का नाम आता था। राजा कुछ समय तक उपस्थित सुन्दरियों के उरोजों से खेलते रहे। उसके बाद रानी अंनगसेना के महल में प्रवेष किये।

   आओं प्रियतम,! कहकर रानी अनंगसेना ने उनका स्वागत किया। रानी परम सुन्दरी ही नही ंबल्कि उनका मुख षरद पूर्णिमा के चन्द्र के सदृष्य था। भगवान ने बडे़ ही फुर्सत के क्षणों में उनके चन्द्र मुख को तैयार किया था रानी रजा को षयन कक्ष में ले गयी।

रानी:-  प्रियतम आप ने परिचारिका से एक फल भिजवाया है।

राजा:- हाॅं प्रिये, फल को तुम ग्रहण करो। उस फल को खाकर तुम षतायु प्राप्त करो। आओ प्रियतम! आप किसी फल से कम हो और आलिंगनवद्ध हो गयी की दोनो वासना के सागर में डूब गये। इसी बीच राजा ने साधु द्वारा दिये गये आयुबर्धक फल की सारी कहानी रानी अनंगसेना को बता दी और पुनः कहा कि प्रिये मेरी हार्दिक इच्छा है कि तुम इस फल को ग्रहण करो। यह फल तुम्हारे लिए और तुम हमारे लिए हो। काम क्रीडा से निवृत्त होने के पष्चात राजा रानी पिंगला के पास चले गये। षेष रात्रि तुम्हारी कहते हुए पिंगला का आलिंगन करते हुए उनके अधरों का पान करने लगे। रानी पिंगला ने भी अपना अहोभाग्य माना। आज अमावस्या की वह काली रात अनंगसेना के लिए अर्पित न होकर रानी पिंगला को अर्पित था। अतः राजा अनंगसेना के पष्चात रानी पिंगला के पास चले गये थे। राजा भर्तृहरि पराई सुन्दरियों के साथ रमण में ज्यादा समय

  देते थे। अतः उनके प्राणों से भी प्यारी अंनगसेना का भी अवैध सम्बंध रथ वाहक चन्द्रचूड से हो गया था। बह रात्रि को एक गुप्त मार्ग से रानी के षयनागार में पहुंच जाता था। रात भर रानी अनंगसेना के साथ रात्रि क्रीडा के पष्चात वापस चला जाता था। आज वहीं चन्द्रचूड गुप्त मार्ग से रानी अनंगसेना के कक्ष में प्रवेष किया। प्रवेष करते ही अनंगसेना चन्द्रचूड के वाहों में समा गयी। रानी ने चन्द्रचूड के बक्ष स्थल पर हाथ फेरते हुए कहा कि तुमने एकवार मुझसे पूछा था कि मैं तुमसे कितना प्यार करती हूॅं

हाॅं , हमने आप से पूछा था, चन्द्रचूड ने कहा।

आज तुम्हारे प्रष्न का उत्तर मिलेगा और कहकर फल अनंगसेना ने चन्द्रचूड को दे दिया

चन्द्रचूड:- यह क्या है ?

अनंगसेना:- यह आयुवद्र्वक फल है, इस फल को खाने वाला व्यक्ति निष्चित रूप से सौ साल तक जिन्दा रहता है और हमेषा जवान बना रहता है। इसे राजा ने मुझे दिया है। यह फल खा लो प्रियतम और सौ वर्षो तक युवा रहकर रमण करो। अब तो तुम्हे अपने प्रष्न का उत्तर मिल गया होगा। चन्द्रचूड ने स्नान के बाद खायेंगे कहकर फल को रख लिया और दोनो काम बासना में लिप्त हो गये काम वासना के षान्ति के पष्चात गुप्त मार्ग से वह बाहर चला गया। चन्द्रचूड अपने कमरे में जाकर आराम कर रहा था कि उसी समय गणिका रूपलेखा का संदेष आया वह भी चन्द्रचूड पर मोहित थी। रूपलेखा के रूप लावण्य ने चन्द्रचूड को दास बना लिया था। वह फल लेकर रूपलेखा के पास गया। वह पहले से ही सज सॅवर कर उसका इन्तजार कर रही थी। वह दौड़कर आलिंगनवद्ध हो गयी। चन्द्रचूड ने उसके अधरों का चुम्बन लेते हुए कहा:- प्रिये आज तक हमने तुमको कुछ भी नहीं दिया, जबकि तुमने हमेषा ही मुझे अपने प्यार का उपहार दिया है। आज मैं तुम्हें पहला अनमोल उपहार दे रहा हूॅं। वह फल उसे दे दिया।

रूपलेखा:- यह क्या है ?

चन्द्रचूड:- यह आयुवर्धक फल है। इसको खाने वाला निष्चित रूप से षतायु को प्राप्त करेगा। तुम्हारा रूप यौबन मूल्यवान है। तुम इस आयुवर्धक फल को खाकर षतायु को प्राप्त करो। वह फल कुरूप और भेंड़ा था उसका मन उसके रूप को देखकर ही विदक गया। परंतु प्रकट नहीं होने दिया और फल को रख लिया। राजा भर्तृहरि उस रूपलेखा पर आषक्त थे और गणिका (वेष्या) के साथ प्रसंग के कारण बदनाम भी थे। भर्तृहरि का संदेष आया कि आज अपरान्ह राजा रूपलेखा के पास आ रहे है। रूपलेखा सज संवर कर सौन्दर्य की प्रतिमूर्ति बन गयी और एक टक उनका इन्तजार करने लगी। एक राजा का एक तुच्छ गणिका के प्रति आसक्त होना उसके लिए गर्व को बात थी। इस प्रेम प्रसंग से उसके अहमियत में वृद्धि हो गयी थी। वह मात्र राजा का ही बन कर रहना चाहती थी। क्योंकि अन्य सम्मानित पुरूश उसके देह को ष्वान की तरह चाटते और नोचते थे। वह राजा को खुष करने के लिए राजा को वह फल देना चाहती थी। उसे यह विष्वास था कि वह फल राजा को देकर उनका विष्वास पात्र बन सकती है उसके प्रेयसी का दर्जा पा सकती है।

राजा ने आते ही कहा:- आज बहुत ही सुन्दर दिख रही हो प्रिये ?

रूपलेखा:- यह मेरा अहो भाग्य है कहकर उनके आगोसों में समाते हुए।

पुनः बोली:- प्राणेष्वर आज में आप को एक अदभुत उपहार दूॅंगी।

राजा:- उपहार ! राजा आष्चर्य में पड़ गये।

रूपलेखा:- हाॅं, एक अद्भुत तथा अनमोल उपहार।

राजा:- प्रिये, तुम्हारे रूप से बढकर हमारे लिए और क्या उपहार हो सकता है।

रूपलेखा:- हाॅं आज मैं आप को ऐसा फल दूॅंगी जिसके खाने से आप षतायु को प्राप्त करेगें।

रूपलेखा के अधरों का रसपान कर रहे राजा भर्तृहरि फल नाम सुनकर काॅंप उठे।

सहसा बोल पडे:- आयुर्वधक फल ?

रूपलेखा:- हाॅं , प्राणेष्वर।

राजा सहसा रूपलेखा से अलग हो गये और महात्मा द्वारा दिये गये फल का स्मरण कर के ध्यानलीन हो गये। इसी बीच वह फल रूपलेखा ने उनके हाथ में रख दिया और बोली प्रियवर बिलम्ब न करों मुझे स्वर्गीय आनन्द में डुबा दो। राजा को अपनी तरफ खीचना चाहा। परंतु राजा आकाष से गिरे पक्षी की भांति षिथिल हो गये और उनकी सारी उत्तेजना षांत हो गयी।

राजा:- यह आयुवर्धक फल तुझे किसने दिया और तुम्हारे पास कैसे आया ?

रूपलेखा राजा के अप्रत्याषित रूख को देखकर घबड़ा गयी।

राजा:- बताओं, तुझे कौन दे गया यह फल ? राजा कभी फल को देखते तो कभी रूपलेखा को  देखते रहे और उनका षरीर गुस्से से थर-थर काॅंपने लगा।

पुनः राजा:- बताती क्यों नहीं ? कौन दे गया तुझे यह फल ?

रूपलेखा:- महाराज, मैं ठहरी एक गणिका। मेरे पास बहुत से पुरूष आते रहते है राजा का ऐसा रौद्र रूप रूपलेखा ने कभी नहीं देखा था। हमेषा रात्रि क्रीडा में डूबे रहने वाले राजा को अन्य कोई बात सुझती ही नहीं थी। रूपलेखा भयाक्रांत हो गयी।

राजा:- तुम्हें कौन दे गया यह फल बोलो ? अन्यथा तुम्हारा जीवन लीला इसी वक्त समाप्त कर दूॅगा।

रूपलेखा:- भयभीत होकर .............चन्द्रचूड

चन्द्रचूड ? मेरा सारथी चन्द्रचूड ?

हाॅ राजन, आप इतने क्रोधित क्यों हैं ? आप जिस निमित्त यहाॅं आये है उसे विस्मृत क्यों कर गये ? रूपलेखा ने उन्हे अपने आगोषों में लेना चाहा परंतु राजा उसे झटकते हुए

बाहर चले गये और फल भी साथ लेते गये। महल  में आते ही राजा ने चन्द्रचूड को तुरंत बुलाने का आदेष दिया और सन्देष बाहक ने तुरंत बुला कर लाया।

राजा:- चन्द्रचूड ?

चन्द्रचूड:- जी महाराज

राजा:- तुम रूपलेखा के पास गये थे ?

राजा का रौद्र रूप देखकर चन्द्रचूड को झूठ बोलने का दुस्साहस नहीं हुआ और

बोला:- जी महाराज।

राजा:- तुमने उसे उपहार में कुछ दिया है ? राजा के हाथ में फल देखकर उसके पैरों तले से जमीन खिसक गयी।

चन्द्रचूड:- जी महाराज हमने उसको एक फल दिया है।

राजा:- वह फल तुमको कहा से मिला ?

चन्द्रचूड मूर्तवत खडा रहा। उसकी जान खतरे में पड़ गयी, वह कैसे कहे कि रानी अनंगसेना ने दिया था।

राजा:- सत्य बोलोगे तो तुम्हारे प्राण की रक्षा होगी अन्यथा प्राण जाना सुनिष्चित है यह भी जान लो मुझे वास्तविकता का ज्ञान हो चुका है बस केवल इतना ही निर्णय लेना है कि सत्यवादी कौन है। पुनः राजा ने प्रष्न किया कि जबाव दो कि यह फल तुमको कहाॅं से मिला ?

रानी अंनगसेना से:- चन्द्रचूड ने कहा - क्या उससे तुम्हारे अबैध सम्बंध है ? बह मूर्तवत् नतमस्तक खडा रहा।

राजा ने क्रोधित होकर:- इसी समय राज्य से बाहर चले जाने का आदेष चन्द्रचूड को दिया। चन्द्रचूड जान बचे तो लाखों पाये विचार करते हुए राज्य सीमा से बाहर चला गया। राजा तत्काल रानी अनंगसेना के कक्ष में प्रवेष किये। राजा के अप्रत्याषित आगमन से रानी आष्चर्यचकित हो गयी। रानी राजा से कुछ पूछती कि इसके पहले राजा ने बही फल रानी के मुख पर दे मारा।

लो, प्राण प्रिये यह षतायु फल। यह फल तुम्हारे प्रेमी चन्द्रचूड ने दिया है। यह तुम्हारा मेरे प्रति कितना प्रगाढ़ प्रेम है इसका सबूत है और सारथि के साथ तेरे अवैध संबंध का प्रमाण भी है। यह तुम्हारे इस कृत्य पर तुझे धिक्कार है। राजा फल फेंक कर चले गये। रानी का राजा के प्रति अगाध प्रेम व पवित्रता होने के नाटक का पोल खुल चका था। रानी लज्जित और भयाक्रान्त हो उठी। उन्होने अपने ऊपर तेल छिड़क कर आत्मदाह कर लिया। आग की लपटों को देखकर लोग उधर दौड़ पडे़। परंतु रानी अनंगसेना का अंत हो चुका था। राजा को इसकी सूचना दी गयी। राजा ने यह समझ लिया की रानी अनंगसेना ने अपने पतिव्रता होने के चरित्र के पर्दाफाष होने के कारण आत्म हत्या कर लिया है। राजा औरत का यह दोहरा चरित्र देखकर असमंजस में पड गये। एक तरफ उनके प्राणों से प्यारी रानी अनंगसेना का पतिव्रता होने का त्रिया चरित्र दुसरी तरफ गणिका होते हुए भी राजा के प्रति समर्पित होने वाली रूपलेखा का चरित्र था। राजा बहुत व्यथित हो उठे। उन्हे समझाने के लिए रूपलेखा भी राजा पास आयी। परंतु कोई प्रभाव नहीं। रानी पिंगला ने भी राजा पर अपने प्यार उड़ेल डाले। परंतु राजा की उदासी नहीं गयी। रानी पिंगला ने राजा को मन बहलाने के लिए जंगल में षिकार खेलने का सुझाव दिया। राजा ने रानी पिंगला के सुझाव को स्वीकार किया। षिकार खेलने जाने लगे। एक दिन उनके साथी षिकारी ने एक मृग  को मार डाला। मृग बाॅंण लगते ही गिर कर मर गया परंतु षिकारी भी चीख कर गिरा और वही मर गया क्योंकि उसके पैर के नीचे सर्प दब जाने के कारण सर्प ने उसे डस लिया था। उघर मृगी दौड़ते हुए मृग के पास आयी। मृत मृग को देखकर अपने प्रांगण त्याग दिय। मृत षिकारी को उसके घर लाया गया। उसकी पत्नी भी उसी के साथ सती हो गयी। यह पूरी घटना भर्तृहरि ने रानी पिंगला को बताया। रानी हंस पड़ी और बोली इसमें आष्चर्य क्यों हो गया। प्रियतम नारी का तो कर्तव्य है कि वह अपने पति के साथ सती हो जाय।

राजा ने मुस्कराते हुए कहा:- क्या मेरी मृत्यु के बाद तुम भी ऐसा ही करोगी ?

प्राण प्रिय ऐसा अषुभ न कहें भगवान न करे ऐसी नौबत आये और राजा से लिपट गयाी। रानी अनंगसेना  के विष्वघात ने राजा को तोड़ कर रख दिया था और उन्हें रानी पिंगला के ऊपर से भी विष्वास उठ गया था।

एक दिन राजा जंगल में टहलने गये। जंगल में गेरूआ वस्त्रघाटी एक सन्यासी दिखाई दिये। राजा उनके समीप गये। राजा ने श्रृद्धा से सर झुका कर प्रणाम किया सन्यासी ने भी आषिर्वाद दिया।

राजा ने प्रष्न कियाः- महात्मनः! स्त्री क्या है ?

सन्यासी हंस पड़े बोले:- राजन, स्त्री सब कुछ है, वह बहन है, वह पत्नी है, वह माॅ है, वह पतिव्रता है, गणिका (वेष्या है) म्लेच्छ है, उसमें सब कुछ है। श्रृंगार है, वैराग्य है, नीति भी है, क्या नहीं है उसमें ? वह स्वर्गीय आनंद का खजाना है तो दुखों का भण्डार भी।

राजा सन्यासी के षब्दों का श्रवण कर गम्भीर हो उठे और वहीं से महल को लौट आये। महल में आने पर ज्ञात हुआ कि एक व्यक्ति को सिंह ने मार डाला है उसकी रक्त रंजित लाष झाड़ी में पड़ी है। राजा भी देखने गये। उन्होने अपने वस्त्र को उस व्यक्ति के खून में सान दिया और अपने संदेष वाहक को बोले की यह वस्त्र रानी पिंगला को दिखाकर बता देना कि राजा को सिंह ने मार डाला। ध्यान रहे कि यह रहस्य गोपनीय रहे। राजा के इस व्यवहार को देखकर सभी उपस्थित जन अचंभित हो गये। फिर भी उनके आदेष का पालन हुआ। वह दूत राजा का रक्त रंजित वस्त्र लेकर रानी पिंगला के पास गया और संदेष कह डाला। रानी राजा का रक्त रंजित वस्त देखकर मूर्छित होकर गिर गयी। उनके मुख से ‘‘ हाय प्राण नाथ‘‘ का एक स्वर निकला कि उसी के साथ उनके प्राण पखेरू उड़ गये। रानी की मृत्यु से महल में हा-हाकार मच गया। इसकी सूचना राजा को मिली उन्हे विष्वास न हुआ और बोले:- क्या पिंगला ने सच मुच प्राण त्याग दिये ?

दूत:- हाॅ राजन।

   राजा बहुत दुखी हुए और अब योगी बनने का संकल्प ले लिया। सन्यासी की बाते उनके मस्तिश्क में गूंज उठी। नारी श्रृंगार है, नारी बैराग है और नीति भी। उनको विवेकपूर्ण आत्मबोध हुआ विशय भोग इच्छा से निवृत्ति हो गयी और परम षान्तिमय सुख की तलाष में चल पडे़। राज परिवार में उन्हे योगी होने से रोकना चाहा। परंतु उन्होने कहा:- न तो मेरे मन में अब कामिनी के प्रति राग है, और न तो राज्य सुख की अपेक्षा है। अब ज्ञान ही हमारा खजाना है और मन व पवन हमारे हाथी और घोडे है। राजा ने अपने राजसी वस्त्र को उतार फंेका और सन्यासी का वेष धारण करके वैरागी हो गये। राजा भर्तृहरि जंगल-जंगल, पर्वत-पर्वत घूमते रहे, कही भी उनके अषांत मन को षांति नहीं मिली।

   ‘‘अलख निरंजन राजा भर्तृहरि को एक गम्भीर स्वर सुनायी दिया। राजा मुडकर देखे तो सामने एक सिद्ध

महात्मा दिखायी दिये। राजा ने महात्मा को प्रणाम किया। महात्मा ने उन्हे आर्षिवाद दिया। ये महात्मा दिव्य पुरूष योगी गुरू गोरखनाथ जी थे।

तूॅ भर्तृहरि है ? - महात्मा पूछे

हाॅं, महात्मा जी - भर्तृहरि बोले

उठो, मेरे साथ चलो। भर्तृहरि उनके साथ चल दिये। गुरू गोरखनाथ ने भर्तृहरि को अपना षिष्य बनाया, योग साधना की षिक्षा दी और भर्तृहरि के ज्ञान चक्षु को खोल दिया। योगिराज भर्तृहरि ने अपने आप को धिक्कारा की हमने विषयों को नहीं भोगा वल्कि विषयों ने हमें ही भोग डाला। हमने तप नहीं किया वल्कि तपों ने ही तप डाला। काल का अंत नहीं हुआ उसी ने हमारा अंत कर डाला। गुरू गोरखनाथ का सानिध्य पाकर भर्तृहरि महा विलासी से जीवन मुक्त परमार्थ योगी बन गये। उनकी परम सुन्दर रानियां छूट गयी तो विरक्ति ही उनकी जीवन संगिनी बन गयी। उन्होने भगवान षिव के चरणों में अपने आप को समर्पित कर दिया। उन्होने आत्म साक्षात्कार का पूर्ण परमानंद पद भी प्राप्त किया और वैराग के माध्यम से अमर पद भी प्राप्त किये। योगिराज भर्तृहरि नव नाथों में से एक माने गये हैं। उधर राजा भर्तृहरि के योगी हो जाने पर विक्रमादित्य उज्जैन के राजा हुए और उन्होने अपने साम्राज्य को विस्तृत किया।

4. पुस्तक नाथ सिद्ध चरितामृत के पृ.108 के अनुसार उ.प्र. के जनपद गाजीपुर के ग्राम भित्तरी (भर्तृहरि का प्राकृत रूप) को भर्तृहरि का तपोभूमि कहा जाता है। उन्होने उज्जैनी से आकर यहां तप किया था। उनकी गुफा  गाजीपुर में होने की बात भी कही जाती है उ.प्र. के चुनार के किले में इनका मंदिर तपः स्थल के रूप में विधमान है।

(बी)महाराज मानसिंह की पुस्तक श्री नाथ तीर्थावली के अनुसार राजस्थान के चित्तौड़ दुर्ग से 36 कि.मी. दूर पुरा नामक ग्राम है। यहां भर्तृहरि ने अत्यंत दारूण तप किया था। और विध्न के लिए आकाष से गिरती षिला को कनिष्ठा उंगली पर छाते के समान धारण किया था यहां षिवरात्रि को मेला लगता है। यह भी प्रचलित है कि पंजाब के सरगोथा जनपद के सिद्ध करना पहाड़ी पर उन्होने समाधि ली थी।

(सी)पुस्तक गोरखानाथ एण्ड दी कनफटा योगी के अनुसार पुराने उज्जैन में एक भर्तृहरि गुफा है जिसमें गुरू गोरखनाथ की मूर्ति के साथ योगी गोपीचंद की मूर्ति प्रतिष्ठित है नीचे की गुफा मत्स्येन्द्र नाथ की स्मृति के रूप में दर्षनीय है यह भी कहा जाता है कि इस गुफा से वाराणसी तक सुरंग बना था।

   सर्व सम्मत मत यह है कि भर्तृहरि का समाधि स्थल राजस्थान के अलवर राज्य के सघन वन में आज भी विद्यमान है। इसके सातवे दरवाजे पर एक अखण्ड ज्योति जलता रहता है। उसे भर्तृहरि का ज्योति कहा जाता है।इसके अतरिक्त तमाम लोकोक्तियाॅ जनमानस में प्रचलित है।

साहित्य मर्मज्ञ योगी भर्तृहरि:-  योगी भर्तृहरि उच्च कोटि के नाथ सिद्ध योगी के साथ-साथ संस्कृत के प्रचण्ड  विद्वान थे। उन्होने भर्तृहरि षास्त्र पातन्जल भाषा टीका तथा व्याकरण षास्त्र एवं वाक्यपदीय प्रसिद्ध ग्रन्थों की रचना की थी। उन्होने संस्कृत में एक खण्ड काव्य भी लिखा था। जिसमें तीन षतक, श्रृंगार षतक, वैराग्य षतक तथा नीति षतक का उल्लेख है। इसीलिए उस खण्ड काव्य का नाम षतकलयम दिया गया है। इसके तीनों खण्ड संस्कृत साहित्य  की एक अनुपम कृति है। प्रसिद्ध चीनी यात्री हवेग सांग ने सातॅवी षदी में जब नालन्दा विष्व विद्यालय में कुछ समय विताया था। उसनें अपने यात्रा विवरण में लिखा है। कि उस समय भर्तृहरि षास्त्र पातन्जल भाषा टीका तथा वाक्यपदीय नालन्दा विष्व विद्यालय में पढ़ाया जाता था।

श्रृंगार षतक:- राजा भर्तृहरि अपने प्रारंभिक जीवन में रस भोगी व विलास प्रिय थे। उन्होने अपने विलासी जीवन में अनुभवों को 100 लोकों मे प्रकट किया है।

नीति षतक:- महा विलासी राजा भर्तृहरि अपने प्रिय रानी अनंगसेना के विष्वासघात तथा दूसरी रानी पिंगला का अपने पति के लिए आत्मोसर्ग के कारण वैरागी होने के अपने कटु अनुभवों को 100 ष्लोको में व्यक्त किया है।

वैराग षतक:- इसमें भोगी से योगी बने भर्तृहरि ने पाप-पुण्य, सत्य-असत्य, न्याय-अन्याय को बड़े ही मार्मिक ढंग से 100 ष्लोकों में प्रस्तुत किया है। यह उनकी अनुपम निधि है।

            राजा सोहनाग (दूसरी सदी)-ःसोहनाग देवरिया

(लेखक-ःरामचन्द्र राव, ग्राम-खैराबाद, पोस्ट-ःपरषुरामपुर जिला-गोरखपुर उ.प्र. 273152)

     देवरिया जनपद से 36 किलोमीटर दक्षिण लार रोड मार्ग पर सलेमपुर और लार के मध्य मुख्य रोड से पष्चिम दिषा में 2 किलोमीटर दूरी पर एक सोहनाग नामक गाँव है। सोहनाग ग्राम के पष्चिम एक विस्तृत तालाब है, जिसेा क्षेत्रफल लगभग पाँच एकड़ होगा। इस ताल के दक्षिणी पष्चिमी तट पर एक विषाल टीला है। टीला पुरानी ईंटों से भरा पड़ा है। लगभग 6 एकड़ में विस्तृत इस टीले की ऊँचाई धरातल से लगभग 30 फीट ऊँचा है। यह टीला किसी राजा की प्राचीन राजधानी अर्थात गढ़ी प्रतीत होता है। टीले के पष्चिमी भाग पर षिव जी का एक प्राचीन मंदिर है। वहीं बगल में एक छोटा सा मंदिर है ,जिसके अन्दर षंकर, विष्णु और परषुराम की दुर्लभ मूर्तियाँ रखी हुई हैं। जिस समय मैं वहाँ षोधकार्य हेतु गया था उस समय परषुराम जी की मूर्ति चोरी हो गई थी। चोर पकड़ लिए गये थे, परन्तु मूर्ति अभी भी पुलिस के कब्जे में सुरक्षित रखी गई थी। तालाब के पूर्वोत्तर दिषा में विष्णु तथा हनुमान जी का एक मंदिर स्थित है। तालाब के दक्षिणी पाष्र्व पर तालाब तथा सड़क के मध्य नागभारषिव का एक मंदिर है। मंदिर तो नया लगता है। परन्तु उसके गर्भगृह में रखी गई षिव की मूर्ति तथा षिवलिंग प्राचीन लगता है। यहाँ जनश्रुतियाँ प्रचलित हैं कि यहाँ नागभारषिवों अर्थात वर्तमान राजभरों का एक किला था और उन्होंने ही किले के अन्दर टीले पर तथा तालाब के दक्षिण पूर्वी छोर पर षंकर जी का भव्य मंदिर बनवाया था। लोग कहते हैं कि राजभ्रों के षासन सत्ता चले जाने के बहुत बाद मूर्तिभंजक औरंगजेब ने मन्दिरों में स्थापित मूर्तियों को तोड़ा ही नहीं बल्कि षिवालयों और मंदिरों को ध्वस्त भी करा दिया था। डरे सहमें हिन्दुओं ने मुस्लिम आक्रमणकारियों के क्रूरता से आतंकित होकर विरोध न कर सके और हिन्दुओं के सामने ही विषाल गगनचुम्बी षिवालय तथा अन्य मंदिर धराषायी कर दिये गये। यह दृष देखकर हिन्दुओं की आँखों से अश्रुधारा बह चली परन्तु सामने मौत देखकर निरीह बने रहे। यहाँ का अस्त-व्यस्त टीला आज भी इसकी गवाही दे रहा है।

     बगल में ग्राम इन्द्रौली है। वहाँ पर भी लगभग एक एकड़ में पुरानी ईटों से भरा पड़ा एक टीला है। परन्तु वर्तमान में इस टीले पर कोई मंदिर नहीं है। मुझे यह टीला किसी राजा का किला प्रतीत होता है। किम्बदन्ती है कि दूसरी सदी में जब सम्पूर्ण उत्तर भारत में नागभारषिवों अर्थात वर्तमान राजभरों ने बौद्धधर्मी कुषाण षासकों को भारत से खदेड़कर पुनः भारत में हिन्दू धर्म की स्थापना किया था, जिसके नायक हिन्दू धर्म रक्षक नागभारषिव षासक महाराजा वीरसेन नाग थे। दस समय पूरे उत्तर भारत में नागभारषिवों का एकक्षत्र षासन स्थापित हो गया था। महाराजा वीरसेन के सेनापति सोहन नाग ने इन्द्रौली से कुषाणों को खदेड़कर वहाँ पर अपनी सत्ता कायम किया था। सोहन नाग ने इन्द्रौली के निकट पष्चिमोत्तर दिषा में एक नये विषाल कोट का निर्माण करवाया था। धार्मिक प्रवृत्ति के कारण हिन्दु धर्म के प्रचार प्रसार तथा पूजा अर्चना के लिए कई षिवालयों एवं अन्य मंदिरों का निर्माण करवाया, जिसमें नागभारषिव का मंदिर प्रमुख मंदिर था। स्नानार्थ एक बहुत बड़े मंदिर का निर्माण करवाया था। राजा सोहन इस मंदिर में बिना पूजा अर्चना किए अन्न-जल ग्रहण नहीं करते थे। प्रत्येक षिवरात्रि को यहाँ विषाल मेला लगता था जो आज भी लगता है। परन्तु वर्तमान में तालाब के तट पर पूर्णिमा को मेला लगने का प्रचलन होता जा रहा है। लहाँ जनश्रुतियां प्रचलित हैं कि राजा सोहननाग ने अपने साथ आये सैनिकों के परिवार जनों तथा अपने सेवकों के लिए किले के पूरब एक गाँव बसाया जो कालान्तर में सोहनाग कहलाया। राजा सोहनाग का किला आज भी खण्डहरों के रूप में विद्यमान है। कहते हैं कि दसवीं सदी तक राजा सोहनाग के वंषजों का सोहनाग पर षासन रहा है। परन्तु धीरे धीरे षासन के साथ साथ नागभारषिव षासकों के स्मृति चिन्ह भी धराषायी हो गए हैं। इस स्थान पर राजा सोहन नाग एवं उनके वंषजों का कोई स्मृति चिन्ह अवषेष नहीं रह गए है। राजभरों का अपने पूर्वज के स्मृति चिन्हों के प्रति अति उदासीनता ने उनके गौरवषाली इतिहास को जनमानस में विस्मृत कर दिया। वर्तमान में राजा सोहन के स्मृति स्थल को परषुराम धाम का नाम दे दिया गया है। इस कृत्य को देखकर क्षेत्र के कुछ राजभरों को अपने गौरवषाली इतिहास तथा अपने आराध्यदेव नागभारषिव मंदिर के प्रति श्रद्धा जगी। अपने इतिहास के प्रति जागरूक राजभरों ने क्षेत्र के राजभरों के सहयोग से पुनः एक नागभारषिव मंदिर का निर्माण करवाकर राजा सोहन नाग के स्मृतियों को मानस पटल से विस्मृत होने से बचाने का प्रयत्न किया है। इस स्थान पर प्रत्येक वर्ष षिव रात्रि को विषाल मेला लगता है और क्षेत्र की जनता प्रत्येक षुक्रवार को एकत्रित होकर षिव के गणों का बखान करके षिव चर्चा का कार्यक्रम करती है। इस नागभारषिव के मंदिर को बनवाने में निम्नलिखित राजभर समाज सेवियों का विषेष योगदान रहा है। (1) श्री यदुनन्दनप्रसाद दरोगा ग्राम बनजरिया (2) श्री रामचन्दर राजभर ग्राम डैनी (3) श्री फागूलाल राजभर ग्राम चकिया (4) श्री षम्भुराम ग्राम सरदहा (5)श्री भोला राजभर ग्राम मंझवलिया (6) श्री वंषी राजभर ग्राम खैरवनिया (7) श्री लल्लन राजभर ग्राम लार (8) श्री संजय राजभर ग्राम पिपरा सरवन। इन समाज सेवियों ने मंदिर की देखरेख हेतु ग्राम धनौतीराय निवासी श्री षिवरतन राजभर उर्फ सूरदास को पुजारी नियुक्त किया है। परन्तु मंदिर के देखरेख हेतु आर्थिक सहयोग न मिलने के कारण यह मंदिर भी उपेक्षित है। क्योंकि सूरदास वास्तव में सूरदास है। उन्हें दिखाई देता नहीं इसलिए स्वयं कुछ नहीं कर सकते और राजभर समाज सहयोग करता नहीं। यहाँ पर राजभरों के षासन के विषय में इतिहासकार श्री राजेन्द्र राय की ऐतिहासिक पुस्तक ‘‘ अतीत के आइने में पूर्वान्चल’’ का षीर्षक देवरिया का नामकरण के कुछ अंष का अवलोकन करें-ः

देवरिया का नामकरण-ः प्रोफेसर सिन्हा को खैराडीह तक खुदायी में जो कमरे या अन्य सामग्री मिली है उससे स्पश्ट संकेत मिलता है कि यहाँ कभी बौद्ध बिहार विद्यमान थे। बौद्धकाल के बाद इस क्षेत्र पर भर राजाओं का षासन रहा है।,जो भवन निर्माण कला में बड़ी रुचि लेते थे, और वे इसके जानकार भी थे। इस क्षेत्र की इन्द्रौली (सोहनाग) में भरों की गढ़ी थी। यहाँ खुदायी करने पर उस समय की ईंटें मिलती हैं। (पुस्तक-अतीत के आइने में पूर्वांचल-लेखक-श्री राजेन्द्र राय एमयएय ,पी-एचडी, पृ. 262, प्रकाषक-आनन्द साहित्य प्रकाषन बस्ती)

किम्बदन्ती है कि दषवीं सदी के पूर्वार्द्ध में यहाँ से राजभरों का षासन समाप्त हो गया था। परन्तु ग्यारहवीं सदी के उत्तरार्द्ध में श्रावस्ती सम्राट महाराजा सुहेलदेव के लघु भ्राता सहरदेव ने यहाँ पर पुनः अपनी सत्ता कायम की थी। परन्तु, राजा सहरदेव के बाद उनके उत्तराधिकारी मुस्लिम आक्रांताओं के सामने टिक न सके। स्थानीय राजपूतों ने मुस्लिम आक्रांताओं से मिलकर यहाँ से राजभरों का सत्ता समाप्त कराकर स्वयं षासक बन बैठे। ये राजपूत षासक मुस्लिम राजाओं के आधीन रहकर वार्षिक कर देने की षर्त पर षासक बनाये गये।

राजा सोहननाग तथा उनके वंषजों के विषय में षोध की आवष्यकता है। राजभरों को अपने पूर्वजों के इतिहास के प्रति जागरूक होने की आवष्यकता है। वर्तमान सरकारों द्वारा जो भी षोधकार्य कराया जा रहा है, उसमें षोधकर्ताओं को एक निष्चित उद्देष्य देकर उस उद्देष्य की पूर्ति के निमित्त षोधकार्य कराया जा रहा है। उदाहरण स्वरूप श्रावस्ती सम्राट महाराजा सुहेलदेव के किले व खण्डहरों को मुख्यमंत्री सुश्री मायावती के षासनकाल में षासन के निर्देषानुसार उन्हें बौद्ध स्तूप घोषित कर दिया गया और उन स्थानों पर बौद्ध मंदिर आदि बनवा दिया गया है। आष्चर्य तो तब हुआ जब उन षोधकर्ताओं से स्थानीय लोगों ने पूछा कि जब 700 ईस्वी पूर्व के बौद्ध मंदिर के खण्डहर आज भी श्रावस्ती में मौजूद हैं और आपको उस समय की ईंटें या अन्य बौद्ध चिन्ह मिल रहे हैं तो ग्यारहवीं सदी के नायक महाराजा सुहेलदेव का किला व उनके महल के खण्डहर आप षोधकर्ताओं को क्यों नहीं मिल रहे हैं। इस प्रष्न पर षोधकर्ताओं की बोलती बन्द हो गई थी। वास्तव में राजभरों का गौरवषाली इतिहास लूटकर उसका बौद्धीकरण किया गया।

एक और किम्बदन्ती जो सोहनाग से सम्बंधित है और हिन्दुस्तान समाचार पत्र में प्रकाषित हुआ था का अवलोकन करें।-ः

‘‘नेपाल के सोहन राजा पैदल ही काषी जा रहे थे। उन्हें कुष्ट रोग था। सोहनाग पहुँचे तो उन्हें षौच लग गया। उनके सैनिक पानी की तलाष करने लगे। मंदिर के बगल में जंगल में छोटे से गढ़े में पानी मिला। राजा ने उस पानी से हाथ धोयातो कुश्ष्ट रोग ठीक हो गया। राजा ने उस स्थान की खुदाई करवाई और पोखरे का निर्माण कराया तो मूर्ति मिली (समाचारपत्र हिन्दुस्तान षीर्षक महादहा हिन्दुस्तान संवाद पृ. 4 , 17 दिसम्बर 2012

(1) इस समाचार के माध्यम से इस ग्राम के नामकरण का सम्बंध नेपाल नरेष सोहन से जोड़ने का शणयंत्र किया गया है। संयोग से जिस समय कथित नेपाल नरेष सोहन का इस स्थान पर आना दिखाया गया है उन्हीं के अनुसार उस समय इस ग्राम का नाम सोहनाग था। अतः नेपाल नरेष सोहन के नाम पर इस गाँव का नाम सोहनाग पड़ने का कोई सवाल ही नहीं है। वैसे भी नेपाल राजा की वंषावली में सोहन नाम के राजा का जिक्र नहीं है।

(2) प्राचीनकाल में मंदिर बनाते समय स्नान करके पूजा अर्चना करने के लिए मंदिर के बगल में तालाब या कँुए का निर्माण कराया जाता था। जब राजा सोहन (नेपाल नरेष सोहनाग) आये तो उस समय वहाँ मंदिर था तो निष्चित रूप से वहाँ तालाब या कुआँ रहा होगा। जब गहरे कुएं और गहरे तथा बड़े तालाब में पाने नहीं था तो छोटे से गड्ढे में पानी मिलना अविष्वसनीय लगता है।

(3) मुझे लगता है कि राजा सोहननाग के इतिहास को जनमानस में विस्मृत करके इस स्थान को परषुराम धाम नाम देने का एक सुनियोजित साजिष किया गया है। उक्त मनगढंत कहानी के माध्यम से परषुराम की मूर्ति को चमत्कारी मूर्ति साबित करके इस स्थान को परषराम धाम नाम देने की साजिष की गई है।

(4) वैसे भी धार्मिक स्थलों को चमत्कारी घटनाओं से जोड़ना भारतीय इतिहासकारों की फितरत रही है।

       राजा षिव विलास-8 वीं सदी (मझौलीराज देवरिया)

        लेखक-रामचन्द्र राव ,ग्राम-खैराबाद,पोस्ट-परषुरामपुर, जिला-गोरखपुर उ.प्र.

          देवरिया जनपद 29 अंष से 29 अंष 35 कला तक उत्तरी अक्षांष  तथा 83 अंष 33 कला से 84 अंष पूर्वी देषान्तर में फैला है। देवरिया षहर से लगभग 30 किलोमीटर दक्षिण सलेमपुर तहसील है। बूढ़ी गण्डक के पष्चिमी तट पर लगभग दो किलोमीटर पर मझौलीराज स्थित है। सलेमपुर से भाटपाररानी मार्ग पर नदी से लगभग तीन फर्लांग पर बूढ़ी गण्डक के बायें तट पर भागड़ा मंदिर से लगभग साढ़े तीन फर्लांग पर बूढ़ी गण्डक के बायें तट पर मझौली राज स्थित है। भागड़ा मंदिर बहुत प्रचीन मंदिर है। वर्तमान में इस मंदिर के सटे ही दायें दुर्गा मंदिर तथा बायें सटे ही सरस्वती का मंदिर इस मंदिर की भव्यता में चार चाँद लगा दिया है। जहाँ एक ही स्थान पर एक ही साथ तीन तीन देवियों का मंदिर हो उस मंदिर की ख्याति होना स्वाभाविक ही है। जनश्रुतियाँ हैं कि यहाँ पर पहले मात्र भागड़ा देवी का मंदिर था। परन्तु क्षेत्र के श्रद्धालु जनता तथा मझौली स्टेट के सहयोग से भागड़ा मंदिर के बांयें सरस्वती देवी का मंदिर तथा दायें माता दुर्गा जी का मंदिर बनवा दिया गया। तीनों मंदिरों में अलग अलग तीनों देवियों की अत्यंत सुन्दर व मनमोहक मूर्तियां स्थापित हैं। श्रद्धालुओं की मनोकामना पूरी होने के कारण इस मंदिर के प्रति क्षेत्रीय जनता में उत्तरोत्तर श्रद्धा की वृद्धि होती रही है।

       इस भागड़ा मंदिर के अतीत में जाने पर इस मंदिर का इतिहास चैंकाया भी और सुखद अनुभूति भी कराया। क्योंकि ऐतिहासिक साक्ष्यों के अध्ययन व अवलोकन करने से राजभरों का गौरवषाली इतिहास उभरकर सामने आता है ,जो टूटी हुई लड़ियों की तरह विखरा पड़ा है। जिसे एक धागे में पिरोने का प्रयास किया जा रहा है। देवरिया जनपद के अन्तर्गत मझौली स्टेट पूर्वान्चल में चर्चित स्टेट है। जहाँ पर विषेन वंषीय क्षत्रियों का षासन रहा है और वर्तमान में भी उनके वंषजों की हवेलियां अस्त व्यस्त दषा में मौजूद हैं। परन्तु मझौली में विषेनो का सत्ता कायम होने के पहले तथा बीच बीच में यहाँ राजभरों का षासन रहा है। 8 वीं सदी के मध्य यहाँपर राजभर राजा षिवविलास का षासन रहा है। यहाँ भरों का बहुत बड़ा किला/गढ़ था। भरों का गढ़ होने के कारण ही इस स्थान का नाम भर गढ़ा पड़ा। इस गढ़/किला के पास ही भरों की देवी का मंदिर था जो भरगढ़ा देवी का मंदिर कहलाता था। लेकिन कालान्तर में भरगढ़ा मंदिर का नाम भर गढ़ा से भागड़ा मंदिर हो गया।

       लोग कहते हैं कि यहाँ षिवविलास के षासन के पहले उनके पूर्वजों का षासन था। राजा षिवविलास दो भाई थे। छोटे भाई का नाम षिवबालक था। राजा बहुत ही धार्मिक प्रवृत्ति के थे। राजभर सदियों से षंकर जी को अपना आराध्यदेव मानते आ रहे हैं। षिव के परम भक्त होने के कारण ही इनका दूसरा नाम भारषिव भी कहा गया। षिव जी की अद्र्धांगिनी सती जी को देवी माँ के रूप में राजभर पूजते आये हैं। राजा षिवविलास अपने राज्य क्षेत्र में जगह जगह षिवालय तथा देवी मंदिर का निर्माण करवाये थे। इन्हीं मंदिरों में से एक भरगढ़ा देवी का मंदिर जो आज भी भरगढ़ा से बदलकर भागड़ा देवी मंदिर के नाम से ख्याति अर्जित कर भरों के गौरवषाली इतिहास को जनमानस के स्मृतियों में बनाये रखा है। यद्यपि भरगढ़ा मंदिर के दोनें तरफ दुर्गा व सरस्वती जी का मंदिर बनने से ऐसा लगा कि भरगढ़ा मंदिर की प्रसिद्धि पर ग्रहण लग जायेगा, परन्तु अगल बगल दो और देवियों के मंदिर बन जाने से भागड़ा मंदिर की ख्याति में चार चाँद लग गया। भरगढ़ा देवी को राजभर कुलदेवी के रूप में पूजते थे। नवरात्रि में यहाँ नौ दिनों तक श्रद्धालुओं का तांता लगा रहता है। और ,रामनवमी को विषाल मेला लगता है। लोग कहते हैं कि राजा षिवविलास इस मंदिर में नित्य पूजा अर्चना के बाद ही अन्न व जल ग्रहण करते थे। भरगढ़ा देवी का राजा षिवविलास पर विषेष कृपा थी। लोग कहते हैं कि देवी ने एक बार राजा को स्वप्न में कहा जा कि अगर इस राज-परिवार के लोग मांस मदिरा का सेवन करेंगे तो इस राज्य का पतन हो जायेगा।

       दूसरी सदी में नागभारषिवों ने कुषाणों को भारत से खदेड़कर यहाँ पुनःवैदिक धर्म स्थापित किया था। उसी समय सम्पूर्ण उत्तर भारत में भारषिवों का षासन स्थापित हो गया था। 7 वीं सदी में जब राजा हर्षवर्धन षासक हुआ तो उसने अपने षासनकाल में बौद्ध धर्म को बढ़ावा दिया। उस समय तमाम हिन्दू राजा व हिन्दू बौद्ध धर्म को स्वीकार किए। परन्तु सम्राट हर्षवर्धन की मृत्यु के पष्चात बौद्ध धर्म का हृास होने लगा। षंकराचार्य के समय 8 वीं सदी में तमाम हिन्दू राजा व हिन्दू पुनः हिन्दू धर्म में वापिस आ गये। उन्हें बौद्ध धर्म में दीक्षित कर उन नवीन क्षत्रियों को नया नाम राजपूत दिया गया। समय को पहचानते हुए इन नवीन राजपूतों ने अपने को संगठित करके षणयंत्र के माध्यम से तमाम राजाओं को सत्ताच्युत किया और पूर्वी उत्तरप्रदेष में अनेक स्थानों पर अपनी सत्ता कायम किया। राजा षिवविलास भी उसी शणयंत्र के षिकार हो गये।

       ककराडीह मऊ के राजा विष्वसेन ने अपनी सेना के साथ राजभर षासक षिवविलास के राज्य पर आक्रमण किया और कहा कि या तो युद्ध करें या आधीनता स्वीकार करके कर देना सुनिष्चित करें। राजा षिवविलास स्वाभिमानी पुरुष थे। उन्होंने राजा विष्वसेन से कहा कि -ः

‘‘स्वाभिमान न छोड़ा राजभरों ने ,सदा रही परिपाटी। देष के खातिर षहीद हुए,पर दिया न देष माटी।।’’

       युद्धभूमि में दोनों सेनाएं आमने सामने हो गईं। राजभर जाति बहुत लड़ाकू जाति थी। उनका नाम सुनते ही बड़े बड़े राजा उनसे युद्ध करने का अपना निर्णय बदलने को मजबूर हो जाते थे। अतः राजभर सैनिकों को देखकर राजा विष्वसेन की भी लड़ाई करने की हिम्मत नहीं पड़ी। अतः राजा विष्वसेन ने साजिष का सहारा लिया। राजा विष्वसेन ने कहा कि युद्धभूमि में दोनों तरफ से तमाम सैनिक मारे जायेंगे अतः अच्छा होगा कि हम दोनों मल्ल-युद्ध के माध्यम से निर्णय ले लें। अगर आप जीत जाते हैं तो हम वापिस चले जायेंगे और यदि आप हार जाते हैं तो आपको अपना राज्य हमें देना होगा। राजा षिवविलास राजा विष्वसेन के शणयंत्र को समझ न पाये कि यह राजा राजभर सैनिकों के युद्ध से भयभीत होकर यह निर्णय ले रहे हैं तथा जन-धन की हानि का एक बहाना मात्र है। राजा षिवविलास भी मल्ल-युद्ध के प्रख्यात पहलवान थे। राजा के षान्त स्वभाव ने खून खराबा से बचने के लिए मल्ल-युद्ध से निर्णय लेने के लिए उन्हें बाध्य कर दिया। उधर राजा विष्वसेन के गुप्तचरों नें राजा षिवविलास के मल्लयुद्ध के सारे दाव-पेंच की जानकारी उनके ही विष्वासपात्र पहलवानों से कर ली थी। उसी भरगढ़ा देवी मंदिर परिसर में बने अखाड़े में दोनों राजाओं का मल्लयुद्ध हुआ। राजा षिवविलास अपने पहलवानों के साजिष का षिकार हो गये औ मल्लयुद्ध में पराजय का सामना करना पड़ा। षर्तानुसार अपने भरगढ़ा राज्य को छोड़ दिया और वहाँ राजा विष्सेन का सत्ता कायम हो गया। भरगढ़ा राज्य से राजभरों का षासन समाप्त हो गया। भरों के गौरवषाली इतिहास को मिटाने के लिए विषेन राजाओं ने भरगढ़ा देवी मंदिर का नाम बदलकर भागड़ादेवी का नाम दिया तथा भरगढ़ा राजधानी को बदलकर मझौलीराज नाम दिया, जिससे भरों का इतिहास जनमानस में विस्मृत होता चला गया। इस घटना को पुस्तक ‘‘विषेन वंष बाटिका’’ में इतिहासकार श्री लाल खंगबहादुर मल्ल जो विषेन वंषीय हैं ने इस प्रकार उल्लेख किया है-ः

       ‘‘बताया जाता है कि प्राचीन राजा मयूर के तीसरी पीढ़ी के महाराजा विष्वसेन ने भर राजा से राज्य में रहने के चलते कर माँगा। उसे अस्वीकार करते हुए भर राजा ने विष्वसेन से मझौली में देवी स्थान के पास मल्लयुद्ध की चुनौती दी। राजा विष्वसेन ने चुनौती स्वीकार कर देवी माँ के आषीर्वाद से भर राजा को परास्त किया। भर राजा के क्षेत्र में मंदिर होने के चलते यह मंदिर भरगढ़ा के नाम से विख्यात हो गया। कहा जाता है कि राजा कौषल किषोर के कोई पुत्र न होने के कारण एक फकीर ने कहा कि इस राज्य की देवी को मांस मदिरा पसन्द नहीं है। राज-परिवार यदि मांस मदिरा का सेवन करेगा तो स्टेट निःसन्तान हो जायेगा। मझौलीराज में स्थित इस मंदिर को सन 1658 में औरंगजेब ने विध्वंष करा दिया था और राजा बोधमल को बन्दी बना लिया था। (समाचारपत्र दैनिक जागरण 16 नवम्बर 2007 षीर्षक भागड़ा भवानी मंदिर, संवाददाता श्री जितेन्द्र उपाध्याय सलेमपुर देवरिया, उपरोक्त पुस्तक से उद्धृत)

भरगढ़ा देवी तथा फकीर की बात राजभर षासक षिवविलास पर ही नहीं बल्कि राजभर जाति पर अक्षरषः लागू हुई और अत्यधिक मांस मदिरा के सेवन के कारण राजभरों का पतन होता चला गया और आज भी हो रहा है। राजा षिवविलास के विषय में षेष जानकारी के लिए षोधकार्य की आवष्यकता है।

राजा षिवविलास के षासन काल का निर्धारण

राजा विष्वसेन ने जिसने राजा षिवविलास को हराकर भरगढ़ा में षासन किया के षासनकाल के विषय में निम्नलिखित पुस्तकों के कुछ पंक्तियाँ का अवलोकन करें-ः

(1) मयूर बर्मन ने मयूर वंष की स्थापना की तथा 606 ई. से 664 ई. तक राज्य किया। यह मयूर बर्मन हर्शवर्धन के काल में राज्य किया था। इस मयूर वंष में विस्सेन नामक राजा हुआ। उससे उत्त्पन्न सन्तान विषेन कहलाये। (पुस्तक क्षत्रिय वंष का संक्षिप्त इतिहास, पृ. 85, षीर्षक विषेन वंष, लेखक-सीतारामसिंह )

(2) ऋशि मयूर भट्ट का विवाह अयोध्या राजवंष की सूर्यप्रभा से हुआ। इन्हीं की सन्तान विषेन मझौलीराज के आदि पुरुष थे। (पुस्तक विषेन बाटिका, लेखक खंगबहादुर मल्ल)

(3) बताया जाता है कि प्राचीन राजा मयूर के तीसरी पीढ़ी के महाराजा विष्वसेन ने भर राजा से राज्य में रहने के चलते कर माँगा। भर राजा ने अस्वीकार करते हुए विष्वसेन से भरगढ़ा भवानी मंदिर मल्लयुद्ध की चुनौती दीं राजा विष्वसेन ने चुनौती स्वीकार की और देवी माँ के आषीर्वाद से भर राजा को परास्त किया तथा यहाँ अपनी सत्ता कायम की।(दैनिक जागरण,16 नवम्बर 2007, पृ.4, षीर्शक भागड़ा भवानी मंदिर, सम्वाददाता श्री जितेन्द्र उपाध्याय सलेमपुर देवरिया)

(4) विष्वसेन का ही दूसरा नाम विसन्द बर्मद था जिसका ष्षासनकाल 485 ई.से 497 ई.तक था। इसी विष्वसेन के नाम पर विषेन वंष चला।(पुस्तक क्षत्रिय ष्षाखाओं का इतिहास, पृ.85, लेखक देवीसिंह माण्डवा)

निश्कर्श-ः अपने समाज का इतिहास लिखते समय उपरोक्त इतिहासकारों ने घटना पर विषेश बल दिया है, परन्तु ष्षासनकाल का स्पश्ट उल्लेख नहीं कियाहै जिससे ष्षासनकाल का विवादित होना स्वाभाविक है। मेरे विचार से मयूर बर्मन का षासनकाल 606 ई.से 664ई.था। मयूर बर्मन व हर्शबर्मन समकालीन थे। हर्शवर्धन की मृत्यु 647 ई. में हुई थी। भरगढ़ा में विष्वसेन और राजभरष्षासक षिवविलास के युद्ध की घटना राजा मयुर के तीसरी पीढ़ी के राजा विष्वसेन के साथ होना दर्षाया गया है। इससे स्पष्ट है कि मयूर के बाद उनकी प्रत्येक पीढ़ी 20-20 वर्ष की रही हो तो लगभग 724 ई.में यह युद्ध होना प्रतीत होता है। चंकि 8वीं सदी में तमाम हिन्दु (जो बौद्ध हो गये थे) बौद्धधर्म छोड़कर पुनः हिन्दू धर्म स्वीकार किये और उन्हें नवीन क्षत्रिय (राजपूत) घोषित किया गया। ध्यान देने की बात है ,यहीं से इन नवीन क्षत्रियों के नये नये वंष चले हैं ,ऐसा षंकराचार्य के समय अर्थात 8वीं सदी में हुआ था। अतः षिवविलास का षासनकाल 8वीं सदी ही सही प्रतीत होता है।

राजभर षासक षिवषरन (12वीं सदी-मझौली देवरिया)

लेखक-रामचन्द्र राव, ग्राम-खैराबाद, पोस्ट-परषुरामपुर, जिला-गोरखपुर उ.प्र.273152

       मझौली राज पर किसी भी वंष का स्थायी ष्षासन नहीं रहा है। इस राज्य पर बार बार आक्रमण होते रहे हैं। जो सबल पड़ता यहाँ का ष्षासक बन जाता था। परन्तु राजभर ष्षासकों का ष्षासन मझौली राज पर समय समय पर उतार चढ़ाव के साथ ज्यादा समय तक रहा है। सर्व प्रथम इस क्षेत्र से कुषाण ष्षासकों को खदेड़कर दूसरी सदी में नागभारषिवों (वर्तमान राजभर) ने यहाँ ष्षासन किया। तदोपरान्त चैथी सदी में समुद्रगुप्त ने अपने दिग्विजय के समय भारषिवों को परास्त करके यहाँ अपनी सत्ता कायम की थी। परन्तु राजभर बैठे नहीं रहे। मौका पाकर पुनः राजभरों ने मझौली पर कब्जा कर लिया। 8वीं सदी में राजभर ष्षासक षिवविलास को हराकर राजा विष्वसेन ने अपनी सत्ता कायम की। इधर राजभरों को अपना राज्य चले जाने का मलाल कम नहीं हुआ। कई दषकों बाद राजभरों नें संगठित होकर यहाँ के राजा को परास्त करके इस राज्य पर पुनः कब्जा कर लिया। तबसे यहाँ राजभरों का ष्षासन चलता आ रहा था। 12वीं सदी के प्रारम्भ में यहाँ पर राजभर ष्षासक षिवषरन यहाँ के राजा हुए। उन्होंने अपनी सैन्य ष्षक्ति के बल पर अपने राज्य का विस्तार भी किया। अवध प्रान्त में 12वीं सदी में जब जगह जगह मुस्लिम ष्षासकों का ष्षासन हुआ तो मुस्लिम ष्षासकों ने सत्ता संघर्ष में राजभरें के कत्लेआम की घोषणा की। उस समय कुछ राजभर जान बचाने के लिए भागकर जंगलों का ष्षरण लिए तो कुछ ने विदेष छोड़कर अन्य देष को पलायन कर लिया। राजभरों की ष्षक्ति कमजोर पड़ती गई। उसी समय विषेन वंष के 40वीं पीढ़ी के राजा चक्रसेन उर्फ चक्रनारायण ने राजभर ष्षासक षिवषरन के राज्य पर आक्रमण कर दिया और राजा षिवषरन को परास्त करके मझौली में अपना ष्षासन कायम किया। इतिहासकार देवीसिेह माण्डवा ने राजा चक्रनारायन का भरगढ़ा पर सत्ता वापस करने की घटना को इस प्रकार उल्लेख किया है। कृप्या अवलोकन करें-ः

       ‘‘ विषेन वंषीय राजा चक्रनारायण ने भरों पर भारी विजय कर मध्यावली को अपना केन्द्र बनाया। इसी क्षेत्र का नाम आगे चलकर मझौली पड़ा। फिर यह राज्य उत्तरोत्तर बढ़कर नेपाल तक हो गया। ......मझौली के राजा महाराज लाल खंग बहादुर मल्ल भी बहुत बड़े विद्वान थे। वे इतिहास में रुचि लेते थे। उन्होंने विषेन वंष के इतिहास को संकलित कर पुस्तक ‘‘विषेन वाटिका’’ की रचना की। विषेन वाटिका में उस समय प्रचलित बातों के आधार पर बहुत सी बातें लिखी गयी हैं जो पूर्णरूपेण ऐतिहासिक नहीं है। (पुस्तक- क्षत्रिय ष्षाखाओं का इतिहास पृ. 295 ,296 लेखे श्री देवीसिंह माण्डवा)

       इतिहासकार देवीसिंह माण्डवा के उपरोक्त विचारों से लगता है कि विषेन वंष की वंषावली और मझौली के ष्षासकों को पराजित करके विषेन राजाओं का सत्तासीन होना,परन्तु पुस्तक में विजेता विषेन राजा के नाम का उल्लेख करना तथा पराजित राजा के नाम का उल्लेख न करना, इन उल्लखित घटनाओं के कपोल कल्पित होने की तरफ इषारा करती हैं।,ऐसा लगता है कि पुस्तक विषेन वाटिका में सत्यांष पर ज्यादा ध्यान न देकर विषेन वंष के महिमा मण्डन पर ज्यादा ध्यान दिया गया है। यही वजह है कि इस पुस्तक में लिखी गई घटनाओं में पारदर्षिता नहीं है।

       राजा चक्रनारायन के वंषजों का मझौली पर ष्षासन चल ही रहा था कि मौका पाकर राजभरों ने पुनः मझौली राज पर कब्जा कर लिया। इतिहासकार श्री एम.बी. राजभर की पुस्तक नागभारषिव का इतिहास पृ. 162 के अनुसार 17वीं सदी तक सलेमपुर तथा मझौली राज में राजभरों का ष्षासन था। अंग्रेजों के ष्षासनकाल में अंग्रेजों के कृपापात्र विषेन वंष का मझौली में पुनः कब्जा हो गया जां आज तक चल रहा है।

लेखक ष्षमीम इकबाल के अनुसार-ः‘‘इतिहास में अपनी भूमिका के प्रति पर्याप्त स्थान नहीं पाने वाले इस राज (मझौली राज) का स्थापना काल 12वीं सदी से 17वीं सदी तक का समय इसके उत्कर्ष का समय माना जाता है। ( समाचार पत्र- सहारा पृ. 12,षीर्षक -मझौली राज, सम्वाददाता-षमीम इकबाल)

       अतः उपरोक्त उल्लेख से स्पष्ट है कि मझौली में विषेन वंष का ष्षासन 12वीं सदी (1140 ई.) के पहले तथा 17वीं सदी के मध्य स्थायी नहीं रहा है। इस अवधि में राजभर षासकों का यहाँ ष्षासन रहा है।

साम्प्रदायिक सद्भावना के प्रतीक थे ,महाराजा सुहेलदेव

           लेखक-रामचन्द्र राव ,ग्राम-खैराबाद ,पोस्ट-परषुरामपुर (पिपराइच) ,जिला-गोरखपुर उ.प्र. 273152 (मो.न ं9453303481)

    11वीं सदी में श्रावस्ती (बहराइच) तें महाराजा सुहेलदेव का षासन था। उस समय भारत में यत्र तत्र तमाम छोटे छोटे तथा कुछ बड़े राजाओं का षासन था। अधिकतर छोटे राजा बड़े राजाओं के सामन्त के रूप में षासन करते थे। पुस्तक मिराते मसूदी पृष्ठ 127 लेखक अब्दुर्रहमान चिष्ती के अनुसार उस समय बहराइच में कुल 40 राजा राज्य कर रहे थे। इनमें इक्कीस भर षासक थे ,जिसमें महाराजा सुहेलदेव प्रमुख थे। ये सभी राजा-महाराजा सुहेलदेव के सामन्त के रूप में षासन कर रहे थे। महाराजा सुहेलदेव का अपने सामन्त राजाओं से गजब का आपसी सामंजस्य था। ये सामन्त राजा महाराजा सुहेलदेव के नेतृत्व में मर मिटने के लिए तैयार रहते थें। महाराजा होते हुए भी उनका अपना पड़ोसी राजाओं से कभी भी किसी प्रकार का बैर भाव नहीं था। जबकि भारत के अन्य राजा अपने राज्य विस्तार के लिए अपने पड़ोसी राजाओं पर आक्रमण किया करते थे या उनके खिलाफ षणयंत्र किया करते थे। महाराजा सुहेलदेव का मृदंु-भाषा, षान्त स्वभाव उदारता ,सहनषीलता और न्यायप्रियता समाज के सभी वर्गों में गजब का सामंजस्य तथा सभी धर्मों के प्रति समान श्रद्धा जांबांजां उनके लोकप्रियता में चार चाँद लगा रही थीं। एक तरफ सभी धर्मों के प्रति अगाध श्रद्धा थी ,दूसरी तरफ सामाजिक सौहार्द्र को दूशित करने वाले धर्म के ठेकेदार कठमुल्लाओं तथा पाखण्ड प्रिय पण्डे और पुजारियों के रूढ़िवादी विचारधाराओं के प्रबल विरोधी भी थे। वे मानवतावादी विचारधारा के प्रबल समर्थक ,पोषक तथा विष्व बंधुत्व की भावनाओं से ओतप्रोत थे। महाराजा सुहेलदेव का षासन षान्ति प्रिय ढंग सं चल ही रहा था कि उसी समय विदेषी आक्रान्ता महमूद गजनवी का भँाजा सैयद सालार मसौद गाजी ने जेहाद के नाम पर लड़ता भिड़ता ,धर्म प्रचार तथा लूट खसोट करते हुए भारत पर आक्रमण किया। दिल्ली ,मेरठ ,कन्नौज ,बनारस ,लखनऊ आदि के राजाओं को परास्त करते हुए बहराइच पहुँचा। महाराजा सुहेलदेव का अपने सामन्त राजाओं के कुषल नेतृत्व तथा वृहद सैन्य षक्ति को देखकर गाजी का विजय अभियान रुक गया। सैयद सालार ने कूटनीति का सहारा लिया। बहराइच के सामन्त राजाओं में जातिभेद तथा उन्हें सत्ता की लालच देकर महाराजा सुहेलदेव से विमुख करना चाहा। परन्तु बहराइच के अधिकांष सामन्त राजाओं का महाराजा सुहेलदेव के प्रति अटूट विष्वास ने सैयद सालार के कुत्सित विचारों को फलीभूत नहीं होने दिया। महाराजा सुहेलदेव को जब सैयद सालार की बहराइच पर आक्रमण करने की योजना तथा सामन्त राजाओं के साथ षणयंत्र करके बहराइच की अखण्डता में खण्डता पैदा करने की साजिष का पता चला तो क्रोधित हो उठे। उन्होंने उसी दिन सायंकाल सामन्त राजाओं की एक बैठक आहूत की। बैठक में यह निर्णय लिया गया कि लड़ाई में जन-धन की हानि होगी। अतः बेहतर होगा कि युद्ध को टाला जाये। गाजी को पत्र लिखा गया कि ‘‘तुम गजनी देष के रहने वाले हो ,तुम्हें बहराइच के आबोहवा की जानकारी नहीं है। युद्ध करने में जीत किसकी होगी ,यह समय बतायेगा। परन्तु इस युद्ध से जन-धन की हानि होगी और मानवता का विनाष होगा यह सुनिष्चित है। हमारा सुझाव है कि बहराइच पर आक्रमण का विचार त्यागकर अपने देष को वापिस चले जाओ। हमें आत्म-रक्षार्थ लड़ने को मजबूर मत करो।

    परन्तु ,युद्धाकांक्षी सैयद सालार अपनी जिद पर अड़ा रहा। अन्ततः बहराइच के चित्तौड़ा झील के पास निर्णायक युद्ध हुआ। दोनों सेनाओं में भीषण संग्राम हुआ। इस लड़ाई में दोनों तरफ से लाखों सैनिक षहीद हुए। लाखों हताहत हुए। सैयद सालार व उसके सभी सेनापति इस युद्ध में मारे गए। लाखों माताओं की गोद सूनी हुईं। लाखों बहुएं विधवा तथा बच्चे अनाथ हो गए। पूरे युद्ध स्थल में लाषों का ढेर लग गया। मानवता कराह उठी। युद्ध-भूमि में चारों तरफ रक्त रंजित लाषें ,घायल सैनिकों की चीख पुकार तथा षहीद सैनिकों व घायल सैनिकों के परिजनों का करुण क्रन्दन देखकर सुहेलदेव का कोमल हृदय द्रवित हों गया। अपने प्रजाजनों की यह असहनीय पीड़ा देखकर उनका मन अषांत हो उठा। युद्ध भूमि में मानवता की यह विनाष लीला देखकर वे अपने आँसुओं को रोक न सके। उनकी आँखों से अश्रुधारा बह चली। सुहेलदेव के युद्ध जीतने की इस खुषी को मानवता के विनाष लीला ने तार तार कर दिया। सुहेलदेव ने युद्ध भूमि में ही भविष्य में कभी भी युद्ध न करने का संकल्प कर लिया। भारत के इतिहास में सम्राट अषोक के बाद यह दूसरी घटना थी कि भीषण संग्राम के बाद युद्ध भूमि में हृदय विदारक दृष्य को देखकर किसी राजा का हृदय परिवत्र्तन हुआ था और कभी भी राज्य-सत्ता के लिए युद्ध न करने का संकल्प लिया था। सुहेलदेव के इस हृदय परिवत्र्तन ने उन्हें सांसारिकता से विमुख कर दिया था। जब भी इस घटना की याद आती सुहेलदेव षान्ति के प्रतीक भगवान बुद्ध के मन्दिर में जाकर घंटों ध्यानमग्न हो जाते थे। समय गुजरता गया और सैयद सालार से हुए युद्ध की याद विस्मुत होने लगी।

     एक दिन महाराजा सुहेलदेव के यहाँ कुछ अतिथि आए हुए थे। सायंकाल भोजन के पष्चात थाली में बचा रोटियों का टुकड़ा कुत्तों के खाने के निमित्त बाहर फेंक दिया गया। सुबह दीन हीन दषा में मैले कुचैले वस्त्र में अपने 3 वर्षीय अर्द्ध नग्न बच्चे के साथ दुबली पतली भिखारिन (जिसका पति बहराइच की लड़ाई में वीरगति को प्राप्त हुआ था।) भीख माँगते हुए महल के सामने से गुजर रही थी। तभी भूख से पीड़ित बच्चे की नजर फेंके गण् सूखी रोटी के टुकड़े पर पड़ी। बच्चा सूखी रोटी की तरफ इषारा करके रोने लगा। भिखारिन कुछ समझ पाती कि इसके पहले ही गोद से उतरकर बच्चा घास पर पड़े रोटी के टुकड़े के पास पहुँच गया। बच्चा हाथ में रोटी लेकर मुँह के पास लगा ही रहा था कि एक कुत्ते ने रोटी के लिए दौड़कर बच्चे के हाथ पर आक्रमण कर दिया और बच्चे के हाथ से रोटी गिरते ही कुत्ता रोटी लेकर भाग खड़ा हुआ। बच्चे के हाथ में कुत्ते का दाँत लगने से खून बहने लगा। भूख से पीड़ित बच्चा रोटी छिन जाने तथा दर्द से परेषान जमीन पर लोट-लोट कर चिल्लाने लगा। तभी महाराजा सुहेलदेव की नजर उस बच्चे पर पड़ी। उन्होंने दौड़कर उस बच्चे को अपनी गोद में उठा लिया। उसे चुप कराने का प्रयत्न करने लगे। बगल में उपस्थित मंत्री विद्याधर को बच्चे की दवा कराने तथा नहला-धुलाकर भोजन कराने का आदेष दिया। आदेष का तुरन्त पालन किया गया। परन्तु मंत्री ने महाराजा सुहेलदेव से कहा-

म्ंात्री-ःमहाराज यह लड़का हिन्दुओं का दुष्मन मुसलमान का है। सुहेलदेव जी-ःमंत्री जी हर बच्चा माँ के गर्भ से मानव के रूप में पैदा होता हैं ईष्वर हिन्दू ,मुस्लिम आदि होने का कोई प्रतीक उनमें बनाकर पैदा नहीं करतां। बच्चे के पैदा होने के बाद उसके श्रेष्ठजन उसका खतना कराकर मुस्लिम और चोटी बढ़वाकर हिन्दू होने का उन्हें आभास कराते हैं। और उन्हीं में से कुछ मानवता के दुष्मन धर्म के नाम पर उनमें साम्प्रादायिक सद्भावना के विपरीत आपसी बैर-भाव ,जातीय तथा धार्मिक उन्माद के बीज बोकर सामाजिक सौहार्द्र दूषित करने हेतु उन्हें उत्प्रेरित करते हैं। म्ंात्री-ःमहाराज मुसलमान कभी हिन्दू का हितैषी नहीं हो सकता ,उनसे हमेषा सावधान रहना चाहिए।सुहेलदेव जी-ःमंत्रीवर आज तक संसार में कोइ्र्र दुष्मन पैदा हुआ ही नहीं। जो दोस्त या दुष्मन आप देख रहे हैं ये सब परिस्थितिजन्य हैं। संसार में न कोई दोस्त है और न दुष्मन। न कोई अपना है औ न कोई पराया। ये माँ-बाप ,बीबी-बच्चे ,भाई-बहन ये सारे रिस्ते हमारे इस क्षणभंगुर षरीर से सम्बंधित हैं। जबकि वास्तविकता यह है कि यह षरीर ही हमारा नहीं है। फिर इस षरीर से सम्बंधित रिस्ते दोस्त या दुष्मन कैसे हो सकते हैं। मेरी अपनी सोच है कि जब तक हम इस क्षणभंगुर षरीर में हैं तब तक इस सृष्टि की अद्भुत उपज मानव के साथ आपसी प्रेमभाव तथा सामाजिक सद्भाव बनाये रखें। दूसरे के सुख व दुख को अपना सुख दुख समझें। इसी में सुखद जीवन की अनुभूति होगी। और तभी बसुधैव कुटुम्बकम् की उम्मीद की जा सकती है। म्ंात्री जी-ः महाराज हम लोग राम को ईष्वर मानते हैं किन्तु ये लोग उसे नकारते हैं और अल्लाह के सिवा और किसी को नहीं मानते। हम में और इनमें काफी अन्तर है। सुहेलदेव जी-ःजल को पानी कहकर पीने ,या आब कहकर पीने ,या नीर कहकर पीने से उसके स्वाद में कोई अन्तर नहीं हो जाता। अर्थात नैसर्गिक गुण वही रहता है। अपनी अपनी अलग पद्धतियों में ईष्वर की आराधना करने से ईष्वर अलग अलग नहीं हो जाते। सत्य तो यह है कि हम में ईष्वर के प्रति समर्पण का अभाव है ,अन्यथा हम जाति व धर्म की सीमाओं में न बँधे होते। ईष्वर एक है और सारा मावन समाज उसकी सन्तान है। हम अल्प ज्ञानी लोग उसे अलग अलग मानकर आपस में लड़ते झगड़ते रहते हैं। वास्तव में मामला धार्मिक नहीं आर्थिक है। धर्म की दुकान चलाने वाले लोग धर्म को आय का स्रोत बना लिए हैं।इन लोगों ने विष्व-बंधुत्व को हासिए पर ला दिया है। चलिए हम कुछ समय के लिए यह मान ही लें कि ईष्वर, अल्लाह ,ईष सब अलग अलग हैं और हम सब अलग अलग उनकी सन्तान हैं। जब ईष्वर ,अल्लाह और ईष अपने अपने वर्चस्व की लड़ाई आपस में नहीं लड़े तो हमें ही उनके अस्तित्व की चिन्ता क्यों है ? संसार के सारे जीवों को अस्तित्व में लाने वाले इस सृश्टि के सृजनहार के अस्तित्व को लोग खतरे में महसूस कर रहे हैं यह उनका मानसिक दिवालियापन नही ंतो और क्या है ? और ,उनके प्रचार-प्रसार के नाम पर कट्टरपंथी और उन्मादी लोग साम्प्रदायिक दंगा करने में तत्पर हैं यह उनकी विवेक षून्यता नही ंतो और क्या है ?सत्यता तो यह है के अगर मानव समाज विष्वबंधुत्व की भावना से साम्प्रादायिक सद्भावना के प्रति जागरूक हो जाय तो धर्म की दूकान चलाने वालों का अस्तित्व ही खतरे में पड़ जायेगा। उनकी धर्म की दूकान बन्द हो जायेगी।

म्ंात्री-ःतो क्या यह मान लिया जाय कि सैयद सालार मसौद गाजी ने अकारण ही बहराइच पर आक्रमण करके जो नर संहार किया है वह दोषी नहीं है सुहेलदेव जी-ः मसौद गाजी दोषी है। परन्तु उसका दोश परिस्थितिजन्य है। कहते हैं कि जब बच्चे माँ की गर्भ में हो तो सात्विक भोजन ,मृदु भाषा का प्रयोग ,आपसी सौहार्द्र तथा अच्छे संस्कारयुक्त कहानियाँ गर्भिणी को सुनाना चाहिए। बच्चे पेट में ही कुछ बातें मा(-बाप के आपसी वार्तालाप से ही सीख जाते हैं। महाभारत का अर्जुन पुत्र अभिमन्यु इसका उदाहरण है। अभिमन्यु ने माँ के गर्भ में ही अर्जुन द्वारा अपनी पत्नि को बताए गये चक्रव्यूह भेदन की कला सीख लिया था। परन्तु सैयद सालार मसौद गाजी का दुर्योग ही रहा कि उसके साथ ऐसा नहीं हुआ। गाजी का जन्म अजमेर में लड़ाई के समय सैनिकों के षिविर में हुआ था। पिता सालार साहू महमूद गजनवी के सेनापति थे। मसौद गाजी जब गर्भ में था उस समय नित्य लड़ाई में हिन्दू राजाओं को परास्त करने उनकी धन सम्पदा को लूटने तथा लड़ाई में खून खराबे की घटना को अपनी पत्नि सुलमुअल्ला को सुनाने का दुष्प्रभाव सैयद सालार गाजी पर भी पड़ा। संसार से अनभिज्ञ गाजी ने जब जन्म लिया तो उसके कानों में मारकाट ,लूट खसोट तथा घायल सैनिकों की चीख पुकार सुनायी दिया। आँखें खोली तो सामने कमरे में अस्त्र षस्त्रों का ढेर देखा। षिविर से बाहर निकलने पर युद्ध भूमि में रक्त रंजित लाषों का ढेर दिखायी दिया। ऐसी परिस्थिति में पैदा हुए बालक से विष्व-बंधुत्व और साम्प्रदायिक सद्भाव तथा मानव कल्याण की कल्पना हम कैसे कर सकते हैं। रहा सहा कसर सैयद सालार गाजी के गुरु इब्राहीम बारा हजारी ने पूरा किया। मानव कल्याण के हितार्थ सामाजिक षिक्षा को उपेक्षित करते हुए सैयद सालार को कट्टर मुस्लिम और जेहादी बनाने में कोई कसर नहीं रखी। उस तरुण को मुस्लिम धर्म प्रचार को ही सर्वोत्तम सत्कर्म होने की षिक्षा दी गई। सैयद सालार मसौद गाजी ने वैसा ही किया जैसा करने के लिए उसे तैयार किया गया था। उसके हठ के कारण बहराइच के युद्ध में दोनों तरफ से लााखों सैनिक मारे गये और अन्ततः स्वयं ीाी मारा गया। विद्वानों ने काफी अनुभव के बाद सही कहा है-ः ‘‘बोया पेड़ बबूल का तो आम कहाँ से होय।’’

    मानव समाज के इस ढाँचे में बहुभाषा ,बहुपंथीय ,बहुजातीय व बहुधर्मों का सम्मिश्रण है। इसकी एकता और अखण्डता के विरुद्ध जाति ,धर्म व पंथ के नाम पर बिष बमन किया जाएगा और इसमें दरार पैदा किया जाएगा तो मानव समाज आपस में लड़कर विनष्ट हो जाएगा। हर व्यक्ति का यह नैतिक दायित्व है कि वह परस्पर प्रेम और सौहार्द्र का वातावरण बनाए और विविधता में एकता स्थापित करने में सहयोग करे तभी हम मानव कल्याण की कल्पना कर सकते हैं।

   तभी वह भिखारिन और बच्चा नहा धोकर भोजनोपरांत नए कपड़े पहने राजा के सामने आ खड़े हुए। बच्चा अपने नए कपड़े देखकर बार बार प्रफुल्लित हो रहा था और बार बार अपने कपड़े को अपनी माँ को दिखला रहा था। बच्चे को खुष देखकर राजा का वात्सल्य भाव उमड़ आया।ं

सुहेलदेव जी-ः (भिखारिन से) तुम्हारे बच्चे का नाम क्या है ? भिखारिन-ः तकरार अली। सुहेलदेव जी-ः इसके पिता का ना ? भिखारिन-ः मुहर्रम अली। सुहेलदेव जी-ः तुम्हारे पुत्र और पति के नाम में अजीब तारतम्य है। नाम का बड़ा महत्व होता है। बुजुर्गों ने कहा है कि ‘‘यथा नाम तथा गुण।’’ मेरी राय में अगर तुम्हें कोई आपत्ति न हो तो इस बच्चे का नाम इन्सान अली रख लो। भिखारिन को आवास तथा जीवनयापन हेतु 5 बीघा जमीन देने का आदेष तत्काल दे दिया। भिखारिन भावुक हो उठी। उसके आँखों में खुषी की अश्रुधारा बह चली और दौड़कर महाराजा सुहेलदेव के सामने नतमस्तक हो गई। उधर दर दर की ठोकरें ,खा रहे बालक इन्सान अली को इन्सान के रूप मे्र भगवान मिल गया। तभी बगल में खड़े सुजान अली ने कहा-ःहुजूर गुनाह माफ हो तो कुछ कहें। सुहेलदेव जी-ः हाँ हाँ चाचा सुजान अली इजाजत है। सुजान अली-ः हुजूर सतयुग में मानव के कल्यान बदे षंकर जी समुन्दर से निकड़ल जहर के प्याला पी गइलें ,सतयुग में पृथ्वी पर पियें बदे पानी अऊर खेती करें बदे गंगाजी से विनती कइलें। गंगाजी पृथ्वी पर अइला से मना कई दिहली। कहली के बा,जे हमार धारा प्रवाह रोक लेई कि हम पृथ्वी पर आयीं। षंकर जी मानव के कल्यान बदे गंगा जी के अपने जटा जूट में अझुरा अझुरा के ओही में दौड़ावत दौड़ावत उन कर सगरो नषा ढील कई देहलें। गंगा जी थक हार के षान्ति से पृथ्वी पर आ गइली। जनता खुषहाल हो गइल। बाकी आज के बाबा और मुल्ला लोग धर्म के नाम पर चन्दा लेने बदे हिन्दू अऊर मुसलमानन के अपने जटाजूट और दाढ़ी में अझुरा अझुरा के आपस में लड़ावत लड़ावत सबके मारि डरला पर लागल बाटे ,दाढ़ी हिला के। हमरा ई नइखे समझ में आवत कि जब सबई मनई आपस में लड़त लड़त मरि जइहें त इ लोग अपने अपने धरम की दूकान कहाँ चलइहें ,दाढ़ी हिलाके। जनता का करे जब जब मानवता के पक्षधर हिन्दू अउर मुसलमान लोग आपस में भाईचारा बनाके सुख चैन से रहल चाहत बा ,तब तब आपस में तब तब आपस में गले गले लगला के पहलहीं बाबा अउर मुल्ला लोगन की दाढ़ी आपस में टकरा जात बा। हमरा के त लागत बा कि हमनी के अगर सुख चैन की जिन्दगी जीये के बात हमनी के दाढ़ी और जटाजूट से दूरे रहलही में भलाई बा।

सुहेलदेव जी-ः हाँ चाचा यही तो चिन्ता का विषय है। हम लोग जाति ,धर्म और मजहब के नाम पर देष ,समाज की अखण्डता और एकता को खण्डित करेंगे और आपस में लड़ेंगे तो इससे मानव का विनाष होगा। अच्छा होता कि हम लोग आपसी द्वेषभाव भूलकर विष्व-बंधुत्व की कल्पना करते ,साम्प्रदायिक सद्भाव का माहौल पैदा करते तभी मानव समाज के अमन चैन की जिन्दगी जीने की कल्पना की जा सकती है। समस्त मानव को चाहिए कि वह घृणित जाति भेद ,धर्म भेद को त्यागकर विष्व-षान्ति के अग्रदूत महात्मा बुद्ध के इन उपदेषों को अंगीकृत करे-ः

    ‘‘जरूरी नहीं है कि हिन्दू बनो ,ये  जरूरी नहीं कि क्रिस्तान  बनिए।

     निरूपा-सरूपा कछू ना जरूरी , जरूरी नही ं है कि मुसलमान  बनिए।।

     जरूरी नहीं क्रास ,सुन्नत कराबो ,जरूरी नहीं कि तिलकवान बनिए।

     है ‘‘राजगुरू’’ ये जरूरी जरूरत ,छोड़ दो ढोंग सारे और इंसान बनिए।।’’

    राजभर राजा रुद्रसेन का पतन (चैथी षताब्दी)

लेखक-ः रामचन्द्र राव ,ग्राम-खैराबाद ,पो-परषुरामपुर (पिपराइच) ,जिला-गोरखपुर उ.प्र.

     कान्तिपुर के राजाधिराज भारषिव षासक महाराजा वीरसेन थे। उनके सेनापति का नाम प्रवरसेन था। महाराजा वीरसेन द्वारा काषी में कराए जा रहे नवम् अष्वमेध यज्ञ का पूरा दायित्व वीरसेन ने प्रवरसेन को सौंपा था। अष्वमेध यज्ञ के अष्व रक्षा का भार प्रवरसेन के पुत्र विजयसेन को सौंपा गया था। प्रवरसेन ने साकेत से पाटलिपुत्र तक कुषाण षासकों को परास्त करके वीरसेन का परचम फहराया था। उसी समय हलद्वीप पर भारषिवों का आधिपत्य हुआ था। ये भारषिव साधारण जनता में भरषिव या भर कहे जाते थे। कुषाण षासकों ने हलद्वीप में अपने समय में पंचध्यानी बुद्धों की उपासना चलायी थी। उन्हें धकेलकर भारषिवों ने पंचमुखी षिव की उपासना चलायी थी। राजा यज्ञसेन एक सामन्त षासक थे। ये विजयसेन के पुत्र थे तथा कान्तिपुरी की तरफ से हलद्वीप पर षासन करते थे। यज्ञसेन ने हलद्वीप में अभीरों की संख्या ज्यादा होने से समझ लिया था कि वगैर अभीरों से सामन्जस्य बनाए हलद्वीप में ज्यादा दिनों तक षासन करना सम्भव नहीं होगा। राजा यज्ञसेन के समय उनके राज्य में षासन बहुत ही षान्तिप्रिय ढंग से चल रहा था। हलद्वीप के किनारे पर जहाँ पर बोध सागर की सीमा समाप्त होती थी ,वहाँ एक ऊँचा टीला था। बरसात में जब बोधसागर में पानी भर जाता था तो टीला चारों तरफ से पानी से घिर जाता था। इसीलिए ,यह टोला हलद्वीप में एक दूसरा टीला सा दिखाई देता था। इसका नाम द्वीप खण्ड था। द्वीप खण्ड के दक्षिण पूर्व छोर पर हलद्वीप का सरस्वती विहार था। बसन्तारम्भ में सरस्वती विहार में कला ,नृत्य ,मल्लयुद्ध ,संगीत आदि का विषाल आयोजन होता था। राजा यज्ञसेन स्वयं उस उत्सव में उपस्थित रहते थे। इस आयोजन में न्याय व व्याकरण पर भी षास्त्रार्थ होता था। कवियों की भी कविता के माध्यम से प्रतिस्पर्धा होती थी। देष विदेष से आए पहलवानों की कुष्ती में विजयी होने वाले को अन्तिम दिन पुरस्कृत किया जाता था। समय समय पर विद्वत सभाओं का भी आयोजन होता था। यज्ञसेन की अनुपम षौर्य गाथा चारों तरफ गूँज रही थी। उनका षासन वेदषास्त्र के नियमों के अनुसार चल रहा था। राजा यज्ञसेन का प्रजा-वात्सल्य उनकी लोकप्रियता में उत्तरोत्तर वृद्धि कर रहा था। राजा का धार्मिक होना और आये दिन धार्मिक अनुष्ठान उनके यष वृद्धि में चार चाँद लगा रहा था। इसी बीच एक दिन हृदय गति रुक जाने से राजा यज्ञसेन का स्वर्गवास हो गया। सारी जनता राजा के असामयिक निधन से व्यथित हो उठी। सारा नगर षोक में डूब गया। दाह संस्कार में उमड़े जन समुदाय को देखने से उनकी लोकप्रियता स्वमेव झलक रही थी। फिर युवराज रुद्रसेन का राज्याभिशेक हुआ। नगर में उत्सवों का तांता लग गया। परन्तु यह खुषी ज्यादा दिन तक स्थिर न रही और नये राजा रुद्रसेन के आचार व व्यवहार से जनता त्रस्त होने लगी। देवरात साधु पुरुष थे। कुलूत देष के राजकुमार थे। पिता का नाम यज्ञरात था। विमाता के व्यवहार से असन्तुश्ट होकर सन्यासी जीवन अपना लिया था। हलद्वीप के राज-परिवार में उनको काफी सम्मान दिया जाता था। राज परिवार में जब कभी कोई उत्सव होता ,देवरात को अवष्य आमंत्रित किया जाता था। यज्ञ के अवसरों पर देवरात की उपस्थिति अनिवार्य थी। एक तरफ संसार के विशयों से विमुख थे तो दूसरी तरफ दीन दुखियों की सेवा ही उनका व्यवसन था। वे वेद षास्त्रों के प्रकाण्ड विद्वान थे। परन्तु नियमों और आचारों से मुक्त थे। उनकी यही रहस्यमयी षक्ति आम जनता में उनके प्रति आस्था बढ़ाए जा रही थी। वे कब पूजा पाठ करते थे किसी ने देखा नहीं। उनका आश्रम हलद्वीप के सन्निकट था। गोपाटक गाँव के चैधरी वुद्ध गोप अभीर, देवरात के परम भक्त थे। हलद्वीप के राजा कोई निर्णय लेने से पहले देवरात से जरूर विचार विमर्ष करते थे। परन्तु ,जबसे रुद्रसेन हलद्वीप के राजा हुए किसी से विचार विमर्ष करना उचित नहीं समझते थे। राजा के विरुद्ध जनता का आक्रोष देखकर उन्होंने राजा रुद्रसेन को समझाने का प्रयास किया ,परन्तु कुछ लाभ न हुआ। गोपाटक गाँव के वृद्धगोप से राजा रुद्रसेन भयभीत रहते थे। क्योंकि अभीरों में उसकी अच्छी पहुँच थी। वह गलत निर्णयों के विरुद्ध मुखरित हो उठता था ,और विद्रोह की स्थिति पैदा कर देता था। परन्तु वृद्धगोप की मृत्यु के पष्चात हलद्वीप के राजा रुद्रसेन निरंकुष हो गए। राजा सुरा और सुन्दरी तक सीमित रहने लगे। प्रजा की देखरेख से विरत रहने लगे। आये दिन प्रजा को लूटा जाने लगा। बहू-बेटियों का षील नष्ट किया जाने लगा। खेतों की पकी फसल जबरदस्र्ती काट लिया जाने लगा। हलद्वीप नगर के सेठ वसुभूति का घर दिन दहाड़े लूट लिया गया। राज-दरबार में षिकायत करने पर कोई सुनवाई नहीं हुई। उल्टे उन्हें राज-दरबार में अपमानित किया गया। राज-दरबार में चाटुकारों तथा भड़ओं का बोलबाला हो गया। राजा रुद्रसेन के विरुद्ध जगह जगह चर्चाएं होने लगीं।

   कोई कहता-ःदेख लेना ऐसा अत्याचार भगवान भी नहीं सह सकेंगे। सबकी मर्यादा होती है। किसी के घर में घुसकर बहू-बेटियों पर कु-दृष्टि डालने और लूट खसोट का परिणाम अवष्य भुगतना पड़ेगा। दूसरा कहता-राजा का सर्वनाष निकट आ गया है। इसी पाप से राजा का सर्वनाष होना सुनिष्चित है। तीसरा कहता-धीरे धीरे बोलो कोई सुन न ले। बरना जानते नहीं कि राजा के गुप्तचर चारों तरफ घूम रहे हैं। किसी ने जाकर कह दिया तो चमड़ी उधेड़ ली जायेगी। चैथा-सत्यानाष तो होना ही है। जब रावण ,कंस नहीं टिक सके तो यह रुद्रसेन कितने दिन टिकेगा।

  जन जन में आक्रोष था ,परन्तु अन्दर भय भी। सेठ वसुभूति कुछ लोगों के साथ गोपाटक गाँव के अभीरों के मुखिया बुद्धगोप के पुत्र गोपाल आर्यक के पास गए। गोपाल आर्यक वीर पुरुष था और निडर भी। राजा रुद्रसेन और गोपालक आर्यक में अनबन चलती थी।

  वसुभूति-ःबेटा जब तक तुम्हारे पिताजी थे ,किसी में साहस नहीं था कि वह इस तरह भले आदमी का अपमान करे। जब भी प्रजा पर अत्याचार होता था वे राजा के खिलाफ अपनी आवाज बुलन्द करते थे। कई बार राजा को अपने निर्णय बदलने भी पड़े थे। परन्तु आज मैं बहुत दुखी हू(। तेरे पिताजी भी न रहे। अब यह राज्य छोड़कर चले जाने में भलाई दिख रही है।

  गोपालक आर्यक-ःनहीं सेठ जी हलद्वीप में अनर्थ हो रहा हो और मैं चुप बैठा रहूँ यह संभव नहीं है। आप यह राज्य न छोड़ें।

  वसुभूति-लेकिन राजा की विषाल सेना के सामने तुम अकेले क्या कर सकते हो ? आर्यक-ः जनता और आपका आषीर्वाद मिला तो मैं बहुत कुछ कर सकता हूँ। मैं आज निरीह जनता की रक्षा का संकल्प लेता हूँ ,आप वापस जायें। सेठ वसुभूति ने आर्यक की पीठ थपथपायी। बिजली की भाँति यह बात पूरे क्षेत्र में फैल गई। गाँव गाँव के नौजवान राजा रुद्रसेन के खिलाफ आर्यक के पक्ष में एकजुट होने लगे। हलद्वीप के राजा के गुप्तचरों ने जब राजा को सूचना दी तो राजा ने आर्यक को चीटियों की तरह मसल देने की कसम खाई। टकराव की सम्भावना प्रबल हो गइ्र्र। आकस्मिक जनता पर अत्याचार का तांता रुक सा गया। विरोध आर्यक और राजा के बीच सीमित हो गया। जनता पूरी तरह आर्यक के पक्ष में हो गई। दो एक बार आपसी झड़प भी हुई। परन्तु राजा के सैनिकों के सामने आर्यक के नौजवान टिक न सके। आर्यक थक हार कर पाटलिपुत्र के राजा समुद्रगुप्त से सम्पर्क किया। समुद्रगुप्त गोपाल आर्यक को पाकर अन्दर ही अन्दर बहुत खुष हुआ। समुद्रगुप्त गोपाल के साहस और उत्साह से प्रसन्न होकर उसे अपने पक्ष में लेना उचित समझा। समुद्रगुप्त को भी ऐसे युद्धाकाँक्षी की आवष्यकता थी। दोनों में प्रगाढ़ दोस्ती हो गई। समुद्रगुप्त सम्राट बनना चाहता था। जहाँ कहीं भी मौका मिलता राजाओं पर आक्रमण कर देता था। वह राजा रुद्रसेन पर आक्रमण करने की योजना बना ही रहा था कि गोपालक आर्यक ने आकर यह कार्य और आसान कर दिया। समुद्रगुप्त गोपाल आर्यक को अपने साथ पाटलिपुत्र ले गये। चंूकि हलद्वीप की जनता राजा रुद्रसेन से असन्तुष्ट चल रही थी अतः वह हलद्वीप के राजा रुद्रसेन पर भी आक्रमण की योजना बनाने लगा। समुद्रगुप्त राजा रुद्रसेन के खिलाफ षणयंत्र रचना षुरू किया। सर्व प्रथम उसने राजा रुद्रसेन के खिलाफ आर्यक को उकसाया। समुद्रगुप्त-ः‘‘आर्यक तुम मेरे मित्र हो। हलद्वीप के राजा रुद्रसेन के मान मर्दन का भार हम तुमहें सौंपना चाहते हैं।’’ आर्यक ने उस आदेष को उल्लास के साथ स्वीकार किया। समुद्रगुप्त गोपाल आर्यक को एक सेना दिया और उसका सेनापति बनाकर हलद्वीप पर आक्रमण के लिए भेजा। आर्यक ने समय को भँाप कर हलद्वीप पर आक्रमण किया। राजा रुद्रसेन के खिलाफ जनता का आक्रोष आग में घी का काम किया। राजा रुद्रसेन का पतन हुआ और आर्यक ने हलद्वीप पर गुप्त सम्राट का ध्वजा लहरायी। समुद्रगुप्त ‘‘उत्खात प्रतिरोपण’’ की नीति में विष्वास करता था। जिसे हराया उसे ही पुनः राजा बना दिया। समुद्रगुप्त की यही नीति ही भावी गुप्त साम्राज्य की नींव थी। जिस राजा को जीता उसे अपनी अधीनता स्वीकार कराकर अधीनस्थ राजा बना दिया। परन्तु हलद्वीप के राजा रुद्रसेन के साथ ऐसा नहीं किया गया। क्योंकि राजा रुद्रसेन के प्रति जनाक्रोष इसका मुख्य कारण था। चूंकि गोपाल आर्यक ने राजा रुद्रसेन को पराजित किया था अतः समुद्रगुप्त ने आर्यक को हलद्वीप का राजा घोषित किया। आर्यक के राजपद पर अभिषिक्त होने से विरोधी दब गये। कुछ मारे भय के अन्यत्र चले गये तो कुछ ने भागकर जंगल की षरण ली। अब हलद्वीप षान्त हो गया। इस प्रकार हलद्वीप से भरों के षासन का अन्त हो गया। राजा रुद्रसेन और दुव्र्यसन भरों के नाष का कारण बना। (पुस्तक-ःपुनर्नवा ,लेखक श्री हजारीप्रसाद द्विवेदी से उद्धृत।)

राजभर षासक बज्रनाभ (त्रेता युग)

( लेखक-श्री रामचन्द्र राव, ग्राम खैराबाद, पोस्ट परषुरामपंुर (पिपराइच), जिला गोरखपुर उ.प्र. 273152 मो.नं. 09453303481)

          आज से सात सहस्त्राब्दि पूर्व  त्रेतायुग में भारत प्रायः द्वीप इससे बडा द्वीप था । उस समय आफ्रीका, आस्ट्रेलिया, लंका, जावा, बोर्निया, मेडागास्कर, अण्डमान-निकोबार, सुमात्रा, मलाया आदि अनेक छोटे छोटे द्वीप भारत में संष्लिष्ट थे । इन वर्तमान द्वीप का नाम उस समय कुछ और ही नाम था जो निम्नवत था । जावा (यवद्वीप), मलाया (मलयद्वीप), बोर्निया (बरुणद्वीप या षंखद्वीप), सुमात्रा (स्वर्णद्वीप या अंगद्वीप), आफ्रीका (कुषद्वीप), आस्ट्रेलिया (आन्ध्रद्वीप), मेडागास्कर (बाराहद्वीप), लंका (सिंहलद्वीप), अण्डमान (इन्द्रद्वीप), निकोबार (नागद्वीप)। आजकल जिस देष को अबीसिनिया कहते हैं, उन दिनों वही पाताल कहलाता था ! लेखक बाबू वृन्दावनदास की पुस्तक -प्राचीन भारत के हिन्दू राज्य पृष्ठ 344 के अनुसार बर्मा का नाम बालीद्वीप था । ये द्वीप भारत महाद्वीप के अंग थे । भू-वैज्ञानिकों के अनुसार भू-गर्भिक उथल पुथल के कारण जिस प्रकार हिमालय के एवरेस्ट चोटी की ऊँचाई दिन प्रतिदिन बढती जा रही है ,उसी प्रकार भारतीय महाद्वीप से धीरे धीरे ये द्वीप अलग होकर दूर हो गये । भूविदों के अनुसार आज भी इनकी दूरी बढ़ती जा रही है । इन द्वीपों में उस समय नर-नाग, देव-दैत्य, दानव, असुर, आर्य आदि सभी जन-जाति एक साथ रहते थे । उस समय विन्ध्य के उस पार भारतवर्ष के उत्तरापथ में आर्यावर्त था । दक्षिण समुद्र तट पर त्रिकूट पर्वत पर लंका थी । नागद्वीप जिसे वर्तमान में निकोबार कहते हैं ,वहां उस समय ज्यादा संख्या में नाग जाति के लोग रहते थे !

          प्रसिद्ध इतिहासकार डाॅ. राजबली पाण्डेय की पुस्तक ‘‘भारतीय इतिहास की भूमिका’’ के पृष्ठ 329 के अनुसार ‘‘भारत का भजरा देखते समय भारत प्रायद्वीप के नीचे अर्थात दक्षिण एक आम के आकार का द्वाीप दिखाई देता है, जिसे सिंहलद्वाीप कहते हैं । भारत भूमि से एक सकरे व उथले समुद्र से जिनके ऊपर पहाड़ियां भी बीच बीच में दिखाई देती हैं यह लंका अलग होता है । यह भाग भारत का पहले अंग था । लंका के एक अनुश्रुति के अनुसार उसके उत्तरी भाग में प्राचीनकाल में नाग जाति के लोग रहते थे । इसीलिए उस भाग को नागद्वीप हते थे । नाग जाति भारत से ही लंका आई थी ।

          वर्तमान में बालीद्वीप भारत से 3000 मील दूर जावा व सुमात्रा के पूर्व की ओर स्थित है । वर्तमान में इसका क्षेत्रफल 2243 वर्गमील है । यहां की जनसंख्या 15 लाख है । इसमें अधिकतम हिन्दू हैं और वे षैव हैं । उनके मंत्र व स्सोत्र सब संस्कृत में होते हैं । अन्य द्वीपों में हिन्दू धर्म लोप हो गया है । परन्तु बालीद्वीप में अब भी हिन्दू धर्म जीवित है । कहा जाता है कभी बालीद्वीप भारत से स्थल मार्ग से जुडा हुआ था ।............। वहां की जनता पर रामायण तथा महाभारत का व्यापक प्रभाव है । यहां के खण्डहरों व मन्दिरों में प्राचीन हिन्दुत्व का स्वरूप प्रकट है । ( पुस्तक --वैदिक संस्कृति पर पौराणिक प्रभाव पृष्ठ 64 लेखक चतुरसेन)

उस समय अर्थात् त्रेता में ये छोटे छोटे द्वीप भारत के अनुद्वीप माने जाते थे । तथा ये सभी द्वीप एक दूसरे से मिले जुले थे । उनका विषाल भूभाग लंका महाराज्य के अन्तर्गत था । इस लंका महाराज्य मे्र उस समय देव, दैत्य, किन्नर, असुर, नाग आदि सभी जाति के जन रहते थे । उस समय लंका में रावण के सौतेले अनुज धनपति कुबेर अधिपति थे । वहीं बगल में बाली द्वीप था, जिसके अधिपति बज्रनाभ नाग थे ,जो लंकाधिपति कुबेर के मित्र थे । तथा बालिद्वीप के अगलबगल के छोटे छोटे द्वीपों का अधिपति दानवेन्द्र मकराक्ष था । यह बज्रनाभ का परम मित्र था । जहां उस समय भारत में वैदिक संस्क1ति का प्रभाव था, वहीं लंका तथा उसके अगलबगल के सभी द्वीपों पर यक्ष संस्कृति के मानने वाले जन थे ! अतः बाह्य आक्रमण के समय यक्ष संस्कृति से जुड़े होने के कारण ये सभी अधिपति आवष्यकतानुसार सैनिक सहयोग करते थे ! बालिद्वीप के अधिपति बज्रनाभ स्वयं ही एक वीर योद्धा थे । उनका सैनिक संगठन सषक्त था । देष के आन के लिए अपने जान की आहुति देने वाले विकट भट (सैनिक) दुष्मनों पर मौत बनकर टूट पड़ते थे । सम्भवतः इसीलिए आमने सामने की लड़ाई से उनके दुष्मन थर्राते थे ।

          उस समय एक नई संस्कृति का उदय हुआ । जिसका नाम रक्ष संस्कृति था, जिसका प्रतिश्ठाता ऋशि विश्रवा सुत रावण था । उसका मातामह (नाना)दैत्यराज सुमाली था ,जो रावण के एक सैन्यदल का दल प्रमुख था । किसी समय सुमाली ने ही त्रिकुट पर्वत पर लंका को बसाया था । उस समय लंका 30 योजन चैड़ा 100 योजन लम्बाई में बसा था ।परन्तु किन्हीं कारणों से उसे लंका ,ााली करना पड़ा था । सुनसान लंका को पुनः कुबेर ने बसाया और उसके अधिपति बने । रावण अपने ननिहाल में मातामह सुमाली के देखरेख में रहता था । जब रावण तरुण हुआ तो मातामह सुमाली को अपने लंका की याद सताने लगी । वह रावण के माध्यम से ही लंका पुनः पा सकता था । अतः उसने तरुण रावण को उकसाया । रावण के सामने तीन लक्ष्य थे । पहला रक्ष संस्कृति जिसका प्रतिश्ठाता वह स्वयं था ,उसका प्रचार-प्रसार करना । दूसरा लंका पर आक्रमण करके धकुबेर को परास्त कर लंकेष बनना । तीसरा विष्व विजयी बनना । दषग्रीव रावण के पराक्रम और षौर्य से सभी द्वापों के अधिपति अवगत थे । वह अपराजित योद्धा था । उसने कभी हार का मुंह नहीं देखा । वह एक सैन्य दल जिसमें मातामह सुमाली तथा मातुल (मामा) अकम्पन आदि मौजूद थे को लेकर लंका की तरफ बढ़ा । उसने लंका के आसपास के तमाम छोटे छोटे द्वीपों पर विजयश्री हासिल की । जिस द्वीप के अधिपति (राजा) ने वयं रक्षामः बोला एवं रक्ष संस्कृति को अंगीकृत किया वह अभयदान पाया । जिसने विरोध किया दसग्रीव रावण ने अपने परषु से उसका सिर धड़ से अलग किया । लंका पर आक्रमण करने से पहले रास्ते में बालिद्वीप पड़ता था । उसे जीतने के प्ष्चात ही आगे बढ़ना संभव था । साथ ही यह भी डर था कि कहीं लंका पर सीधे आक्रमण किया जाय तो उस समय अगल बगल द्वीपों के अधिपति जो यक्ष संस्कृति के प्रवर्तक थे एक जुट होकर लड़ सकते हैं । एतः पहले नागपति बज्रनाभ के राज्य पर आक्रमण करना आवष्यक हो गया । परन्तु मातामह दैत्यराज सुमाली ने बज्रनाभ तथा उसके सैन्य दक्षता को सुनकर भयभीत हो गया । मंत्री, सेनापति एवं गुप्तचरों की एक गुप्त बैठक आहूत की गई । बैठक में सुमाली तथा गुप्तचरों ने अवगत कराया कि अधिपति बज्रनाभ के राज्य क्षेत्र को आमने सामने की लड़ाई में जीतना संभव नहीं है । राजा बज्रनाभ व उसके भटों (वीरों) की एक कमजोरी अवष्य संज्ञान में आई है । वह यह है उनका मद्यपान । नाग लोग प्रतिदिन सायंकाल मद्व का सेवन अवष्य करते हैं । नाग लोग हर साल राजप्रासाद में नाग संवत्सर समारोह मनाते हैं । उसका समय कल ही निर्धारित है । नाग संवत्सर समारोह के दिन राजा बज्रनाभ उनके भट एवं सभी उपस्थित जन छक कर मद्यपान करेंगे वे नषे में अपना होष खो बैठेंगे । उसी समय इनकी कमजोरी का लाभ उठाकर उन पर आक्रमण किया जाय तो बालीद्वीप पर विजयश्री मिल सकती है । सुमाली एवं दषग्रीव ने एकान्त में बैठकर योजना बनाई । चूंकि नाग लाग नाग संवत्सर समारोह रात्रि में राजप्रासाद में मनाते हैं अतः रात्रि के समय अंधेरे का लाभ लेकर कुछ कुषल भट (वीर सैनिक) भेष बदलकर उनके समारोह में षामिल हो जायेंगे तथा कुछ भटों को अंधेरे में ही मुख्य द्वार के अगल बगल छिपे रहने एवं कुछ भटों को अंधेरे में ही पुर  से थाड़ी दूर पर चारों तरफ छिपे रहने का निर्देष दिया । समय को भंपकर उचित दिषा निर्देष मिलने पर अन्तःपुर में प्रवेष या आक्रमण की योजना बनाई गई ! ना्र लोग मद्य के विषेष प्रेमी होते हैं ,अतः षीघ्रातिषीघ्र मदहोष करने वाले विषेष प्रकार के पेय मातामह सुमाली द्वारा तैयार किया गया, जो गले के नीचे उतरते ही अपना प्रभाव दिखा देने वाला था ।जिस रात्रि में बालीद्वीप के राजप्रासाद में नाग संवत्सर समारोह अति उत्साह के साथ मनाया जा रहा था उस रात्रि के प्रथम पहर में दषग्रीव रावण व सुमाली द्वारा जो अभियान चलाया गया उसका वर्णन पुस्तक ‘‘वयं रक्षामः’’ पृष्ठ 49 से 53 तक षीर्षक लघु अभियान लेखक आचार्य चतुरसेन के मूल पंक्तियों का अवलोकन करें--

          ‘‘दैत्यों का वह छोटा सा दल निःषब्द ,नीरव समुद्र तट से तनिक हटकर घाटी में टेढ़े तिरछे मार्ग में तीब्र गति से नगर की ओर बढ़ रहा था । दल के आगे रावण कंधे पर भीमकाय परषु रख ेचल रहा था । उसके पीछे वृद्ध व्याघ्र दैत्य सेनापति सुमाली था । दैत्य दल की ये काली काली छायायें चतुर्थी की चन्द्रज्योति में हिलती हुई विचित्र प्रतीत हो रही थी । दैत्यों के इस दल को विकट निर्जन तथा ऊबड़-खाबड़ मार्ग में चलने से कुछ भी कष्ट नहीं हो रहा था । दल का प्रत्येक भट विजय के विष्वास से ओतप्रोत था । सुमाली ने आगे बढ़कर रावण के कंधे पर हाथ रखा । रावण ने तनिक कान पीछे झुकाकर कहा-‘‘कुछ और आदेष है मातामह ?’’ सुमाली-‘‘नहीं पुत्र सब पूर्व नियोजित है , किन्तु तेरे भट यथा समय उपस्थित मिलेंगे न ? ऐसा न हो कि वे सब उत्सव के हुड़दंग में मद्यपान कर मत्त हो जायें ।’’ रावण-- ‘‘ऐसा न होगा मातामह । उनका नेतृत्व मातुल अकम्पन कर रहे हैं ।’’ सुमाली--‘‘तब ठीक है ,हमारे मद्यभाण्ड भी नागराज को समय पर मिल जायेंगे । परन्तु पुत्र ठीक क्षण आने पर धैर्य रखना । इन नागों को मैं भलीभांति जानता हूं , विष और मद्य इन्हें अभिभूत नहीं करते । ये दिव्यौषधि सेवन करते तथा सांम पान करते हैं । इसी से एक प्रकार से वे सब मृत्युन्जय हैं ।’’ रावण--- ‘‘चिन्ता न कीजिए मातामह, रावण का यह परषु किसी मृत्युन्जय की आन नहीं मानता और फिर हमें उनके प्राण लेने से क्या प्रयोजन । हम तो द्वीप पर अधिकार चाहते हैं । यदि नाग हमारी रक्ष संस्कृति को स्वीकार कर लें तो हमारी ओर से वे ही द्वीप पर षासन करें ।’’ सुमाली--- ‘‘यह पीछे देखा जायेगा पुत्र, पहले युद्ध पीछे राजनीति । यह देखो सामने ही पुर है । आषा करता हूं कि नया द्वार पर हमें अपने भट मिल जायेंगे ।’’ रावण--- ‘‘द्वार के निकट ही हमारे भट छिपे हुए हैं ।’’ सुमाली---‘‘ तो अब हमें सावधान हो जाना चाहिए ।’’ रावण-- ‘‘आप केवल दल का पृष्ठ भाग सम्भालिए , मैं स्वयं ही निपट लूंगा । नगर में हमारे मित्र बहुत हैं । राज्यसभा में भी हमारे मित्र हैं । सब दैत्य, असुर ,दानव और राक्षस तो अपने मित्र हैं ही । यक्ष, देव व गंधर्व भी विरोध न करेंगे ,फिर नर नाग ही रहे ,सो उनका बल ही क्या ?’’ सुमाली--‘‘ ठीक है, पर पुत्र षत्रु को कभी लघु न गिनना, सावधान रहना।’’ उत्तर में रावण ने वृद्ध नाना का हाथ कसकर पकड़ तनिक मुस्करा दिया और दैत्य आष्वस्त हो गया । कुछ ठहरकर रावण हंसकर कहा--‘‘ आप तो नागपति के पिता के मित्र हैं ,बज्रनाभ तो आपका स्वागत ही करेगा ।’’ सुमाली--‘‘ नही ंतो क्या ? और जब मैं उससे कहूंगा कि यह दिग्पति धनकुबेर का अनुज दषानन रावण है तो वह ससम्मान तुझे अभ्युत्थान देगा ।’’ रावण--‘‘स्वस्ति, तो हमारे सर्वोपरि अस्त्र ये मद्यभाण्ड हैं ।’’ सुमाली--‘‘ये रत्नमणि अस्त्र ही समझ पुत्र । जब हमस ब स्वर्ण, रत्नमणि और मद्यभाण्ड उसे मैत्री-भाव से भेंट करेंगे तो वह आनन्द से उन्मा होकर हमारी लायी हुई सुरा का सब सचिवों सहित पान करेगा । इन नागों को हमारे मसालेदार मद्य बहुत प्रिय हैं, और मेरी बनाई हुई सुवासित मद्य जो एक बार पी लेगा ,उसे भूलेगा नहीं ,वह असंयत हो जायेगा । बस, हम ज्योंहि उन सबको मदमा और असावधान देखेंगे ,अपने कार्य पूर्ण कर लेंगे ।’’ रावण--‘‘ इससे उत्तम युक्ति क्या हो सकती है मातामह । किन्तु, आप क्या नागपति बज्रनाभ को पहचानते हैं ?’’ सुमाली--‘‘उसका पिता मेरा कृपापात्र तथा मित्र था । उसकी एक बार असुरों के विरुद्ध सम्मुख युद्ध में मैंने सहायता की थी । बज्रनाभ यह जानता है और हमें मित्र-भाव से आया जान हमारा सत्कार करेगा ।’’ रावण--‘‘तो हम उसे जय करके मित्र ही बना लेंगे मातामह ।’’ सुमाली--‘‘ जैसा संयोग होगा, बध भी करना पड़ सकता है । देख यह सम्मुख ही नगर द्वार है । अब सब कोई सावधान हो जाओ । मैं आगे चलकर द्वाार खुलवाता हूं ।’’ व1द्ध असुर आगे बढा । अवरुद्ध द्वार पर आकर उसने पुकारा--‘‘अवरुद्ध कपाटं द्वारं देहि, द्वारं देहि ,द्वारं देहि । द्वारपाल ने झरोखे से ही सिर निकालकर कहा--‘‘कौन हो तुम ?’’ सुमाली--‘‘नागराज के सम्मानित अतिथि हैं, क्या तू नहीं जानता ? आज नागराज हमारी अभ्यर्थना करेगा, बोल तुझे आदेष मिला है ?’’ द्वारपाल--‘‘आदेष नहीं मिला है, चिन्ह है ?’’ सुमाली--‘‘ चिन्ह भी देख ले ।’’बूढ़े दैत्य ने बगल से एक नरसिहं निकालकर जोर से फंका । इधर उधर छिपे बहुत से दैत्यों ने आकर उस सुभट का सिर काट लिया और द्वार खोल दिया ।

          सभी दैत्य नगर में घुस गये । द्वार अवरोध कर्ता वार्ता युद्ध करने लगे । परन्तु रावण द्वार पर रुका नहीं वेग से अपने सुभटों को संग लेकर राजप्रासाद की ओर बढ़ता चला गया । जो दो चार नाग सुभट द्वार रक्षा में उपस्थित थे ,उन्हें मारकर असुरों ने द्वार अधिकृत कर लिया । किसी को भी यह बात कानोंकान न सुनाई दी । अब भेरी व नगाडे बजाते हुए दैत्य राजद्वार में घुस गये । प्रासाद में किसी ने उनका विरोध नहीं किया । कुछ इधर उधर बिखरकर भीड़ में मिल गये । प्रासाद में बहुत भीड़भाड़ थी । बहुत लोग प्रसाद में आ जा रहे थे । लोग ठौर ठौर मद्यपान करके कोलाहल मचा रहे थे । ये असुर भी जहां तहां उनमें घुसकर कोलाहल मचाने और मद्य पीने पिलाने लगे । वास्तव में आज नाग संवत्सर समारोह मना रहे थे । राजप्रासाद खूब सजा था ।विविध वाद्यों के निनाद और लोगों के षोर के कोलाहल से कान नहीं दिए जाते थे । सभाभवन और मण्डप खूब ठाठ बाट से सजाये गये थे । सारे सभामण्डप में रंगबिरंगी पताकाएं फहरा रही थी । बीच में रत्न-जड़ित मण्डप था । उस पर स्वर्णतार ख्चित वस्त्र पड़ा था । सभा में नर, नाग, दैत्य, दानव, असुर, देव सभी उपस्थित थे । नागराज का सिंहासन सिंदल के बड़े बड़े मुक्ताओं से सजा था । वहां अनेक प्रकार के सुगंधित द्रव्य जल रहे थे ।

          सभा मण्डप के एक कोने में वादकों का एक दल मधुर वाद्य बजा रहा था । कुछ देर बाद एक प्रौढ़ पुरुष स्वर्ण विमान पर सवार सभा मण्डप पर आया । दिव्यांगनाएं वह स्वर्ण विमान उठाये हुए थीं । बहुत सी वार-बनिताएं उसके आगे मंगलगान करती आ रही थीं । विमान के चारों ओर ष्षुभ्र-वसना कुमारिकाएं मंगल चिन्ह लिए लाज विसर्जन करती हुइ्र चल रहीं थीं । यही भेगिराज नागपति बज्रनाभ था ।

          बज्रनाभ के सभा मण्डप में आते ही सब बाजे जोर जोर से बज उठे । सिंहद्वार पर दुन्दुभी गर्जने लगी । सभीलोग जय जयकार करते हुए उठ खड़े हुए और घुटनों पर हाथ टेक खड़े रह गये । भोगिराज के सम्मुख सीधा खड़े होने का किसी को आदेष न था । ठीक उसी समय मण्डप के बाहर दूसरी ओर दुन्दुभी बज उठी और उक ही क्षण बाद बज्रवक्ष दषानन रावण हाथ में एक भीमकाय परषु और दैत्यपति सुमाली विकराल खड़ग लिए लाल वस्त्र पहने सभामण्डप में आ खड़े हुए । इन दो महातेजस्वी पुरुषों को खड़ा देखकर सभा भभीत चकित रह गई । जो वाद्य सभा में बज रहे थे, स्तब्ध हो गये । आगन्तुक ष्षत्रु है या मित्र यह कोई जान न सका । नागराज बज्रनाभ घूर-घूर कर रावण की बज्रमुष्ठि में गहे हुए परषु को देखने लगा ।

          परन्तु उसी समय दैत्य सुमाली ने आगे बढ़कर कहा--‘‘ स्वस्ति नागराज ,मैं दैत्य सुमाली हूं और यह आयुष्यमान दषानन रावण मेरा दौहित्र तथा दिग्पति धन कुबेर का अनुज है । रावण का कुछ अभिप्राय है जिसे वह अभी निवेदन करेगा । अभी आप हमारी यह स्नेह भेंट स्वीकार कीजिए । ’’ इतना कहकर दैत्यपति ने संकेत किया । दैत्य अनुचरों ने मद्यभाण्ड ला लाकर नागराज के सम्मुख धर दिए । रत्नमणि की मंजूषा भी नागराज के सम्मुख खोल दी । यह मूल्यवान स्नेह भेंट देखकर नागपति प्रसन्न हो गया । वह सिंहासन छोड़ उठ खड़ा हुआ । आगे बढ़कर उसने रावण को छाती से लगाकर सिर सूंघा और आंखों में आंसू भरकर गदृगदृ होकर कहा--‘‘स्वागत भद्र, जैसे लोकपाल धनेष मेरा मित्र है, वैसा ही तू है । तेरे पिता विश्रवा मुनि को मैं जानता हूं, ।’’ फिर उसने दैत्येन्द्र की तरफ मुंह फेरकर कहा--‘‘दैत्यपति आप तो मेरे पूज्य पितृव्य ही हैं, पितृ चरणों ने आपसे मैत्री लाभ किया है, आपका स्वागत ,यह आसन है विराजिए ।’’

          नागपति ने दैत्येन्द्र सुमाली और दषानन रावण को अपने साथ सिंहासन पर बैठाया । सिंहासन पर बैठते ही बन्दीजन ने नागराज की वन्दना की । किन्नर और गंधर्व गाने लगे । अप्सरायें नृत्य करने लगीं । इसके बाद नागराज के आदेष से मद्यपान चला । मरकत के पात्रों में मद्य भर भरकर नागों के अतिथियों के हाथ में दिए । मद्य पीकर दैत्य संप्रहषित हुए । अवसर पाकर सुमाली ने दैत्यों को संकेत किया। दैत्यों ने मद्य भाण्डों में मद्य उड़ेल उड़ेलकर नागों को पिलाना आरम्भ कर दिया । नागराज ने हंसकर सुमाली दैत्य के हाथ से सुवाषित मद्य लेकर पिया । धीरे धीरे मद्यपान में संयतभाव लोप होने लगा तथा मद्य भी नागों के मस्तिष्क में पहुंचकर उधम मचाने लगा । उसी समय सब बाजे जोर जोर से बज उठे । नृत्यांगनाओं ने भाव-नृत्य आरम्भ किया । प्रत्येक नृत्यांगना हाथ जोड़ दोनों हाथों के अंगूठे नाक से लगाकर प्रथम नागराज को और फिर उसके मान्य अतिथियों को प्रणाम करतीं तब नृत्य करतीं । अनेक प्रकार के सज्जा नृत्य ,विलास नृत्य, और भाव नृत्य होते रहे । फिर भंगिमा नृत्य होने लगा । प्रत्येक नृत्य नाटक में गायक और वादक के साथ कहानी भी चलती थी । इसके बाद युद्धाभिनय हुआ । देवासुर संग्राम की भूमिका चलने लगी । धीरोदात्त पात्र अभिनय करने लगे । मद्यपान धूम-धाम स ेचल रहा था । नागराज आनन्दातिरेक से बहुत सा मद्य पी चुके थे । दैत्य उन्हें ढाल ढालकर और मद्य देते जा रहे थे । सुमाली उन्हें बावा दे रहा था । अकस्मात बाहर बहुत सा गोलमाल सुनायी दिया और सावधान होने के प्रथम ही चारों ओर से दैत्य सुभट भरी भरी खडृग, परषु, त्रिषूल, मुग्दर लिए सभा मण्डप में घुस आये और मारकाट करने लगे । देखते ही देखते नागों का विध्वंष होने लगा । चारों ओर कोलाहल मच गया । नागराज ने विस्मित होकर रावण की ओर देखकर कहा--‘‘पुत्र यह क्या है ?’’ रावण ने अपना परषु उठाया । वह उछलकर सिंहासन पर खड़ा हो गया । हवा में चारों ओर परषु लहराकर जल्द गम्भीर स्वर से गरजकर कहा--‘‘वयं रक्षामः ।’’ उसने फिर हवा में परषु हिलाया । संकेत से दैत्यों को रोका । क्षण भर को मारकाट रुक गई । परन्तु दैत्येन्द्र सुमाली अपना विकराल खडृग नागराज के सिर पर तानकर खड़ा हो गया ।

रावण--‘‘ सब कोई सुने, आज से यह बालीद्वीप रक्ष संस्कृति के आधीन हुआ । हम राक्षस इसके अधीष्वर हुए । जो कोई हमसे सहमत हैं उसे अभय और जो कोई सहमत नहीं है उसका इसी क्षण षिरच्छेद होगा । पहले तुम नागराज अपना मंतव्य प्रकट करो । यदि तुम हमारी रक्ष संस्कृति स्वीकार करते हो तो हमार ओर से इस द्वीप के स्वामी तुम्ही हो ।’’ बज्रनाभ--‘‘ किन्तु पुत्र, यह कैसा अत्याचार है ? यह तो विष्वासघात है ।’’ रावण--‘‘ इस प्रकार की बातें मित्रता विरोधिनी हैं नागराज ! जहां समान बल नहीं होता वहां यह युक्ति युद्ध ही श्रेयस्कर है, ऐसी नीति का बचन है । कहो, क्या तुम्हें रक्ष संस्कृति स्वीकार है ?’’ क्रोधित अभिभूत होकर नागराज ने हाथ झटक कर कहा --‘‘नहीं ।’’ और उसी क्षण बज्रपात की भांति रावण का कुठार नागराज के कण्ठ पर पड़ा । उसका सिर कटकर दूर जा पड़ा । सज्जित सिंहासन खून से लाल हो गया । इसके साथ ही सब दैत्य नागों पर पिल पड़े । न जाने कहां से दैत्यों के दल बादल जैसे भूमि फाड़कर निकल निकल कर आने लगे । कुछ क्षणों में ही नागों का सफाया हो गया । बचे हुए नाग ,गंधर्व, यक्षों ने रावण की आधीनता स्वीकार कर ली । नागराज के कटे हुए सिर को उठा ,उसी के रक्त से रावण के मस्तक पर तिलक देकर तथा उसे रक्तप्लुत सिंहासन पर बैठाकर दैत्येन्द्र सुमाली ने विकराल खडृग हवा मे हिलाते हुए जोर से चिल्लाकर कहा--‘‘वयं रक्षामः ।’’ दैत्यों, नागों, दानवों गंधर्वों और यक्षों ने एक स्वर से वही स्वर ध्वनित किया । बाली द्वीप में रावण ेी आन फिर गई । नागों के उस भव्य प्रासाद को रावण और उसके साथी दैत्यों ने अधिकृत कर अन्तःपुर पर पहरे बैठा दिए । इस समय तीन पहर रात व्यतीत हुई थी ।

          भोर होते ही रावण ने रक्ताम्बर धारण किया । कन्धे पर धनुष और हाथ में वही विकराल परषु जिसका नागरक्त अभी सूखा नहीं था.........मामा अकम्पन को बुलाकर कहा--‘‘मातुल नागपति की अष्व षाला से सर्वश्रेष्ठ चार अष्वतरी;-(घोड़ी ) छांट लो और नागपति का स्वर्ण रथ मेरे लिए तैयार करो । उसे षक्तिषूल ,परिध वाण व तोमर से सज्जित कर षीघ्र उपस्थित करो । ’’ अकम्पन के चले जाने पर उसने वृद्ध’ दैत्य सुमाली से कहा--‘‘मातामह, एक छोटा सा अभियान है ,मैं जाता हूं। बालीद्वीप तथा नागराज के ष्ेाष अवरोध कका आप यथा रुचि विघटन कर लीजिए ।’’

          सुसज्जित रथ आ उपस्थित हुआ । वह मणिकांचन के सहयोग से विचित्र चित्रकला द्वारा विष्वकर्मा ने बनाया था । चर्म-फलक व रज्जुओं से वह बंधा था । उसमें सहस्त्र चन्द्र घंटिकाएं लगी थीं । जिनकी रण ध्वनि सहस्त्र भ्रमरों के गुन्जन की भांति कर्ण प्रिय थीं । काले रंग की चार अष्वतरी जो रथ में जुती थीं ,वे विद्युत की भांति चपल थीं । उनके कान खड़े थे और थूथन बड़ी थी । वे अपने खुरों से भूमि को खोद अपनी आतुरता प्रकट कर रही थीं । रावण रथ पर सवार हुआ और अकम्पन ने अगले अभियान के लिए अष्वतरियों पर हल्का सा चाबुक का प्रयोग किया कि अष्वतरियां वायु वेग से दौड़ पड़ीं ।’’ (सन्दर्भ ग्रन्थ -वयं रक्षामः लेखक आचार्य चतुरसेन के आधार पर )

          इस प्रकार अत्यधिक मद्यपान के कारण नागों (वर्तमान राजभरों) को बालीद्वीप की सत्ता से बेदखल होना पड़ा ।

क्या वर्तमान भर/राजभर पुराणकालीन नागवंषी है ? पुराणकालीन नागवंष को मध्यकालीन युग में भारषिव तथा वर्तमान में भर/राजभर के नाम से जाना जाता है । इस सम्बंध में कुछ इतिहासकारों के चन्द पंक्तियां का अवलोकन करें ---

(1) इतिहासकार कहते हैं कि नागों ने ही कुषाण वंष को पराजित करके भारत में अपना राज्य स्थापित किया था । इसी वंष का दौहित्र वाकाटक नरेष था ।(संदर्भ ग्रन्थ- वयं रक्षामः पृष्ठ 110, षीर्षक अनार्यजन लेखक आचार्य चतुरसेन )

(2) सन् 138 में बासुदेव गद्दी पर बैठा । बासुदेव की मृत्यु से लेकर साम्राज्य की स्थापना तक 150 वर्ष अंधकार वृत्तकाल जिसका इतिहास नहीं है ,वह समय है जब भारषिव और वाकाटक राजाओं ने भारत में षैव धर्म की स्थापना की । षक और कुषाण सम्राट हिन्दू ध्सर्म के विरोधी थे , उन्होंने ढूढ़ ढूढ़ कर मन्दिर तुड़वाये, ब्राह्मणों और क्षत्रियों को नीचे दबाया और नीच जनों को ऊंचा पद दिया । प्रजा पर भी उन्होंने भारी भारी टेक्स लगाये । ऐसे ही समय में भोगनाग, रामचन्द्र नाग, भूतनन्दी, षिषुनन्दी आदि प्रसिद्ध षासक हुए । ये सन् 80 से 140 के मध्य लगभग 60 वर्ष तक मध्य भारत के जंगलों में बसे ,जहां उन्होंने एक छोटा सा जंगली राज्य स्थापित किया । पीछे रीवा, बुन्देलखण्ड होते हुए गंगा के तट पर षकों को पराजित करके समस्त आर्यावर्त में इन्होंने साम्राज्य स्थापित किया । इन नव-नागों का राजवंष ‘‘ भारषिव’’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ .....ये लोग षिवलिंग को कन्धे पर लिए रहते थे ,इसीलिए इनका नाम भारषिव पड़ा । ये लोग दीक्षा संस्कार में ‘‘नमः षिवाय’’ कहते थे तथा यज्ञोपवीत की जगह गले में षिवलिंग लटकाते थे । (संदर्भ सोमनाथ पृष्ठ 261, 262 व 265 षीर्षक भारषिव और वाकाटक राजवंष व षैव समुदाय की षाखाएं लेखक आचार्य चतुरसेन )

(3) कुषाण राज्य को छिन्न भिन्न करने में नाग षासकों का विषेष हाथ था । पौराणिक अनुकृति के अनुसार नागों के भारषिव आधुनिक भारवंष ने लगभग समस्त मध्यप्रदेष अपने अधिकार में कर लिया था । ( सन्दर्भ ग्रन्थ नागवंष--मिथक और लोक साहित्य पृष्ठ 34, लेखक विमलेष्वरीसिंह )

(4)डाॅ. थामसन जगदीषप्रसाद चतुर्वेदी , डाॅ. जी.ए. फर्गूसन ,राहुल सांस्कृत्यायन , बी..ए. स्मिथ ,डाॅ. हेनरी इलियट आदि इतिहासविदों ने राजभर जाति को भिन्न भिन्न सिद्धान्तों के आधार पर प्राचीन नागवंषी क्षत्रियों की षाखा से निकली हुई माना है । डाॅ. काषीप्रसाद जायसवाल ने राजभर जाति के प्राचीन नागवंषियों की एक ष्षाख भारषिवों से निकली हुई माना है और मैं भी इसी निष्कर्ष पर पहुंचा हूं । (सन्दर्भ ग्रन्थ इतिहास लौटा पृष्ठ 203 लेखक जगदीषनारायणसिंह ऋषिवंषी)

(5) हलद्वीप के राजा यज्ञसेन भारषिवनाग वंष के थे । कान्तिपुर के राजाधिराज वीरसेन के सेनापति प्रवरसेन को जब काषी में नवम् अष्वमेधयज्ञ का भार दिया गया तो अपने पिछले अनुभवों के आधार पर उन्होंने निष्चय किया कि साकेत से पाटलिपुत्र तक कुषाण नरपतियों का जो भी प्रभाव अवषिष्ट रह गया है उसे समाप्त कर दिया जाय । उनके पुत्र विजयसेन को अष्व के रक्षा का भार दिया गया । उसी समय से हलद्वीप में भारषिवों का आधिपत्य हुआ । ये लोग साधारण जनता में भरषिव या भर कहे जाते हैं । (संदर्भ ग्रन्थ- पुनर्नवा, पृष्ठ 39, लेखक- हजारीप्रसाद द्विवेदी )

राजभर षासक षिवषरन

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